Friday, September 30, 2011

जो लोग खाना पेट में उतारना जानते हैं उन्हें यह भी जानना चाहिए कि उसे पेट में उतारने लायक कैसे बनाया जाए ?

खाना बनाना बनाना वाकई एक कला है और जिसे यह नहीं आती वह जिंदगी में परेशान रहता है। जब हमें घर से दूर रहने का इत्तेफाक हुआ तो बहुत तकलीफ हुई। हम वैसे भी पाक-नापाक का खास खयाल लेकर बड़े हुए। बडे से बडा होटल ले लिया लेकिन जब उसमें अंदर जाकर यह जांच की कि बर्तन कैसे धुल रहे हैं और खाना कैसे बन रहा है तो बनाने वाले भी गंदे मिले और एक ही पानी में बर्तन निकाल कर कपडे से साफ करते हुए मिले। सब देखा और वहीं खाना पडा क्योंकि खुद बनाना नहीं जानते थे।
फिर एक दो डिश बनानी सीखी।
हमारा एक दोस्त फ़रहाद दरियापुरी, ऐसी रोटियां बनाता है कि उसकी बहन भी नहीं बना सकती। उनकी वालिदा बीमार पडीं तो घर का सारा काम उन्हें ही करना पडा, सो वे सीख गए।
जो लोग खाना पेट में उतारना जानते हैं उन्हें यह भी जानना चाहिए कि उसे पेट में उतारने लायक कैसे बनाया जाए ?
आजकल खाने पीने को एक धंधे के तौर पर भी बढिया रेस्पॉन्स मिल रहा है।
हमारे एक जानकार ने कई धंधे किए लेकिन सब फेल और जब उसने रोटी पानी का धंधा किया तो उसके वारे के न्यारे हो गए।

इस विषय पर एक अच्छी पोस्ट यह भी है , देखिये-

नकारात्मक या सकारात्मक क्या ?? अरे खाना बनाना

Saturday, September 24, 2011

कहावत क्यों बने उनके बोल ?

'बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद'
'भैंस के आगे बीन बजाना'
ये और ऐसी दूसरी बहुत सी कहावतें हमारी ज़बान में मशहूर हैं। इस तरह की कहावतें हरेक ज बान में मशहूर हैं। अरबी की एक कहावत है कि
'हरेक बर्तन से वही छलकता है जो कि उसमें होता है।'

 ये कहावतें आम तौर पर समाज के किसी अनुभवी आदमी की वाणी से निकली होती हैं और गुजरे जमाने के ये आदमी आम तौर पर अनपढ  होते थे। अनपढ  होने के बाद भी वे ज्ञानी थे। ज़िन्दगी की किताब को उन्होंने बहुत ध्यान से पढ़ा होता था।
अपनी ज़िन्दगी के तजर्बों को ही वे अपनी ज बान में कहते थे तो उनसे प्यार करने वाले उन्हें ज बानी याद कर लेते थे और फिर वे दूसरों को बताते थे। दूसरों को भी सुनकर लगता था कि हां, बात में तो दम है। सैकड़ों और हज़ारों साल बाद आज भी उनकी बात वैसी ही सच निकलती है जैसी कि तब थी जब उन्होंने उसे कहा था।
ऐसे थे हमारे पूर्वज, जिनकी बात में दम था, सच्चाई थी और अच्छाई थी। आज हमें नहीं मालूम कि किस कहावत को किस आदमी ने कहा ?
लेकिन कहावत को सुनते ही हम जान लेते हैं कि इसे कहने वाले ने ज़िंदगी को कितनी गहराई से महसूस किया होगा ?
आज कहावतें कहने वाले हमारे पूर्वज नहीं हैं, उनकी जगह आज हम खड़े हैं।
क्या हमारी ज़बान से भी ऐसी बातें निकलती हैं कि लोग उन्हें सुनें तो उन्हें 'मार्ग' मिले या सुनकर कम से कम कुछ अच्छा ही लगे ?
जो कुछ हम कहते हैं, वह हमारी सोच को ज़ाहिर ही नहीं करता बल्कि कुछ और लोगों को प्रेरणा भी देता है। अच्छा कलाम अच्छी राह दिखाता है और बुरी बात बुरी राह दिखाती है।
अच्छा आदमी, जो अच्छी राह चलता है कभी बुरी बात मुंह से नहीं निकाल सकता। हमारा कलाम यह भी बताता है कि हम किस राह पर चल रहे हैं ?
ब्लॉगिंग में आज़ादी बेहद है।
यहां हरेक आदमी दिल खोलकर लिखता है।
आदमी जो लिखता है, लिखने के बाद उसे खुद भी पढ़ना चाहिए और अपने कलाम के आईने में उसे खुद को देखना चाहिए कि वह अच्छा आदमी है या बुरा आदमी ?
अपने कलाम की रौशनी में उसे यह भी देखना चाहिए कि वह अच्छी राह पर चल रहा या कि बुरी राह पर ?
उसकी बात से लोगों को अच्छी सीख मिल रही है या कि बुरी ?
इससे फ़ायदा यह होगा कि जो आदमी खुद को बुरी राह पर देखे, वह अपनी राह बदलकर सही राह पर आ जाए।
अगर चाहें तो हम ब्लॉगिंग के ज रिये अपने चरित्र का विकास भी सरलता से कर सकते हैं।
दुनिया भर के बारे में रायज नी करना और खुद से गाफ़िल रहना सिर्फ़ यह बताता है कि चाहे हमने बेहतरीन यूनिवर्सिटीज  में पढ़ा है लेकिन 'ज्ञान' हमें वास्तव में मिला ही नहीं है।
ज्ञान हमें मिला होता तो हमने कुछ अच्छा कहा होता और कुछ अच्छा किया होता।
दूसरों का मज़ाक़ और अश्लील फब्तियां कसना ज्ञानी लोगों का काम न तो पहले कभी था और न ही आज है।
हमने लिखना बेशक सीख लिया है लेकिन अपने पूर्वजों की रीत भुला बैठे, जो कि बोलते थे तो कहावत बन जाया करती थी।
And see
 हदीस-शास्त्र !
● वह व्यक्ति (सच्चा, पूरा, पक्का) मोमिन मुस्लिम नहीं है जिसके उत्पात और जिसकी शरारतों से उसका पड़ोसी सुरक्षित न हो।

Thursday, September 22, 2011

मालिनी मुर्मु की ख़ुदकुशी Suicide due to facebook

Girl kills self as boyfriend dumps her on Facebook

आधुनिकता के नाम पर लड़के और लड़कियां बिना विवाह किए ही संबंध बना रहे हैं और जब दिल भर जाता है तो फिर संबंध तोड़ भी रहे हैं।
इन संबंधों से दोनों को कुछ वक्त के लिए सुकून भी मिलता है और ख़ुशी भी लेकिन जब ये रिश्ते टूटते हैं तो तकलीफ़  भी देते हैं और ज़िल्लत का अहसास भी कराते हैं। बहुत लोग ज़िल्लत और शर्मिंदगी का अहसास लेकर जीते रहते हैं और जो जी नहीं पाते वे ख़ुदकुशी करके मर जाते हैं।

मालिनी मुर्मु की ख़ुदकुशी भी इसी सिलसिले की एक और कड़ी है।
रिश्तों में पवित्रता ईश्वर के नाम से आती है।
पत्नी से संबंध केवल पवित्र इसीलिए तो होता है कि पति और पति ईश्वर के नाम से जुड़ते हैं। जहां यह नाम नहीं होता वहां पवित्रता भी नहीं होती। आज जब लोग पवित्र रिश्तों की जिम्मेदारियों तक को लोग अनदेखा कर रहे हैं। ऐसे में मौज-मस्ती और टाइम पास करने के लिए बनाए गए रिश्तों की गरिमा को निभाने लायक  इंसान बचा ही कहां है ?
ऐसे में या तो फिर बेशर्मों की तरह मोटी चमड़ी  बना लो कि जानवरों की तरह जो चाहो करो और कोई कुछ कहे भी तो फ़ील ही मत करो। जब अहसासे शर्मिंदगी ही न बचेगा तो फिर कोई डिप्रेशन भी नहीं होगा।
लेकिन यह कोई हल नहीं है समस्या का।
समस्या का हल यह है कि रिश्तों की अहमियत को समझो और नेकी के दायरे से कदम बाहर मत निकालो। जब आप मर्यादा का पालन करेंगे तो ऐसी कोई नौबत नहीं आएगी कि आप मुंह न दिखा सकें।
मालिक से जुड़ो, नेक बनो, शान से जियो और लोगों को सही राह दिखाओ।

क्या बड़ा ब्लॉगर टंकी पर ज़रूर चढता है ?

Saturday, September 17, 2011

धर्मशास्त्र की ज़रूरत क्या है ?

जायज़ और नाजायज़ को तय वही कर सकता है जिसे सही ग़लत की तमीज का 'शास्त्रीय बोध' प्राप्त है . जिन्हें यह हासिल नहीं है उनका क़ौल भी ग़लत होगा और उनका अमल भी ग़लत होगा .
हर चीज़ के कुछ नियम होते हैं। उन्हें एक जगह लिख लिया जाता है तो वह शास्त्र बन जाता है। शास्त्र जब तक शुद्ध रहता है, मार्ग दिखाता है। जब आदमी को ज्ञान, गुण और सत्य के बजाय दुनिया के स्वार्थ ज़्यादा प्रिय हो जाते हैं तो फिर वे लोग शास्त्र में ऐसी बातें भी जोड़ देते हैं जो कि सही नहीं होतीं। विकार आ जाने के बाद जो लोग शास्त्र से प्रेम करते हैं, वे भी शास्त्र पर चल नहीं पाते और कुछ लोग ऐसे होते हैं कि शास्त्रों में ग़लत बात देखकर कह देते हैं कि यह सदा से ही ग़लत है।
भारत शास्त्रों का देश है।
यहां गाने-बजाने का काम भी शास्त्रानुसार किया जाता है। नाचना सिखाना के लिए भी शास्त्र मौजूद है। शास्त्रीय नृत्य को उम्दा नाच माना जाता है। जब भी विश्व पटल पर भारतीय नृत्य की बात की जाती है तो कत्थक और कुचिपुड़ी आदि शास्त्रीय नृत्य को ही पेश किया जाता है। जो शास्त्रीय नृत्य जानते हैं, उन्हें अपनी कला में पारंगत माना जाता है और उन्हें अच्छा सम्मान दिया जाता है।
ये लोग कम होते हैं।
ऐसा नहीं है कि बस जो शास्त्र नहीं जानते, वे नहीं नाचते। नाचते वे भी हैं लेकिन उन्हें शास्त्रीय नर्तकों जैसा सम्मान नहीं दिया जाता।
शास्त्रीय नृत्य करने वाले तो बहुत कम हैं वर्ना तो बाक़ी सारा भारत भी होली, दीवाली और शादी-ब्याह के मौक़ों पर नाचता है। मन की उमंग तो दोनों में ही बराबर है बल्कि हो सकता है कि शास्त्र रहित नृत्य करने वालों में मन की उमंग कुछ ज़्यादा ही पाई जाती हो लेकिन तब भी उनके हाथ पैर फेंकने या झटकने को विश्व स्तर पर ‘भारतीय नृत्य‘ कहकर पेश नहीं किया जाता और न ही इन नर्तकों को कहीं सम्मानित किया जाता है।
भारत में कुछ लोकनृत्य भी प्रचलित हैं। हालांकि उनके नियमों को लिखा नहीं गया है लेकिन वे भी नियमबद्ध ही होते हैं।
जो देश ऐसा हो कि नाचने की कला में भी सही-ग़लत बता सकता हो, क्या वह ऐसा हो सकता है कि वह जीने की कला में सही ग़लत न बता पाए ?
यह असंभव है।
सही ग़लत बताने वाले शास्त्र भी यहां वुजूद में आए और दूसरे देशों में बाद में आए, यहां पहले आए लेकिन इसके बावजूद आज हालत यह है कि भारतवासी नहीं जानते कि किस मक़सद के लिए और किस तरीक़े से जीना सही जीना कहलाएगा ?
आज आपको ऐसे बहुत लोग मिल जाएंगे जो कहेंगे कि आदमी को इंसान बनना चाहिए और अच्छे काम करने चाहिएं लेकिन जब आप उनसे पूछेंगे कि इंसान बनने के लिए कौन कौन से अच्छे काम करने ज़रूरी हैं ?
तो वह बता नहीं पाएगा।
यही हाल खान-पान और यौन संबंध और अंतिम संस्कार का है।
इनमें से किसी भी बात पर आज भारतीय समाज एक मत नहीं है।
शास्त्रों के देश में यह क्या हो रहा है ?
आज अक्सर आदमी स्वेच्छाचारी क्यों हो गए हैं ?
इस स्वेच्छाचार को कैसे रोका जाए ?
जब तक स्वेच्छाचार को नहीं रोका जाएगा, तब तक भ्रष्टाचार भी नहीं रूकेगा।
भ्रष्टाचार मात्र राजनैतिक और प्रशासनिक समस्या नहीं है बल्कि यह सही ग़लत के ज्ञान की कमी से उपजी एक समस्या है, जिसकी चपेट में आज हम सब हैं, कोई कम है और कोई ज़्यादा।
जब तक हम सदाचार का शास्त्रीय और प्रामाणिक ज्ञान लोगों को उपलब्ध नहीं कराएंगे तब तक लोगों के जीवन में सदाचार आ नहीं सकता।
...और अब तो हालत यह हो गई है कि लोगों को हमारी बात पर ताज्जुब हो सकता है कि क्या सही ग़लत के बारे में भी कोई शास्त्र हो सकता है ?
जबकि हक़ीक़त यह है कि शास्त्र का प्राथमिक और अनिवार्य विषय ही जीवन में सही ग़लत का निर्धारण करना होता है, जीवन के हरेक पहलू में और जीवन के हरेक स्तर पर और यही बात शास्त्र की पहचान भी होती है।
जो ग्रंथ व्यक्ति को आध्यात्मिक रहस्य तो बताए लेकिन यह न बताए कि उस पर उसके परिवार, पड़ोस, देश और विश्व का क्या हक़ है ? वह शास्त्र नहीं होता।
जो ग्रंथ व्यक्ति को उसके व्यक्तिगत जीवन में निर्देश तो दे लेकिन सामूहिक जीवन का मार्ग न बताए, वह शास्त्र नहीं होता।
लोग किसी भी पुस्तक को शास्त्र कहने लगें तो वह शास्त्र नहीं हो जाता।
लोग किसी भी रिवाज को धर्म कहने लगें तो वह धर्म नहीं हो जाता।
शास्त्र और धर्म वही है जो सारी मानव जाति को जीना सिखाए और उसे पेश आने वाले हरेक मसअले का हल बताए।
ऐसे धर्मशास्त्र की ज़रूरत इंसान को सदा ही रही है और आज तो पहले से कहीं बढ़कर है।
जिस चीज़ की आवश्यकता होती है, उस चीज़ की आपूर्ति भी स्वयमेव हो जाया करती है। यह एक प्राकृतिक नियम है।
यह नियम भी शास्त्र में ही लिखा है।
यही नियम आशा जगाता है कि आज हालात चाहे जैसे हों लेकिन हमारा भविष्य बेहतर होगा।
ऐसा भविष्य जहां स्वेच्छाचार के बजाय हमारा अमल शास्त्रानुसार होगा।
...................
कन्या भ्रूण हत्या एक जघन्य अपराध है और आज यह समाज का रिवाज है।
ऐसा समाज जो ख़ुद को सभ्य कहता है।
अगर सभ्यता यही है तो फिर दरिंदगी और हैवानियत क्या है ?
देखिए यह वीडियो, जो आपके रोंगटे खड़े कर देगा।

एक आवाज़ कन्या भ्रूण रक्षा के लिए Against Female Feticide

Thursday, September 1, 2011

अखंड भारत को तोड़ने वाले मुजरिम कौन ?

ब्लॉगिंग के माध्यम से हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि दिलों को जोड़ने की कोशिश की जानी चाहिए। दिल जुड़ेंगे तो हम जुड़ेंगे और भारत सशक्त होगा। मज़बूत भारत एशिया को नेतृत्व देगा तो इसका रूतबा विश्व में ऊंचा होगा और त यह अपने आस पास के इलाक़ों को एक महासंघ का रूप देकर अपने खोये हुए टुकड़ों को वापस पा सकता है और यह काम आपसी विश्वास और आपसी प्रेम से ही होगा क्योंकि एशिया में मुलमानों बड़ी आबादी है, सो न तो आप इन्हें नज़र अंदाज़ कर सकते हैं और न ही नज़रअंदाज़ करके कभी सफल हो सकते हैं।
इसके बावजूद कुछ शरारती तत्व ऐसे भी हैं जो कि न सिर्फ़ मुसलमानों को नज़रअंदाज़ करते हैं बल्कि वे मुसलमानों को देश बांटने का दोषी बताकर ग़ददार भी कह देते हैं और क़ुरआन पर भी ऐतराज़ कर देते हैं।
क्या यह कोई सही तरीक़ा है ?
क्या हम आपके धर्म में कोई कमी बता रहे हैं ?
नहीं !
इसके बावजूद भी हमारे साथ छेड़ख़ानी क्यों की जा रही है ?
जो हमारे जलाल को नहीं जानता वह ब्लॉगर डॉट के किसी भी वरिष्ठ ब्लॉगर से हमारे बारे में पता कर ले कि हम कौन हैं और हमारे सामने आपके ऐतराज़ यूं ही आते रहे तो फिर हम क्या करेंगे ?
हमें कुछ भी करने की ज़रूरत नहीं है।
पचास से ज़्यादा ब्लॉग्स और वेबसाइट्स पर सैकड़ों लेख हमारे अपने लिखे हुए तैयार पड़े हैं, उन्हें यहां डालना शुरू कर देंगे।
फिर सबके हाथों से तोते उड़ जाएंगे।
अब से दो पोस्ट पहले एक भाई ने इसी तरह देश के बंटवारे आदि को लेकर हम पर ऐतराज़ जड़ दिया।
हमने उन्हें जवाब जवाब देते हुए कहा कि
आपने सुना होगा कि कभी मलेशिया और अफ़ग़ानिस्तान भी अखंड भारत का ही हिस्सा थे लेकिन जब मुसलमान भारत आए भी नहीं थे। उससे पहले ही हिंदुओं ने अखंड भारत के हज़ारों छोटे छोटे टुकड़े कर दिए थे।
क्या आपने कभी उन हज़ारों राजाओं और उनके लाखों हिंदू सैनिकों को ग़ददार कहा है ?
नफ़रत की बोली बोलने से आप केवल नफ़रत फैला सकते हैं लेकिन किसी समस्या का समाधान नहीं कर सकते।
जो आदमी ख़ुद ग़ददार हो उसे क्या हक़ है कि वह दूसरों को वही काम करने पर ग़ददार कहे जो कि अपने प्यारे पूर्वज करते आए हैं।

नफ़्स से जिहाद करना सबसे ज़्यादा मुश्किल है

हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु का रूतबा हक़ और बातिल को पहचानने में बहुत बुलंद है। मुसलमानों में हरेक फ़िरक़ा उनके बारे में यही राय रखता है। जो आदमी उनके कलाम पर अमल करेगा कभी गुमराह नहीं हो सकता लेकिन आदमी अपने नफ़्स की ख्वाहिश की पैरवी करता है और हक़ को छोड़ देता है या दीन में से भी वह उतनी ही बात मानता है जो उसके नफ़्स को ख़ुशगवार लगती है। नागवार और भारी लगने वाली बातों को आदमी छोड़ देता है।
नमाज़ का हुक्म सबसे अव्वल है इस्लाम में और लोगों के हक़ अदा करने पर भी बहुत ज़ोर है लेकिन मुसलमानों की एक बड़ी तादाद इन दोनों ही हुक्मों की तरफ़ से आम ग़फ़लत की  शिकार है।
यह बहुत अजीब सी बात है।
इसके बाद भी उनका दावा है कि हम मुसलमान हैं।
हम अली को मौला मानते हैं।
अली को मौला मानते हो तो फिर उनकी बात को मानने में सुस्ती क्यों ?
दीन में सुस्ती तो मुनाफ़िक़ों का तरीक़ा है।
हक़ को पाने में सबसे बड़ी रूकावट ख़ुद इंसान का नफ़्स है और इससे जिहाद करके इसकी हैवानी ख़सलतों पर क़ाबू पाना सबसे ज़्यादा मुश्किल काम है। इसीलिए इसे हदीस में जिहादे अकबर कहा गया है।
इस्लाम के दूसरे दुश्मनों का हाल तो यह है कि अगर उन्हें न भी मारा जाये वे तब भी मर जाएंगे या वे तौबा भी कर सकते हैं  लेकिन यह नफ़्स तो बिना क़ाबू किए क़ाबू हो नहीं सकता और इसे क़ाबू करना इंसान के लिए सबसे नागवार काम है।
ऐसे में मुसलमान राहे रास्त पर आएं तो कैसे ?
पहले क्या हुआ यह जानना इसलिए ज़रूरी है ताकि हम यह तय कर सकें कि अब हमें क्या करना है ?

आपकी पोस्ट अच्छी मालूमात देती है।
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