Saturday, September 17, 2011

धर्मशास्त्र की ज़रूरत क्या है ?

जायज़ और नाजायज़ को तय वही कर सकता है जिसे सही ग़लत की तमीज का 'शास्त्रीय बोध' प्राप्त है . जिन्हें यह हासिल नहीं है उनका क़ौल भी ग़लत होगा और उनका अमल भी ग़लत होगा .
हर चीज़ के कुछ नियम होते हैं। उन्हें एक जगह लिख लिया जाता है तो वह शास्त्र बन जाता है। शास्त्र जब तक शुद्ध रहता है, मार्ग दिखाता है। जब आदमी को ज्ञान, गुण और सत्य के बजाय दुनिया के स्वार्थ ज़्यादा प्रिय हो जाते हैं तो फिर वे लोग शास्त्र में ऐसी बातें भी जोड़ देते हैं जो कि सही नहीं होतीं। विकार आ जाने के बाद जो लोग शास्त्र से प्रेम करते हैं, वे भी शास्त्र पर चल नहीं पाते और कुछ लोग ऐसे होते हैं कि शास्त्रों में ग़लत बात देखकर कह देते हैं कि यह सदा से ही ग़लत है।
भारत शास्त्रों का देश है।
यहां गाने-बजाने का काम भी शास्त्रानुसार किया जाता है। नाचना सिखाना के लिए भी शास्त्र मौजूद है। शास्त्रीय नृत्य को उम्दा नाच माना जाता है। जब भी विश्व पटल पर भारतीय नृत्य की बात की जाती है तो कत्थक और कुचिपुड़ी आदि शास्त्रीय नृत्य को ही पेश किया जाता है। जो शास्त्रीय नृत्य जानते हैं, उन्हें अपनी कला में पारंगत माना जाता है और उन्हें अच्छा सम्मान दिया जाता है।
ये लोग कम होते हैं।
ऐसा नहीं है कि बस जो शास्त्र नहीं जानते, वे नहीं नाचते। नाचते वे भी हैं लेकिन उन्हें शास्त्रीय नर्तकों जैसा सम्मान नहीं दिया जाता।
शास्त्रीय नृत्य करने वाले तो बहुत कम हैं वर्ना तो बाक़ी सारा भारत भी होली, दीवाली और शादी-ब्याह के मौक़ों पर नाचता है। मन की उमंग तो दोनों में ही बराबर है बल्कि हो सकता है कि शास्त्र रहित नृत्य करने वालों में मन की उमंग कुछ ज़्यादा ही पाई जाती हो लेकिन तब भी उनके हाथ पैर फेंकने या झटकने को विश्व स्तर पर ‘भारतीय नृत्य‘ कहकर पेश नहीं किया जाता और न ही इन नर्तकों को कहीं सम्मानित किया जाता है।
भारत में कुछ लोकनृत्य भी प्रचलित हैं। हालांकि उनके नियमों को लिखा नहीं गया है लेकिन वे भी नियमबद्ध ही होते हैं।
जो देश ऐसा हो कि नाचने की कला में भी सही-ग़लत बता सकता हो, क्या वह ऐसा हो सकता है कि वह जीने की कला में सही ग़लत न बता पाए ?
यह असंभव है।
सही ग़लत बताने वाले शास्त्र भी यहां वुजूद में आए और दूसरे देशों में बाद में आए, यहां पहले आए लेकिन इसके बावजूद आज हालत यह है कि भारतवासी नहीं जानते कि किस मक़सद के लिए और किस तरीक़े से जीना सही जीना कहलाएगा ?
आज आपको ऐसे बहुत लोग मिल जाएंगे जो कहेंगे कि आदमी को इंसान बनना चाहिए और अच्छे काम करने चाहिएं लेकिन जब आप उनसे पूछेंगे कि इंसान बनने के लिए कौन कौन से अच्छे काम करने ज़रूरी हैं ?
तो वह बता नहीं पाएगा।
यही हाल खान-पान और यौन संबंध और अंतिम संस्कार का है।
इनमें से किसी भी बात पर आज भारतीय समाज एक मत नहीं है।
शास्त्रों के देश में यह क्या हो रहा है ?
आज अक्सर आदमी स्वेच्छाचारी क्यों हो गए हैं ?
इस स्वेच्छाचार को कैसे रोका जाए ?
जब तक स्वेच्छाचार को नहीं रोका जाएगा, तब तक भ्रष्टाचार भी नहीं रूकेगा।
भ्रष्टाचार मात्र राजनैतिक और प्रशासनिक समस्या नहीं है बल्कि यह सही ग़लत के ज्ञान की कमी से उपजी एक समस्या है, जिसकी चपेट में आज हम सब हैं, कोई कम है और कोई ज़्यादा।
जब तक हम सदाचार का शास्त्रीय और प्रामाणिक ज्ञान लोगों को उपलब्ध नहीं कराएंगे तब तक लोगों के जीवन में सदाचार आ नहीं सकता।
...और अब तो हालत यह हो गई है कि लोगों को हमारी बात पर ताज्जुब हो सकता है कि क्या सही ग़लत के बारे में भी कोई शास्त्र हो सकता है ?
जबकि हक़ीक़त यह है कि शास्त्र का प्राथमिक और अनिवार्य विषय ही जीवन में सही ग़लत का निर्धारण करना होता है, जीवन के हरेक पहलू में और जीवन के हरेक स्तर पर और यही बात शास्त्र की पहचान भी होती है।
जो ग्रंथ व्यक्ति को आध्यात्मिक रहस्य तो बताए लेकिन यह न बताए कि उस पर उसके परिवार, पड़ोस, देश और विश्व का क्या हक़ है ? वह शास्त्र नहीं होता।
जो ग्रंथ व्यक्ति को उसके व्यक्तिगत जीवन में निर्देश तो दे लेकिन सामूहिक जीवन का मार्ग न बताए, वह शास्त्र नहीं होता।
लोग किसी भी पुस्तक को शास्त्र कहने लगें तो वह शास्त्र नहीं हो जाता।
लोग किसी भी रिवाज को धर्म कहने लगें तो वह धर्म नहीं हो जाता।
शास्त्र और धर्म वही है जो सारी मानव जाति को जीना सिखाए और उसे पेश आने वाले हरेक मसअले का हल बताए।
ऐसे धर्मशास्त्र की ज़रूरत इंसान को सदा ही रही है और आज तो पहले से कहीं बढ़कर है।
जिस चीज़ की आवश्यकता होती है, उस चीज़ की आपूर्ति भी स्वयमेव हो जाया करती है। यह एक प्राकृतिक नियम है।
यह नियम भी शास्त्र में ही लिखा है।
यही नियम आशा जगाता है कि आज हालात चाहे जैसे हों लेकिन हमारा भविष्य बेहतर होगा।
ऐसा भविष्य जहां स्वेच्छाचार के बजाय हमारा अमल शास्त्रानुसार होगा।
...................
कन्या भ्रूण हत्या एक जघन्य अपराध है और आज यह समाज का रिवाज है।
ऐसा समाज जो ख़ुद को सभ्य कहता है।
अगर सभ्यता यही है तो फिर दरिंदगी और हैवानियत क्या है ?
देखिए यह वीडियो, जो आपके रोंगटे खड़े कर देगा।

एक आवाज़ कन्या भ्रूण रक्षा के लिए Against Female Feticide

5 comments:

रविकर said...

बहुत बढ़िया प्रस्तुति ||

आपको हमारी ओर से

सादर बधाई ||

देवेन्द्र पाण्डेय said...

चिंतन जो आदमी होने की पहचान है। सत्य क्या है यह तो शास्त्र लिखने वाले भी नहीं जानते। जिन्हे सत्य का ज्ञान हुआ उन्होने लिखा नहीं सिर्फ और सिर्फ देखा हुआ बोला। सुनकर लिखने वालों ने बाद में कुछ घालमेल भी कर दिया जैसा लगता है।

कन्या भ्रूण हत्या पर कभी एक दोहा लिखा था मैने..

बिटिया मारें पेट में, पड़वा मारें खेत
नैतिकता की आँख में, भौतिकता की रेत।

Sadhana Vaid said...

दर्शन तत्व से भरपूर बहुत ही सार्थक एवं सशक्त आलेख ! कितने नियम और कायदे सिखाने वाले शास्त्र उपलब्ध हैं और उन्हें पढ़ कर लोग कितना ज्ञान अर्जित करते हैं यह मायने नहीं रखता ! असल नियंत्रण और अनुशासन व्यक्ति के अपने मन एवं चारित्रिक गुणों का होता है यह आता है अपने घर की शिक्षा, वातावरण और संस्कार से ! जो कभी स्कूल नहीं गये, जिन्होंने कभी किताबों को हाथ नहीं लगाया उन्होंने भी इंसानियत और त्याग, बलिदान और प्रेम के ऐसे ऐसे उदाहरण पेश किये हैं कि सारा ज़माना दांतों तले उँगली दबा के रह जाये ! इतने बढ़िया आलेख के लिये आपका आभार एवं धन्यवाद !

डॉ टी एस दराल said...

बहुत अच्छे सवाल उठाये हैं आपने । मनुष्य को इंसान बनने के तरीके तो आने चाहिए , तभी आगे बढ़ा जा सकता है ।
आपकी पंक्तियाँ उधार लेकर एक पोस्ट कल के लिए लिखी है । पढियेगा ज़रूर ।

DR. ANWER JAMAL said...

@ देवेन्द्र पांडेय जी ! जिसे पता नहीं है कि सत्य क्या होता है, उसका लिखा हुआ शास्त्र कहलाने का हक़ नहीं रखता। शास्त्र वही लिख सकता है या लिखवा सकता है जो कि सत्य-असत्य और न्याय-अन्याय की समझ बख़ूबी रखता है।

दोहे के लिए आपका शुक्रिया !

@ रविकर जी ! आपका शुक्रिया !

@ साधना वैद जी ! जिन घरों का माहौल अच्छा है, उन पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी न किसी ज्ञानी का साया ज़रूर पाया जाता है और ज्ञानी वही होते हैं जो शास्त्र का पालन करते हैं।
जब भी आप किसी नेकी का वुजूद देखें तो आप उसकी जड़ ढूंढिए, आपको वह हमेशा किसी न किसी शास्त्र से ही निकलती हुई दिखाई देगी।