हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।
परिवार के निर्माण, उस के संगठन और उस की रक्षा के बारे में इस्लाम के योगदान को जानने से पूर्व हमारे लिए यह जानना आवश्यक है कि इस्लाम से पूर्व और पिश्चमी देशों में उस समय परिवार की स्थिति क्या थी।
इस्लाम से पूर्व परिवार ज़ुल्म, अन्याय और अत्याचार पर स्थापित था, समूचित मामला केवल पुरूषों के नियन्त्रण में होता था, स्त्री या लड़की अत्याचार ग्रस्त और अपमानित होती थी। इस का उदाहरण यह हैं कि यदि मर्द मर जाता और अपने पीछे पत्नी छोड़ता था तो उस के उस पत्नी के अलावा दूसरी औरत से जन्मित बेटे का यह अधिकार होता था कि उस से विवाह कर ले और उस पर नियन्त्रण रखे, या उसे किसी दूसरे से विवाह करने से रोक दे, तथा केवल पुरूष लोग ही वारिस होते थे, महिलाओं और बच्चों का वरासत में कोई हिस्सा नहीं होता था, तथा महिला को, चाहे वह माँ हो या बेटी या बहन, लज्जा और अपमान की दृष्टि से देखा जाता था ; क्यों इस बात की संभावना होता थी कि लड़ाईयों में उसे बंदी बना लिया जाये जिस के परिणाम स्वरूप वह अपने परिवार के लिए रूसवाई और लज्जा का कारण बन जाये। इसी कारण मर्द अपनी दूध पीती बेटी को जीवित गाड़ देता था, जैसाकि अल्लाह तआला ने इस का उल्लेख करते हुये फरमाया है :
"उन में से जब किसी को लड़की होने की सूचना दी जाए तो उस का चेहरा काला हो जाता है और दिल ही दिल में घुटने लगता है। इस बुरी खबर के कारण लोगों से छुपा छुपा फिरता है। सोचता है कि क्या इस को अपमानता के साथ लिए हुए ही रहे या इसे मिट्टी में दबा दे। आह! क्या ही बुरे फैसले करते हैं।" (सूरतुन-नह्ल : 58-59)
तथा परिवार अपने बड़े अभिप्राय में - अर्थात गोत्र के अर्थ में - एक दूसरे की सहायता और समर्थन करने पर आधारित था यद्यपि उस में किसी दूसरे पर अत्याचार ही क्यों न होता हो। जब इस्लाम आया तो उस ने इन सब को मिटा दिया, न्याय को स्थापित किया और हर अधिकार वाले को उस का अधिकार प्रदान किया यहाँ तक कि दूध पीते बच्चे, बल्कि माँ की पेट से गिर जाने वाले बच्चे को भी सम्मान और आदर प्रदान किया और उस के जनाज़ा की नमाज़ पढ़ने का आदेश दिया।
वर्तमान समय में पश्चिम में परिवार की स्थिति पर दृष्टि रखने वाला टूटे और बिखरे हुये परिवारों को पायेगा, मां बाप अपने बेटों पर वैचारिक या नैतिक तौर पर नियन्त्रण नहीं रखते हैं ; बेटे को यह अधिकार है कि वह जहाँ चाहे जाये या जो चाहे करे, इसी प्रकार बेटी को यह अधिकार है कि जिस के साथ चाहे उठे बैठे और जिस के साथ चाहे रात बिताये, यह सब कुछ आज़ादी और अधिकार देने के नाम पर होता है, परन्तु इस के बाद इस का परिणाम क्या होता है ? टूटे और बिखरे हुए परिवार, बिना विवाह के पैदा हुये बच्चे, ऐसे पिता और मायें जिन का न कोई देख रेख करने वाला है और न ही कोई पूछने वाला है, और जैसा कि कुछ विद्वानों ने कहा है कि यदि आप इन लोगों की स्थिति का पता लगाना चाहते हैं तो जेलों, अस्पतालों और बूढ़े और कमज़ोर लोगों के केन्द्रों पर जायें, बेटे अपने बापों को केवल अवसरों और ईदों पर ही जानते हैं।
सारांश यह कि गैर मुस्लिमों के यहाँ परिवार टूटा हुआ है, और जब इस्लाम आया तो उस ने परिवार की स्थापना की, उसे हानि पहुँचाने वाली चीज़ों से सुरक्षित किया, उस की मज़बूती की रक्षा की और उसके प्रत्येक सदस्य को उस के जीवन के अन्दर एक महत्वपूर्व रोल दिया : अत: इस्लाम ने महिला को एक माँ, एक बेटी और एक बहन के रूप में आदर और सम्मान प्रदान किया।
जहाँ तक एक माँ के रूप में उस का सम्मान करने की बात है तो अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्हों ने कहा :
"एक व्यक्ति अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के पास आया और कहा कि ऐ अल्लाह के सन्देष्टा! मेरे अच्छे व्यवहार का सबसे अधिक हक़दार कौन है ?
आप ने कहा: तुम्हारी माँ,
उसने कहा कि फिर कौन ?
आप ने फरमाया : तुम्हारी माँ,
उस ने कहा कि फिर कौन ?
आप ने फरमाया: तुम्हारी माँ,
उस ने कहा कि फिर कौन ? आप ने कहा : तुम्हारे पिता, फिर तुम्हारे क़रीबी रिश्तेदार।" (सहीह बुखारी हदीस संख्या : 5626, सहीह मुस्लिम हदीस नं.: 2548)
तथा एक बेटी के रूप में उस का सम्मान किया है : आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है कि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमायम :
"जिस की तीन बेटियाँ या तीन बहनें, या दो बेटियाँ या दो बहनें हैं, जिन्हें उस ने अच्छी तरह रखा और उन के बारे में अल्लाह तआला से डरता रहा, तो वह स्वर्ग में प्रवेश करेगा।" (सहीह इब्ने हिब्बान 2/190 हदीस संख्या : 446)
तथा एक पत्नी के रूप में भी उस का सम्मान किया है : आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से वर्णित है कि पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "तुम मे सब से अच्छा वह है जो अपनी पत्नी के लिए अच्छा हो, और मैं तुम सब में अपनी पत्नी के लिए सब से अच्छा हूँ।" इसे तिर्मिज़ी ने रिवायत किया है (हदीस संख्या : 3895) और हसन कहा है।
तथा इस्लाम ने महिला को वरासत में उस का हक़ दिया है, और बहुस सारे मामले में उसे पुरूषों के समान अधिकार प्रदान किया है, पैग़म्बर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "महिलाएं, पुरूषों के समान हैं।" इस हदीस को अबू दाऊद ने अपनी सुनन (हदीस नं.:236) में आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा की हदीस से रिवायत किया है और अल्बानी ने सहीह अबू दाऊद (हदीस संख्या : 216) में इसे सहीह कहा है।
तथा इस्लाम ने पत्नी के प्रति अच्छे व्यवहार की वसीयत की है, और स्त्री को पति चयन करने की आज़ादी दी है, और बच्चों के प्रशिक्षण की ज़िम्मेदारी का एक बड़ा हिस्सा उस के ऊपर भी डाला है।
इस्लाम ने माँ बाप पर उन के बच्चों के प्रशिक्षण की एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी डाली है:
अब्दुल्लाह बिन उमर रज़ियल्लाहु अन्हुमा से वर्णित है कि उन्हों ने अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को फरमाते हुए सुना : "तुम में से प्रत्येक व्यक्ति निरीक्षक (निगराँ) है, और तुम में से हर एक से उस की रईयत (जनता और अधीन लोगों) के बारे में पूछ गछ की जायेगी, इमाम निरीक्षक है और उस से उसकी प्रजा के बारे में पूछ गछ होगी, आदमी अपने परिवार में निरीक्षक है और उस से उसके अधीन लोगों के बारे में पूछ गछ होगी, औरत अपने पति के घर में निरीक्षक है और उस से उस के अधीनस्थ के बारे में पूछ गछ होगी, और नौकर अपने मालिक के माल के बारे में निरीक्षक है और उस से उस के देखे रेख के बारे में पूछ गछ किया जायेगा।" वह कहते हैं : मैं ने ये बातें अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से सुनी हैं। (सहीह बुखारी हदीस संख्या : 853, सहीह मुस्लिम हदीस संख्या : 1829)
इस्लाम मरते दम तक माता पिता का आदर सम्मान करने, उनकी देखे रेख करने और उनकी बात मानने के सिद्धान्त को स्थापित करने का बड़ा लालायित है : अल्लाह सुब्हानहु व तआला ने फरमाया :
"और तेरा पालनहार साफ-साफ आदेश दे चुका है कि तुम उस के अलावा किसी अन्य की पूजा न करना और माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करना यदि तेरी मौजूदगी में उन में से एक या वे दोनों बुढ़ापे को पहुँच जायें तो उनके आगे उफ तक न कहना न उन्हें डांट डपट करना, परन्तु उनके साथ मान और सम्मान के साथ बात चीत करना।" (सूरतुल इस्रा : 23)
तथा इस्लाम ने परिवार के सतीत्व, उस की पवित्रता, पाकदामनी, और उस के नसब (वंशावली) की रक्षा की है, अत: शादी विवाह करने का प्रोत्साहन दिया है, और महिलोओं और पुरूशों के बीच मिश्रण से रोका है।
और हर परिवार के हर सदस्य के लिए एक महत्वपूर्ण कार्य का छेत्र निर्धारित किया है, अत: माता पिता, इस्लामी प्रिशक्षण, बेटे, सुनना और बात मानना, तथा प्यार और सम्मान के आधार पर माता पिता के अधिकारों की रक्षा, ये सारे तत्व इस पारिवारिक स्थिरता के सब से बड़े गवाह और साक्षी हैं, जिस की गवाही दुश्मनों तक ने भी दी है।
और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है...
प्रस्तुतकर्ता: सलीम ख़ान
Special thanks to Mr. Saleem Khan
Friday, March 26, 2010
Thursday, March 25, 2010
विधवा महिला का जीवन The hard life of Indian widows.
ख्वाब का दर
विधवा ब्राह्मण महिलाओं को कितना जानते हैं आप?
हम भारतीय घर से बाहर निकलते ही अक्सर इतने शुचितावादी और नैष्ठिक होने लगते हैं कि यह तो लगभग भूल ही जाते हैं कि हमारी स्वाभाविक जिंदगी इन चीजों के कारण अस्वाभाविक और अप्राकृतिक हो जाती है. ....और दूसरों पर उंगली उठाने और राय बनाने में तो हमारी जल्दबाजी का जवाब नहीं. मेरे गांव की एक जवान विधवा यहां दिल्ली आकर कुछ करना चाहती है...नौकरी...घरेलू दाई का काम...मेहनत-मजदूरी का कोई भी काम जिससे अपना और एक बच्ची का पेट पल जाए. मगर उस विधवा ब्राह्मणी को आज की तारीख में भी दोबारा शादी करने की इजाजत नहीं है. उसे क्या किसी भी विधवा को आज भी मिथिला के ब्राह्मण समाज में पुनर्विवाह की अनुमति नहीं है. गांव में मेहनत-मजदूरी करने का तो खैर कोई सवाल ही नहीं, क्योंकि इससे गांव के अलंबरदार ब्राह्मणों की नाक कटेगी....अफसोसनाक बात यह है कि इन नाजुक नाक वालों की नजर उसके शरीर पर तो है...मगर उसके पेट और उसकी नीरस, बेरंग जिंदगी पर बिल्कुल नहीं.
परसों फोन पर वह मुझसे नौकरी मांग रही थी....और मैं कुछ इस तरह हां...हां किए जा रहा था जैसे नौकरी मेरी जेब में रहती है और उसके दिल्ली आते ही वह नौकरी मैं उसे तत्काल जेब से निकालकर दे दूंगा्...बाल-विधवा उस निरक्षर महिला की आकुलता और आगत जीवन की चिंता में इतना डूबता चला गया मैं. उसके दिल्ली की और नौकरी की असली स्थिति बताकर उसे और हताश करना मुझे अपराध-सा लगने लगा था...
बिहार से मजदूरों का पलायन हो रहा है- यह एक तथ्य है. और यह भी एक बड़ा तथ्य है कि बिहार के गांवों में मेहनत-मजदूरी का काम गैर ब्राह्मण वर्ग की स्त्रियां करती हैं...शुरू से करती रही हैं और आज भी करती हैं. मगर गरीब रिक्शाचालक ब्राह्मण की बीवी कोई मेहनत मजदूरी का काम नहीं कर सकती. इस मामले में और गांवों की क्या स्थिति है यह तो मैं नहीं जानता, मगर अपने जिले के अनेक गांवों में यही तथ्य आज ही यथावत देखखर लौटा हूं-ब्राह्मण की पत्नी जनेऊ बनाकर, चरखा कातकर धनोपार्जन करती है, मगर गांव के अन्य जातियों की महिलाओं की तरह मेहनत-मजदूरी करने की उन्हें सामाजिक इजाजत नहीं है.
उस विधवा ने मुझसे कहा कि यदि दिन भर मैं भी खेतों में काम कर सकती हूं, मेहनत-मजदूरी कर सकती हूं और देखिये न अब तो इसमें अपने यहां भी सौ-सवा सौ रोज की मजदूरी गांव में ही मिलती है. मगर नहीं, यह सब करने से हमारे समाज के ब्राह्मणों का पाग (खास मैथिल टोपी) गिरता है.
उस महिला को यदि गांव में ही मजदूरी करने दी जाए तो दिल्ली स्लम होने से बचेगी...गांव उजड़ने से बचेगा...हम उसके अथाह दुख के सागर में डूबने और झूठ बोलने से बचेंगे और श्रम से अर्जित धन की शक्ति से उस विधवा महिला का जीवन भी उतना दुखमय नहीं रहेगा, फिलहाल जितना है.
विधवा ब्राह्मण महिलाओं को कितना जानते हैं आप?
हम भारतीय घर से बाहर निकलते ही अक्सर इतने शुचितावादी और नैष्ठिक होने लगते हैं कि यह तो लगभग भूल ही जाते हैं कि हमारी स्वाभाविक जिंदगी इन चीजों के कारण अस्वाभाविक और अप्राकृतिक हो जाती है. ....और दूसरों पर उंगली उठाने और राय बनाने में तो हमारी जल्दबाजी का जवाब नहीं. मेरे गांव की एक जवान विधवा यहां दिल्ली आकर कुछ करना चाहती है...नौकरी...घरेलू दाई का काम...मेहनत-मजदूरी का कोई भी काम जिससे अपना और एक बच्ची का पेट पल जाए. मगर उस विधवा ब्राह्मणी को आज की तारीख में भी दोबारा शादी करने की इजाजत नहीं है. उसे क्या किसी भी विधवा को आज भी मिथिला के ब्राह्मण समाज में पुनर्विवाह की अनुमति नहीं है. गांव में मेहनत-मजदूरी करने का तो खैर कोई सवाल ही नहीं, क्योंकि इससे गांव के अलंबरदार ब्राह्मणों की नाक कटेगी....अफसोसनाक बात यह है कि इन नाजुक नाक वालों की नजर उसके शरीर पर तो है...मगर उसके पेट और उसकी नीरस, बेरंग जिंदगी पर बिल्कुल नहीं.
परसों फोन पर वह मुझसे नौकरी मांग रही थी....और मैं कुछ इस तरह हां...हां किए जा रहा था जैसे नौकरी मेरी जेब में रहती है और उसके दिल्ली आते ही वह नौकरी मैं उसे तत्काल जेब से निकालकर दे दूंगा्...बाल-विधवा उस निरक्षर महिला की आकुलता और आगत जीवन की चिंता में इतना डूबता चला गया मैं. उसके दिल्ली की और नौकरी की असली स्थिति बताकर उसे और हताश करना मुझे अपराध-सा लगने लगा था...
बिहार से मजदूरों का पलायन हो रहा है- यह एक तथ्य है. और यह भी एक बड़ा तथ्य है कि बिहार के गांवों में मेहनत-मजदूरी का काम गैर ब्राह्मण वर्ग की स्त्रियां करती हैं...शुरू से करती रही हैं और आज भी करती हैं. मगर गरीब रिक्शाचालक ब्राह्मण की बीवी कोई मेहनत मजदूरी का काम नहीं कर सकती. इस मामले में और गांवों की क्या स्थिति है यह तो मैं नहीं जानता, मगर अपने जिले के अनेक गांवों में यही तथ्य आज ही यथावत देखखर लौटा हूं-ब्राह्मण की पत्नी जनेऊ बनाकर, चरखा कातकर धनोपार्जन करती है, मगर गांव के अन्य जातियों की महिलाओं की तरह मेहनत-मजदूरी करने की उन्हें सामाजिक इजाजत नहीं है.
उस विधवा ने मुझसे कहा कि यदि दिन भर मैं भी खेतों में काम कर सकती हूं, मेहनत-मजदूरी कर सकती हूं और देखिये न अब तो इसमें अपने यहां भी सौ-सवा सौ रोज की मजदूरी गांव में ही मिलती है. मगर नहीं, यह सब करने से हमारे समाज के ब्राह्मणों का पाग (खास मैथिल टोपी) गिरता है.
उस महिला को यदि गांव में ही मजदूरी करने दी जाए तो दिल्ली स्लम होने से बचेगी...गांव उजड़ने से बचेगा...हम उसके अथाह दुख के सागर में डूबने और झूठ बोलने से बचेंगे और श्रम से अर्जित धन की शक्ति से उस विधवा महिला का जीवन भी उतना दुखमय नहीं रहेगा, फिलहाल जितना है.
With special thanks to Mr. Pankaj Parashar
Monday, March 8, 2010
आदरणीय चिपलूनकर जी
आदरणीय चिपलूनकर जी
सादर प्रणाम आदमी एक जिज्ञासु प्राणी है । सैक्स और विवाद उसे स्वभावतः आकर्षित करते हैं। प्रस्तुत पोस्ट के माध्यम से आपने इसलाम के प्रति उसके स्वाभाविक कौतूहल को जगा दिया है । इसके लिए हम आपके आभारी हैं ।
आदमी नेगेटिव चीज़ की तरफ़ जल्दी भागता है । मजमा तो आपने लगा दिया है और विषय भी इसलाम है लेकिन ये मजमा पढ़े लिखे लोगों का है । इतिहास में भी ऐसे लोग हुए हैं कि जब वे इसलाम के प्रकाश को फैलने से न रोक सके तो उन्होंने दिखावटी तौर पर इसलाम को अपना लिया और फिर पैग़म्बर साहब स. के विषय में नक़ली कथन रच कर हदीसों में मिला दिये अर्थात क्षेपक कर दिया जिसे हदीस के विशेषज्ञ आलिमों ने पहचान कर दिया ।
इन रचनाकारों को इसलामी साहित्य में मुनाफ़िक़ ‘शब्द से परिभाषित किया गया ।
कभी ऐसा भी हुआ कि किसी हादसे या बुढ़ापे की वजह से किसी आलिम का दिमाग़ प्रभावित हो गया लेकिन समाज के लोग फिर भी श्रद्धावश उनसे कथन उद्धृत करते रहे । पैग़म्बर साहब स. की पवित्र पत्नी माँ आयशा की उम्र विदाई के समय 18 वर्ष थी । यह एक इतिहास सिद्ध तथ्य है । यह एक स्वतन्त्र पोस्ट का विषय है । जल्दी ही इस विषय पर एक पोस्ट क्रिएट की जाएगी और तब आप सहित मजमे के सभी लोगों के सामने इसलाम का सत्य सविता खुद ब खुद उदय हो जाएगा ।
क्षेपक की वारदातें केवल इसलाम के मुहम्मदी काल में ही नहीं हुई बल्कि उस काल में भी हुई हैं जब उसे सनातन और वैदिक धर्म के नाम से जाना जाता था।
महाराज मनु अर्थात हज़रत नूह अ. के बाद भी लोगों ने इन्द्र आदि राजाओं के प्रभाव में आकर वेद अर्थात ब्रहम निज ज्ञान के लोप का प्रयास किया था । वे लोग वेद को पूरी तरह तो लुप्त न कर सके लेकिन उन्होंने पहले एक वेद के तीन और फिर चार टुकड़े ज़रूर कर दिये । और फिर उनमें ऐसी बातें मिला दीं जिन्हें हरेक धार्मिक आदमी देखते ही ग़लत कह देगा । उदाहरणार्थ -
प्रथिष्ट यस्य वीरकर्ममिष्णदनुष्ठितं नु नर्यो अपौहत्पुनस्तदा
वृहति यत्कनाया दुहितुरा अनूभूमनर्वा
अर्थात जो प्रजापति का वीर्य पुत्रोत्पादन में समर्थ है ,वह बढ़कर निकला । प्रजापति ने मनुष्यों के हित के लिए रेत ( वीर्य ) का त्याग किया अर्थात वीर्य छौड़ा। अपनी सुंदरी कन्या ( उषा ) के ‘शरीर में ब्रह्मा वा प्रजापति ने उस ‘शुक्र ( वीर्य ) का से किया अर्थात वीर्य सींचा । { ऋग्वेद 10/61/5 }
संभोगरत खिलौनों को पवित्र हस्तियों के नाम से इंगित करना आप जैसे बुद्धिजीवियों को ‘शोभा नहीं देता । गन्दगी को फैलाने वाला भी उसके करने वाले जैसा ही होता है । हमारे ब्लॉग पर आपको ऐसे गन्दे चित्र न मिलेंगे ।
ब्लॉग लेखन का मक़सद सत्य का उद्घाटन होना चाहिये न कि अपनी कुंठाओं का प्रकटन करना । हज़रत साहब स. के बारे में फैल रही मिथ्या बातों का खण्डन होना चाहिये ऐसा दिल से आप सचमुच कितना चाहते हैं ?
इस का निर्धारण इस बात से होगा कि आप मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र जी पर समान प्रकार के लगने वाले आरोप का निराकरण कितनी गम्भीरता से और कितनी जल्दी करते हैं ?
बाल्मीकि रामायण( अरण्य कांड , सर्ग 47 , ‘लोक 4,10,11 ) के अनुसार विवाह के समय माता सीता जी की आयु मात्र 6 वर्ष थी ।
माता सीता रावण से कहती हैं कि
‘ मैं 12 वर्ष ससुराल में रही हूं । अब मेरी आयु 18 वर्ष है और राम की 25 वर्ष है । ‘
इस तरह विवाहित जीवन के 12 वर्ष घटाने पर विवाह के समय श्री रामचन्द्र जी व सीता जी की आयु क्रमशः 13 वर्ष व 6 वर्ष बनती है ।
रंगीला रसूल सत्यार्थ प्रकाश की तरह दिल ज़रूर दुखाती है लेकिन वह कोई ऐसी किताब हरगिज़ नहीं है जिसके नक़ली तिलिस्म को तोड़ा न जा सके । जो कोई जो कुछ लाना चाहे लाये लेकिन ऐसे किसी भी सत्यविरोधी के लिए परम प्रधान परमेश्वर ने ज़िल्लत के सिवा कुछ मुक़द्दर ही नहीं किया । जो चाहे आज़मा कर देख ले । आशा है आप भविष्य में भी इसी प्रकार मजमा लगाकर इसलाम की महानता सिद्ध करने के लिए हमें आमन्त्रित करते रहेंगे ।
वर्तमान सहयोग के लिए धन्यवाद
सादर प्रणाम आदमी एक जिज्ञासु प्राणी है । सैक्स और विवाद उसे स्वभावतः आकर्षित करते हैं। प्रस्तुत पोस्ट के माध्यम से आपने इसलाम के प्रति उसके स्वाभाविक कौतूहल को जगा दिया है । इसके लिए हम आपके आभारी हैं ।
आदमी नेगेटिव चीज़ की तरफ़ जल्दी भागता है । मजमा तो आपने लगा दिया है और विषय भी इसलाम है लेकिन ये मजमा पढ़े लिखे लोगों का है । इतिहास में भी ऐसे लोग हुए हैं कि जब वे इसलाम के प्रकाश को फैलने से न रोक सके तो उन्होंने दिखावटी तौर पर इसलाम को अपना लिया और फिर पैग़म्बर साहब स. के विषय में नक़ली कथन रच कर हदीसों में मिला दिये अर्थात क्षेपक कर दिया जिसे हदीस के विशेषज्ञ आलिमों ने पहचान कर दिया ।
इन रचनाकारों को इसलामी साहित्य में मुनाफ़िक़ ‘शब्द से परिभाषित किया गया ।
कभी ऐसा भी हुआ कि किसी हादसे या बुढ़ापे की वजह से किसी आलिम का दिमाग़ प्रभावित हो गया लेकिन समाज के लोग फिर भी श्रद्धावश उनसे कथन उद्धृत करते रहे । पैग़म्बर साहब स. की पवित्र पत्नी माँ आयशा की उम्र विदाई के समय 18 वर्ष थी । यह एक इतिहास सिद्ध तथ्य है । यह एक स्वतन्त्र पोस्ट का विषय है । जल्दी ही इस विषय पर एक पोस्ट क्रिएट की जाएगी और तब आप सहित मजमे के सभी लोगों के सामने इसलाम का सत्य सविता खुद ब खुद उदय हो जाएगा ।
क्षेपक की वारदातें केवल इसलाम के मुहम्मदी काल में ही नहीं हुई बल्कि उस काल में भी हुई हैं जब उसे सनातन और वैदिक धर्म के नाम से जाना जाता था।
महाराज मनु अर्थात हज़रत नूह अ. के बाद भी लोगों ने इन्द्र आदि राजाओं के प्रभाव में आकर वेद अर्थात ब्रहम निज ज्ञान के लोप का प्रयास किया था । वे लोग वेद को पूरी तरह तो लुप्त न कर सके लेकिन उन्होंने पहले एक वेद के तीन और फिर चार टुकड़े ज़रूर कर दिये । और फिर उनमें ऐसी बातें मिला दीं जिन्हें हरेक धार्मिक आदमी देखते ही ग़लत कह देगा । उदाहरणार्थ -
प्रथिष्ट यस्य वीरकर्ममिष्णदनुष्ठितं नु नर्यो अपौहत्पुनस्तदा
वृहति यत्कनाया दुहितुरा अनूभूमनर्वा
अर्थात जो प्रजापति का वीर्य पुत्रोत्पादन में समर्थ है ,वह बढ़कर निकला । प्रजापति ने मनुष्यों के हित के लिए रेत ( वीर्य ) का त्याग किया अर्थात वीर्य छौड़ा। अपनी सुंदरी कन्या ( उषा ) के ‘शरीर में ब्रह्मा वा प्रजापति ने उस ‘शुक्र ( वीर्य ) का से किया अर्थात वीर्य सींचा । { ऋग्वेद 10/61/5 }
संभोगरत खिलौनों को पवित्र हस्तियों के नाम से इंगित करना आप जैसे बुद्धिजीवियों को ‘शोभा नहीं देता । गन्दगी को फैलाने वाला भी उसके करने वाले जैसा ही होता है । हमारे ब्लॉग पर आपको ऐसे गन्दे चित्र न मिलेंगे ।
ब्लॉग लेखन का मक़सद सत्य का उद्घाटन होना चाहिये न कि अपनी कुंठाओं का प्रकटन करना । हज़रत साहब स. के बारे में फैल रही मिथ्या बातों का खण्डन होना चाहिये ऐसा दिल से आप सचमुच कितना चाहते हैं ?
इस का निर्धारण इस बात से होगा कि आप मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र जी पर समान प्रकार के लगने वाले आरोप का निराकरण कितनी गम्भीरता से और कितनी जल्दी करते हैं ?
बाल्मीकि रामायण( अरण्य कांड , सर्ग 47 , ‘लोक 4,10,11 ) के अनुसार विवाह के समय माता सीता जी की आयु मात्र 6 वर्ष थी ।
माता सीता रावण से कहती हैं कि
‘ मैं 12 वर्ष ससुराल में रही हूं । अब मेरी आयु 18 वर्ष है और राम की 25 वर्ष है । ‘
इस तरह विवाहित जीवन के 12 वर्ष घटाने पर विवाह के समय श्री रामचन्द्र जी व सीता जी की आयु क्रमशः 13 वर्ष व 6 वर्ष बनती है ।
रंगीला रसूल सत्यार्थ प्रकाश की तरह दिल ज़रूर दुखाती है लेकिन वह कोई ऐसी किताब हरगिज़ नहीं है जिसके नक़ली तिलिस्म को तोड़ा न जा सके । जो कोई जो कुछ लाना चाहे लाये लेकिन ऐसे किसी भी सत्यविरोधी के लिए परम प्रधान परमेश्वर ने ज़िल्लत के सिवा कुछ मुक़द्दर ही नहीं किया । जो चाहे आज़मा कर देख ले । आशा है आप भविष्य में भी इसी प्रकार मजमा लगाकर इसलाम की महानता सिद्ध करने के लिए हमें आमन्त्रित करते रहेंगे ।
वर्तमान सहयोग के लिए धन्यवाद
Sunday, March 7, 2010
महिला सशक्तिकरण की ऐतिहासिक पहल
विधायिका में महिला आरक्षण महिला सशक्तिकरण की एक ऐतिहासिक पहल है। महिला दिवस की शताब्दी के अवसर पर राज्य सभा में आरक्षण विधेयक पारित होने से एक नई राजनीतिक क्रांति का सूत्रपात होगा।
महिला आरक्षण के लिए विगत 18 वर्षों से अनवरत संघर्ष किया जा रहा है। भाजपा नें आरक्षण विधेयक को बिना शर्त समर्थन देने की घोषणा की, किन्तु कांग्रेस में ईच्छा शक्ति के अभाव के कारण ही इतना विलम्ब हुआ। महिला आरक्षण अटल आडवाणी का सपना है।
21 फरवरी 2008 को दिल्ली में देशभर से आई सवा लाख महिलाओं की विशाल रैली नें आरक्षण आंदोलन को नई उर्जा दी। एक करोड़ से अधिक महिलाओं के हस्ताक्षर करवा कर ज्ञापन राष्ट्रपति को दिया गया।
लम्बे संघर्ष के बाद सफलता मिलने की संभावना एक सुखद अनुभुति है। केन्द्र सरकार आरक्षण विधेयक को लोकसभा और राज्य विधान मंडलों से भी शीघ्र पारित करवाना सुनिश्चित करें। तभी आरक्षण विधेयक यथार्थ में परिणित होगा। यह समय आत्म मुग्धता का नहीं है। महिलाओं को सजग रह कर सरकार पर सतत दबाव बनाए रखना होगा। महिला आरक्षण संघर्ष को समर्थन, सहयोग और सम्बल देने के लिए भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के प्रति महीलाए आभारी है।
केन्द्र सरकार से महिला स्वालम्बन के लिए महिला दिवस पर विशेष पेकेज घोषित करें। महिलाओं को एक लाख रुपयों तक का ऋण 4% वार्षिक ब्याज पर एवं 50 लाख रूपयों तक का ऋण बिना किसी प्रतिभूति के देने की व्यवस्था की जानी चाहिए। प्रत्येक राज्य में भी राष्ट्रीय महिला कोष के समान एक राज्य महिला कोष की स्थापना की जाए। इन कदमों से महिला स्वालम्बन को अपेक्षित गति मिल पाएगी।
with special thanks to
http://kiransnm.blogspot.com/2010/03/blog-post_07.html
महिला आरक्षण के लिए विगत 18 वर्षों से अनवरत संघर्ष किया जा रहा है। भाजपा नें आरक्षण विधेयक को बिना शर्त समर्थन देने की घोषणा की, किन्तु कांग्रेस में ईच्छा शक्ति के अभाव के कारण ही इतना विलम्ब हुआ। महिला आरक्षण अटल आडवाणी का सपना है।
21 फरवरी 2008 को दिल्ली में देशभर से आई सवा लाख महिलाओं की विशाल रैली नें आरक्षण आंदोलन को नई उर्जा दी। एक करोड़ से अधिक महिलाओं के हस्ताक्षर करवा कर ज्ञापन राष्ट्रपति को दिया गया।
लम्बे संघर्ष के बाद सफलता मिलने की संभावना एक सुखद अनुभुति है। केन्द्र सरकार आरक्षण विधेयक को लोकसभा और राज्य विधान मंडलों से भी शीघ्र पारित करवाना सुनिश्चित करें। तभी आरक्षण विधेयक यथार्थ में परिणित होगा। यह समय आत्म मुग्धता का नहीं है। महिलाओं को सजग रह कर सरकार पर सतत दबाव बनाए रखना होगा। महिला आरक्षण संघर्ष को समर्थन, सहयोग और सम्बल देने के लिए भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के प्रति महीलाए आभारी है।
केन्द्र सरकार से महिला स्वालम्बन के लिए महिला दिवस पर विशेष पेकेज घोषित करें। महिलाओं को एक लाख रुपयों तक का ऋण 4% वार्षिक ब्याज पर एवं 50 लाख रूपयों तक का ऋण बिना किसी प्रतिभूति के देने की व्यवस्था की जानी चाहिए। प्रत्येक राज्य में भी राष्ट्रीय महिला कोष के समान एक राज्य महिला कोष की स्थापना की जाए। इन कदमों से महिला स्वालम्बन को अपेक्षित गति मिल पाएगी।
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