हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु का रूतबा हक़ और बातिल को पहचानने में बहुत बुलंद है। मुसलमानों में हरेक फ़िरक़ा उनके बारे में यही राय रखता है। जो आदमी उनके कलाम पर अमल करेगा कभी गुमराह नहीं हो सकता लेकिन आदमी अपने नफ़्स की ख्वाहिश की पैरवी करता है और हक़ को छोड़ देता है या दीन में से भी वह उतनी ही बात मानता है जो उसके नफ़्स को ख़ुशगवार लगती है। नागवार और भारी लगने वाली बातों को आदमी छोड़ देता है।
नमाज़ का हुक्म सबसे अव्वल है इस्लाम में और लोगों के हक़ अदा करने पर भी बहुत ज़ोर है लेकिन मुसलमानों की एक बड़ी तादाद इन दोनों ही हुक्मों की तरफ़ से आम ग़फ़लत की शिकार है।
यह बहुत अजीब सी बात है।
इसके बाद भी उनका दावा है कि हम मुसलमान हैं।नमाज़ का हुक्म सबसे अव्वल है इस्लाम में और लोगों के हक़ अदा करने पर भी बहुत ज़ोर है लेकिन मुसलमानों की एक बड़ी तादाद इन दोनों ही हुक्मों की तरफ़ से आम ग़फ़लत की शिकार है।
यह बहुत अजीब सी बात है।
हम अली को मौला मानते हैं।
अली को मौला मानते हो तो फिर उनकी बात को मानने में सुस्ती क्यों ?
दीन में सुस्ती तो मुनाफ़िक़ों का तरीक़ा है।
हक़ को पाने में सबसे बड़ी रूकावट ख़ुद इंसान का नफ़्स है और इससे जिहाद करके इसकी हैवानी ख़सलतों पर क़ाबू पाना सबसे ज़्यादा मुश्किल काम है। इसीलिए इसे हदीस में जिहादे अकबर कहा गया है।
इस्लाम के दूसरे दुश्मनों का हाल तो यह है कि अगर उन्हें न भी मारा जाये वे तब भी मर जाएंगे या वे तौबा भी कर सकते हैं लेकिन यह नफ़्स तो बिना क़ाबू किए क़ाबू हो नहीं सकता और इसे क़ाबू करना इंसान के लिए सबसे नागवार काम है।
ऐसे में मुसलमान राहे रास्त पर आएं तो कैसे ?
पहले क्या हुआ यह जानना इसलिए ज़रूरी है ताकि हम यह तय कर सकें कि अब हमें क्या करना है ?
आपकी पोस्ट अच्छी मालूमात देती है।
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