Saturday, February 2, 2013

शिया सुन्नी मतभेद और सच्चाई की तलाश Shiya Sunni Doctrine


बंदे के दिल में इसलाम की मारिफ़त कैसे तरक्क़ी पाती है ?, इस मज़्मून के ज़रिये आप जान सकते हैं।
मैं अहले सुन्नत व अल-जमाअत के एक प्रतिष्ठित यूसुफ़ ज़ई पठान ख़ानदान में पैदा हुआ। हमारा ख़ानदानी शजरा हज़रत यूसुफ़ अलैहिस्-सलाम से होता हुआ हज़रत इबराहीम अलैहिस्-सलाम तक पहुंचता है। जिन्हें हिन्दू भाई ब्रह्मा जी के नाम से जानते हैं। जिन्हें वे अपना देवता मानते हैं, वह हमारे बाबा हैं। 
हमारी दादी अम्मा ने हमें अम्म का पारा और अल्लाह के 99 नाम ज़ुबानी याद करवा दिए। जैसे आज लोग बच्चों से पोएम सुनते हैं, वैसे ही लोग हमसे क़ुरआन पाक की सूरतें और अल्लाह के नाम सुनकर लुत्फ़अन्दोज़ होते थे। थोड़ा बड़े हुए तो मौलाना घर पर पढ़ाने के लिए आने लगे और हम भी मदरसे जाने लगे। फिर हम स्कूल जाने लगे। हमारी तालीम जारी रही। हम एक मुसलमान की तरह बड़े होने लगे जैसे कि सब मुसलमान होते ही हैं। कभी नमाज़ पढ़ ली और कभी छोड़ दी। कभी क़ुरआन पढ़ लिया और कभी छोड़ दिया। अपने वालिद साहब से हमने फ़िल्में देखना भी सीख लिया। हमें वालिद साहब अपने साथ फ़िल्में दिखाने ख़ुद ले जाया करते थे ताकि हम ग़लत दोस्तों की सोहबत में न पड़ जाएं। बचपन में हम चंपक, पराग, नंदन और कॉमिक्स पढ़ने लगे। पढ़ने का शौक़ नॉविल तक जा पहुंचा और फिर वह सिर्फ़ नॉविल तक ही महदूद न रहा। जिस दुकान में पढ़ने के लिए घुसे तो उसकी सारी किताबें ही पढ़कर ख़त्म कर दीं। एक दुकान ख़त्म कर दी तो दूसरी पकड़ ली। हमारे चाचा मंसूर अनवर ख़ाँ साहब एडवोकेट के दोस्त चोपड़ा जी की दुकान में सबसे ज़्यादा किताबें थीं। उसे भी ख़त्म होने में ज़्यादा दिन न लगे और फिर हम अपने क़स्बे के भ्रातृ मण्डल पुस्तकालय के सदस्य बन गए। यहां वेद, पुराण, स्मृति, इतिहास, आयुर्वेद और योग की पुस्तकें भी पढ़ने के लिए मिलीं। हमने हाई स्कूल से योग करना शुरू किया तो योग करते करते बीएससी तक जा पहुंचे। तब योग के नाम का चलन आम नहीं था और योग का चलन तो आज भी आम नहीं है। 
बहरहाल हम पढ़ते रहे और बढ़ते रहे लेकिन दीन की कोई ख़ास फ़िक्र न थी। हमारी ननिहाल बड़े ज़मींदारों में से एक थी। उनके घराने में दीन का रिवाज हमारी ददिहाल से ज़्यादा था। वहां हरेक आदमी हमारी दादी जैसा था सिवाय हमारे नाना के। गांव पहुंचते तो किताबों की लत याद आती और तब हमारी नानी की दीनी किताबें ही हमारे लिए वक्त गुज़ाराी का ज़रिया बनतीं। ‘दोज़ख़ का खटका‘ पढ़ी तो हम खटक कर रह गए और ‘जन्नत की कुंजी‘ पढ़ी तो ऐसा लगा कि जन्नत जाने में बस हमारे मरने भर की देर है। दीन का शौक़ और बढ़ा तो हमने और ज़्यादा पढ़ा। अब हमारे दीनी क़स्बे के दीनी कुत्बख़ाने हमारा टारगेट बन गए।
हमने पढ़ा कि अल्लाह ने एक जन्नत बनाई है और एक जहन्नम बनाई है। मरने के बाद वह अपनी जन्नत उसे देगा जो उसकी इबादत करेगा और जो उसकी इबादत न करेगा, उसे वह जहन्नम में डाल देगा। 
हमने लड़कपन में ही अल्लाह की इबादत शुरू कर दी। अभी हमने जीना शुरू भी न किया था कि हमने मौत की तैयारी शुरू कर दी। तैयारी के नाम पर तब्लीग़ी जमाअत के साथ गश्त शुरू कर दिया। तब्लीग़ी जमाअत के दोस्तों ने बताया कि अल्लाह किस इबादत पर क्या सवाब देता है और किस तस्बीह पर क्या सवाब देता है ?
हम ज़्यादा से ज़्यादा सवाब का ढेर जमा कर लेना चाहते थे। 
ननिहाल गए तो गाँव के सबसे बड़े बुद्धिजीवी मुंशी जी से मिले। वह जमाअते इसलामी के रूक्न थे। अब उनकी किताबों का नंबर था। मौलाना अबुल आला मौदूदी रह. का लिट्रेचर पढ़ा तो पता चला कि कलिमा, नमाज़, ज़कात, रोज़ा और हज तो दीन के सुतून हैं, ये मुकम्मल दीन नहीं हैं। दीन मुकम्मल तब होता है जब कि शरीअत को इन्फ़िरादी और इज्तेमाई तौर पर माना जाए। अगर यह काम न किया तो अल्लाह उम्मत पर दुनिया में भी अज़ाब नाज़िल करेगा और उसे हश्र के मैदान में भी पकड़ लेगा। हम वाक़ई डर गए। हमने यह कोशिश की कि हम इक़ामत ए दीन की कोशिश करें यानि मुसलमानों को नेकी की बात बताने के साथ साथ उन्हें जरायम व गुनाह से भी रोकेंगे।
इसी बीच मौलाना शम्स नवेद उस्मानी साहब रह. मिले। पता चला वि बरसों से क़ुरआन के साथ वेद, गीता और पुराण भी पढ़ रहे हैं। उन्होंने बताया कि सिर्फ़ मुसलमानों का भला हो जाए और वे जन्नत चले जाएं, यह सोच इसलामी नहीं है। हमारे पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब स. तो एक एक काफ़िर (नास्तिक, अधर्मी, दुराचारी) के पास सत्तर सत्तर मर्तबा जाया करते थे ताकि वह जहन्नम से बच जाए। उन पर सिलसिला ए नुबूव्वत ख़त्म हो चुका है। अब कोई नया नबी न आएगा। सो हर इंसान तक उस रब का पैग़ाम अब आपको ही पहुंचाना है। अगर आपने अपना फ़र्ज़ पूरा न किया और ग़ैर-मुस्लिम भाई जहन्नम चले गए तो अल्लाह आपको भी न बख्शेगा। सभी आदम की औलाद हैं। सब एक परिवार हैं। लिहाज़ा अब हम चर्च से लेकर आर्य समाज मंदिर तक सब जगह घूमने लगे। हम उस रब का पैग़ाम उसके बंदों तक पहुंचाने लगे। ईसाई हो या हिन्दू, सबको तौहीद, रिसालत और आखि़रत के साथ नेक अमल का पैग़ाम देने लगे।
तसव्वुफ़ की किताबें पढ़ीं तो पता चला कि इख़लास न हो और घमण्ड हो तो हर अमल बेकार है। शैतान को बहकाने वाली चीज़ उसका नफ़स ही थी। अगर इंसान ने अपने नफ़्स का तजि़्कया न किया तो शैतान के साथ वह भी लाज़िमन जहन्नम में जाएगा। हम एक कामिल सूफ़ी हज़रत मौलाना क़ारी अब्दुर्रहमान साहब नक्शबंदी से बैअत हो गए और हमने ज़िक्र ए ख़फ़ी के साथ अपनी अख़लाक़ी ख़राबियां दूर करनी शुरू कर दीं। पढ़ाई भी साथ साथ चलती रही।
अपने क़स्बे से बाहर निकले तो अहले हदीस उर्फ़ वहाबी मिले। उनकी किताबों से पता चला कि शिर्क और बिदअत बहुत बुरी चीज़ है। मुश्रिकाना रस्में और बिदअतें जहन्नम में ले जाती हैं। फ़ातिहा, तीजा, चालीसवां और ईद मीलाद वग़ैरह तो हमारे उलमा पहले ही छुड़वा चुके थे। अब हम क्या छोड़ें सो शिर्क ए ख़फ़ी रिया यानि दिखावे से बचने की कोशिश की। हमें लग रहा था कि अब हम जन्नत ज़रूर पहुंच जाएंगे। 
अब तक हमारा क़ुरआन पर ईमानो यक़ीन बढ़ा ही बढ़ा था और हमारा अमल भी सुधरा था। हमें अपने आपे से मतलब था। हम पैदा हुए हैं और हमें मरना है। हमें अपनी पैदाईश और अपनी मौत पर कोई अख्तियार नहीं है। हमें अपनी ज़िंदगी के मामलात पर कोई अख्तियार नहीं है। हम कहीं से आते हैं और अपनी मर्ज़ी के बिना चले जाते हैं। हम कहीं चले जाते हैं और अपनी मर्ज़ी के खि़लाफ़ चले जाते हैं। 
हम कहाँ से आते हैं और हम कहाँ चले जाते हैं ?
हमें कौन यहाँ लाता है और हमें कौन यहाँ से ले जाता है ?
लाने वाला हमें यहाँ क्यों लाता है और ले जाने वाला हमें यहाँ से क्यों ले जाता है ?
यहाँ आने से पहले हमारे साथ क्या हुआ था और यहाँ से जाने के बाद हमारे साथ क्या होगा ?
क़ुरआन इस सब सवालों को बड़ी अच्छी दलीलों से हल करता है और पूरी तरह मुतमईन भी करता है। जितनी किताबें मैंने पढ़ी हैं। यह उनमें सबसे अच्छी किताब है। यह अकेली किताब है, जिसमें आज तक न कुछ घटा है और न कुछ बढ़ा है।

अब हमारी ज़िंदगी में कुछ शिया दोस्त भी बने। हमने उन्हें सम्मान दिया और उनसे भी सम्मान ही पाया। एक शिया दोस्त ने हमें बताया कि आखि़रत में तुम्हारा हश्र तुम्हारे इमाम के साथ होगा। अगर वह जहन्नमी है तो तुम भी जहन्नम में ही जाओगे और अल्लाह ने जैसे नबी और रसूल को मुक़र्रर किया है वैसे ही उसने इमाम भी मुक़र्रर किया है। हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को अल्लाह ने ही इमाम बनाया है।
हमने पूछा-‘हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु में क्या ख़ास बात है ?‘
बोले-‘अल्लाह ने पंचतन पाक को ख़ास मिटटी से पैदा किया गया था। हज़रत अली अ. उनमें से एक हैं। वे मासूम थे। उनसे ग़लती मुमकिन नहीं है।‘
हमने पूछा-‘...और बाक़ी सहाबा ?‘
बोले-‘वे सादा मिटटी की पैदाईश हैं। इसीलिए उन्होंने ग़लतियां की हैं। अब नबी स. के बाद हमें उसके वसी अली अलैहिस्-सलाम की ही इत्तेबा करनी चाहिए।

हमने पूछा कि ‘अगर हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु नबी स. के वसी हैं तो यह वसीयत कहीं लिखी हुई है ?
बोले कि ‘अल्लाह के नबी स. अपनी वफ़ात से पहले वसीयत लिखना चाह रहे थे लेकिन उनके उम्मतियों ने उन्हें वसीयत लिखने ही नहीं दी।‘
हमें ताज्जुब हुआ कि उम्मतियों की बात ग़लत थी तो अल्लाह के नबी स. और उसके वसी उसे मान कैसे गए ? 
हमने पूछा कि ‘ख़ैर, अल्लाह ने अपने कलाम में, क़ुरआन में नबी स. की नुबूव्वत का ऐलान किया है तो अगर उसने हज़रत अली र. को इमाम मुक़र्रर किया है तो ख़ुद कहीं न कहीं उसे लिखा भी होगा ?
बोले, क़ुरआन में तो कहीं लिखा नहीं मिलता।‘ 
पूछा कि ‘क्यों नहीं लिखा मिलता ?
बोले कि ‘ ऐसा लगता है कि उन आयतों को ख़लीफ़ाओं ने निकाल दिया होगा और आयतों की तरतीब तो उन्होंने बदली ही है। मक्की मदनी आयतें आगे पीछे कर रखी हैं ताकि अहले बैत की फ़ज़ीलत को छिपा दिया जाए। उसी क़ुरआन को उन्होंने उम्मत में फैला दिया।‘
हमने पूछा कि ‘हज़रत अली रज़ि. ने पूरा और सही क़ुरआन याद किया होगा  कि नहीं ?‘
बोले -‘हां, क्यों नहीं ?‘
हमने कहा कि ‘वह क़ुरआन कहां है ?‘
बोले कि ‘ऐसा कोई क़ुरआन तो हज़रत अली रज़ि. ने लिखा ही नहीं है।‘
हमने कहा कि ‘लिखा नहीं है तो उन्होंने दूसरों को हिफ़्ज़ ज़रूर करवाया होगा।‘
बोले कि ‘उन्होंने हिफ़्ज़ भी नहीं करवाया, वह ख़ुद इसी क़ुरआन को पढ़ा करते थे।‘ 
हमने पूछा कि ‘फिर वह असली वाला क़ुरआन किसके पास मिलेगा ?‘
बोले कि ‘वह क़ुरआन तो बारहवें इमाम के पास है।‘
हमने पूछा कि ‘वह कहां हैं ?‘
बोले कि ‘वह ग़ायब हैं।‘

हमने सोचा कि ‘हमारा इमाम ग़ायब है तो फिर अल्लाह ने हमें किस लिए हाज़िर कर दिया ?
हमने पूछा कि ‘इमाम ग़ायब आएंगे कब ?‘
बोले कि ‘इसका भी कुछ पता नहीं है। हज़ार से ज़्यादा तो शियाओं को हो गए उनके आने की इंतेज़ार में।‘
अजीब चक्कर है कि जिस इमाम की इत्तेबा करनी है वह ग़ायब है और जिस हिदायत की पैरवी करनी है,वह भी ग़ायब है और जो किताब मौजूद है, उसका ऐतबार नहीं है और उसका जो आलिम मौजूद है, वह इत्तेबा के लायक़ नहीं है।
जो लोग सादा मिटटी से बने थे। उन्होंने पूरा क़ुरआन याद भी कर लिया और पूरी उम्मत को भी याद करवा दिया और जो अहले बैत और इमाम ख़ास मिटटी से बने थे, वे क़ुरआन को न तो ख़ुद याद रख सके और न ही अपनी उम्मत को याद करवा सके। उनके सामने दूसरों ने क़ुरआन बदल दिया और ख़ुद उन्होंने पूरा ही ग़ायब कर दिया। बारह इमाम न क़ुरआन की हिफ़ाज़त कर सके और न ही उसे उम्मत तक पहुंचा सके। पूरी गुफ़तगू से यह बात सामने आई।
यह कैसी तालीम है जो ईमान बढ़ाने के बजाय उसे मिटा दे, जो अमल को सुधारने के बजाय उसे बिगाड़ दे, जो क़ुरआन पर यक़ीन के बजाय शक पैदा करे, जो अल्लाह, नबी स. और इमाम का अहसान मनवाने के बजाय उन्हें झूठा, कमज़ोर और अपने फ़र्ज़ से ग़ाफ़िल क़रार दे ?
अल्लाह ने नुबूव्वत ख़त्म कर दी है तो इमाम को क़ायम रखता और इमाम को ग़ायब करना था तो अपनी हिदायत को उसकी असल शक्ल में उम्मत के पास बाक़ी छोड़ता और अगर हिदायत को भी उठाना था तो हमें पैदा न करता। हिदायत नहीं है तो हम क्या करें ?

यह सोच सोच कर हम परेशान हो गए। 3 दिन तक हम पर मायूसी तारी रही। बीवी परेशान, बच्चे भी परेशान। 
फिर ख़ुद ही अक्ल दौड़ाई कि जो बात इंसान को मायूस कर दे, वह इसलाम की बात हरगिज़ नहीं हो सकती। जो बात इंसान को शक में डाल दे, वह बात इसलाम की नहीं हो सकती। दुनिया में सिर्फ़ एक ही क़ुरआन मौजूद है। इसकी हिफ़ाज़त का यही सबसे बड़ा सुबूत है। अल्लाह ने इसकी हिफ़ाज़त का वादा किया है और यह क़ुरआन में दर्ज भी है। क़ुरआन इमाम है सबके लिए और क़ियामत तक के लिए। हमारा इमाम ग़ायब नहीं है बल्कि हाज़िर है क्योंकि हम हाज़िर हैं।
हिदायत मौजूद है, जो चाहे इसकी पैरवी करे। हवा, रौशनी और पानी की तरह अल्लाह की हिदायत सबके लिए आम है।
अल-हम्दुलिल्लाह।
फिर से नई हिम्मत पैदा हुई और हम फिर से अमल में जुट गए।

उन शिया भाई ने यह भी बताया था कि सुन्नियों के पास माल आता है तो उनकी दीनदारी बढ़ जाती है और शियाओं के पास माल आता है तो वह दहरिया मुल्हिद (नास्तिक) बन जाता है। उन्होंने यह बात माल के साथ कही है लेकिन हक़ीक़त यह है कि जैसे जैसे सुन्नी अपनी किताबें पढ़ता है और अपने बुज़ुर्गों का कलाम सुनता है तो उसकी दीनदारी बढ़ जाती है और जैसे जैसे एक शिया अपने मसलक की किताबें पढ़ता है और अपने बुज़ुर्गों की मजलिसें सुनता है तो उसका कन्फ़यूझन बढ़ता चला जाता है और उसकी परिणति कुफ्ऱ (नास्तिकता) में हो जाती है।

यह सारी बात इसलिए यहां लिखी है कि इसलाम के बारे में बहुत से नज़रिये वुजूद में आ चुके हैं। एक आदमी जो अल्लाह के रास्ते पर चलने की कोशिश करता है। वह गोया पुल सिरात पर चलने की कोशिश करता है। बहुत सी वजहों से वह इस रास्ते से डिग सकता है लेकिन उसे किसी भी वजह से सीधे रास्ते से नहीं डिगना चाहिए।
अगर आप क़ुरआन व हदीस न भी पढ़े हों तो भी आप कॉमन सेंस से जान सकते हैं कि सच क्या है ?
बशर्ते कि आपको अपनी सच्ची मंज़िल की तलाश हो और दुनिया का कोई लालच या डर आपके दिल में न हो।
दरअसल हुआ यह है कि वक्त के साथ बहुत से नए ख़यालात और नई रिवायतें चल पड़ीं हैं। शिया हों या सुन्नी, सबमें ये नई बातें आज देखी जा सकती हैं। सुन्नियों में देखते ही देखते बारह वफ़ात पर जुलूसे मुहम्मदी की रस्म शुरू हो चुकी है। जैसे हिन्दू भाई अपने महापुरूषों के जन्म दिवस वग़ैरह पर झाँकियाँ निकालते हैं, वैसे ही अब हिन्दुस्तान के मुसलमान भी निकालने लगे हैं। इसी तरह पहले किसी दौर में शियाओं ने ताज़िये निकालने शुरू किए थे।
हज़रत हम्ज़ा शहीद हुए लेकिन पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद साहब स. ने उनका ताज़िया कभी नहीं निकाला। हज़रत फ़ातिमा र. (शिया नज़रिये के मुताबिक़) शहीद हुईं लेकिन इमाम हज़रत अली र. ने उनका ताज़िया ज़िंदगी में कभी भी न निकाला। हज़रत अली र. शहीद हुए तो इमाम हसन और इमाम हुसैन रज़ि. ने उनका ताज़िया कभी न निकाला। फिर इमाम हसन शहीद हुए तो इमाम हुसैन रज़ि. ने उनका ताज़िया कभी न निकाला। आज इन सबके ताज़िये निकाले जा रहे हैं और इमाम हुसैन का ताज़िया भी निकाला जा रहा है।
इसे इमामों के तरीक़े से हटने के सिवा और क्या कहा जा सकता है ?
शिया भाई भी मानते हैं कि ताज़िये निकालना दीन में ज़रूरी नहीं है। इसके बावजूद भी हर साल ताज़िये निकालते हैं और हर साल दंगों में सैकड़ों हज़ारों लोग मारे जाते हैं। एक ग़ैर ज़रूरी काम के लिए मरना ज़रूरी हो चुका है।
अल्लाह रहम करे, आमीन !
इसका इलाज यही है कि बार बार क्रॉस करके देखते रहिए कि इमाम क्या करते थे और सारे इमामों के इमाम और सारे नबियों के इमाम पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम क्या करते थे ?
इमामुल अम्बिया पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम जन्नत में ज़रूर जाएंगे, जो उनकी पैरवी करता है, वह भी जन्नत में ज़रूर ही जाएगा।
इसमें शिया सुन्नी किसी को कोई शक आज भी नहीं है। यह एक अच्छी बात है। इसी बात की वजह से उम्मीद आज भी क़ायम है और उम्मीद पर ही यह दुनिया क़ायम है।
कोई अमल पास न हो तो भी अल्लाह से अच्छाई की उम्मीद ज़रूर रखनी चाहिए। यह भी अपने अंदर एक अच्छा अमल है। यह सच्चाई है।
आप किसी भी फ़िरक़े के मानने वाले हों लेकिन सच्चाई को तलाश कीजिए और उस पर क़ायम रहिए। आपका भला सिर्फ़ और सच्चाई से ही होगा। सच्चाई दुनिया में भी आपके काम आएगी और दुनिया से जाने के बाद भी। 
आपको यह बात वेद-पुराण से लेकर बाइबिल-क़ुरआन तक में लिखी हुई मिल जाएगी।
हमने ये सब पढ़े हैं, आप भी ये सब पढ़िए।
मालिक आपका भला ज़रूर करेगा।

(एक मज़्मून में थोड़ा सा बढ़ाने के लिए लिखना शुरू किया तो यह एक नया ही मज़्मून बन गया।

बंदे के दिल में इसलाम की मारिफ़त कैसे तरक्क़ी पाती है ?

मैं अहले सुन्नत व अल-जमाअत के लोगों के दरमियान पैदा हुआ। हमारी दादी अम्मा ने हमें अम का पारा और अल्लाह के 99 नाम ज़ुबानी याद करवा दिए। थोड़ा बड़े हुए तो दीन का शौक़ बढ़ा और हमने पढ़ा। 
हमने पढ़ा कि अल्लाह ने एक जन्नत बनाई है और एक जहन्नम बनाई है। मरने के बाद वह अपनी जन्नत अपने इबादत करने वाले बन्दों को देगा और अपनी इबादत न करने वालों को वह जहन्नम में डाल देगा। 
हमने लड़कपन में ही अल्लाह की इबादत शुरू कर दी। अभी हम ढंग से जीने का मतलब भी न जान पाए थे कि हमने मौत की तैयारी शुरू कर दी।
तब्लीग़ी जमाअत के दोस्तों ने बताया कि अल्लाह किस नमाज़ पर क्या सवाब देता है और किस तस्बीह पर क्या सवाब देता है ?
हम ज़्यादा से ज़्यादा सवाब का ढेर जमा कर लेना चाहते थे। 
इसी बीच जमाअते इसलामी का लिटरेचर पढ़ा तो पता चला कि कलिमा, नमाज़, ज़कात, रोज़ा और हज तो दीन के सुतून हैं, ये मुकम्मल दीन नहीं हैं। दीन मुकम्मल तब होता है जब कि शरीअत को इन्फ़िरादी और इज्तेमाई तौर पर माना जाए। अगर यह काम न किया तो अल्लाह उम्मत पर दुनिया में भी अज़ाब नाज़िल करेगा और उसे हश्र के मैदान में भी पकड़ लेगा। हम वाक़ई डर गए। हमने यह कोशिश की कि हम इक़ामत ए दीन की कोशिश करें।
इसी बीच मौलाना शम्स नवेद उस्मानी साहब रह. मिले। उन्होंने बताया कि नुबूव्वत ख़त्म हो चुकी है। अब कोई नया नबी न आएगा। लिहाज़ा हर इंसान तक उस रब का पैग़ाम अब आपको ही पहुंचाना है। अगर आपने उसका पैग़ाम उसके बंदों तक नहीं पहुंचाया और वे जहन्नम में चले गए तो वे तुम्हें भी जन्नत में न जाने देंगे कि इन्होंने अपना फ़र्ज़ पूरा नहीं किया। लिहाज़ा हम उस रब का पैग़ाम उसके बंदों तक पहुंचाने लगे, ईसाई हो या हिन्दू सबको तौहीद, रिसालत और आखि़रत के साथ नेक अमल का पैग़ाम देने लगे।
तसव्वुफ़ की किताबें पढ़ीं तो पता चला कि इख़लास न हो तो हर अमल बेकार है। इंसान ने अपने नफ़्स का तज्किया न किया तो वह लाज़िमन जहन्नम में जाएगा। हम एक कामिल सूफ़ी साहब से बैअत हो गए और हमने अपनी अख़लाक़ी ख़राबियां दूर करनी शुरू कर दीं।
अहले हदीस की किताबों से पता चला कि बिदअत बहुत बुरी चीज़ है। बिदअत जहन्नम में ले जाती है। हमने बिदअतें पकड़ी ही नहीं थीं लेकिन फिर भी ढूंढ ढूंढ कर छोड़नी शुरू कर दीं। हमें लग रहा था कि अब हम जन्नत ज़रूर पहुंच जाएंगे।
अब हमारी ज़िंदगी में एक शिया दोस्त दाखि़ल होते हैं।
उन्होंने बताया कि आखि़रत में तुम्हारा हश्र तुम्हारे इमाम के साथ होगा। अगर वह जहन्नमी है तो तुम भी जहन्नम में ही जाओगे और अल्लाह ने जैसे नबी और रसूल को मुक़र्रर किया है वैसे ही उसने हज़रत अली रज़ियल्लाहु अन्हु को इमाम मुक़र्रर किया है। ।
हमने पूछा-‘हज़रत अली में क्या ख़ास बात है ?‘
बोले-‘अल्लाह ने पंचतन पाक को ख़ास मिटटी से पैदा किया गया था। हज़रत अली अ. उनमें से एक हैं। वे मासूम थे। उनसे ग़लती मुमकिन नहीं है।‘
हमने पूछा-‘...और बाक़ी सहाबा ?‘
बोले-‘वे सादा मिटटी की पैदाईश हैं। इसीलिए उन्होंने ग़लतियां की हैं। अब नबी स. के बाद हमें उसके वसी अली अलैहिस्-सलाम की ही इत्तेबा करनी चाहिए

हमने पूछा कि यह हुक्म कहीं लिखा हुआ है ?
बोले कि ‘अल्लाह के नबी स. अपनी वफ़ात से पहले वसीयत लिखना चाह रहे थे लेकिन उनके उम्मतियों ने लिखने नहीं दिया था।‘
हमें ताज्जुब हुआ कि उम्मतियों की बात ग़लत थी तो अल्लाह के रसूल और उसके वसी उसे मान कैसे गए ? 
हमने पूछा कि ‘ख़ैर, अल्लाह ने अपने कलाम में, क़ुरआन में ख़ुद कहीं लिखा होगा ?
बोले, क़ुरआन में तो कहीं लिखा हुआ है नहीं। जितनी आयतों में लिखा था, उन्हें उम्मतियों ने निकाल कर आयतों को जमा कर दिया और आयतों की तरतीब भी बदल दी ताकि अहले बैत की फ़ज़ीलत को छिपा दिया जाए।
हमने पूछा कि ‘हज़रत अली रज़ि. ने पूरा और सही क़ुरआन याद किया होगा  कि नहीं ?‘
बोले -‘हां, क्यों नहीं ?‘
हमने कहा कि ‘वह क़ुरआन कहां है ?‘
बोले कि ‘ऐसा कोई क़ुरआन तो हज़रत अली रज़ि. ने लिखा ही नहीं है।‘
हमने कहा कि ‘लिखा नहीं है तो उन्होंने दूसरों को हिफ़्ज़ ज़रूर करवाया होगा।‘
बोले कि ‘उन्होंने हिफ़्ज़ भी नहीं करवाया, वह ख़ुद इसी क़ुरआन को पढ़ा करते थे।‘ 
हमने पूछा कि ‘फिर वह असली वाला क़ुरआन किसके पास मिलेगा ?‘
बोले कि ‘वह क़ुरआन तो बारहवें इमाम के पास है।‘
हमने पूछा कि ‘वह कहां हैं ?‘
बोले कि ‘वह ग़ायब हैं।‘

हमने सोचा कि ‘हमारा इमाम ग़ायब है तो फिर अल्लाह ने हमें किस लिए हाज़िर कर दिया ?
अजीब चक्कर है कि जिस इमाम की इत्तेबा करनी है वह ग़ायब है और जिस हिदायत की पैरवी करनी है,वह भी ग़ायब है और जो किताब मौजूद है, उसका ऐतबार नहीं है और उसका जो आलिम मौजूद है, वह इत्तेबा के लायक़ नहीं है।
इमाम अपने असहाब को क़ुरआन भी हिफ़्ज़ न करवा सके तो उनकी ज़िंदगी भर की मेहनत से उम्मत को क्या फ़ायदा पहुंचा ?
अल्लाह ने नुबूव्वत ख़त्म कर दी है तो इमाम को क़ायम रखता और इमाम को ग़ायब करना था या उसे उठाना था तो अपनी हिदायत को उसकी असल शक्ल में बाक़ी छोड़ता और अगर हिदायत को भी उठाना था तो हमें पैदा न करता। 

3 दिन तक मुझ पर मायूसी तारी रही। बीवी परेशान, बच्चे भी परेशान।
फिर ख़ुद ही इधर उधर अक्ल दौड़ाई कि जो बात इंसान को मायूस कर दे, वह इसलाम की बात हरगिज़ नहीं हो सकती।
दुनिया में सिर्फ़ एक ही क़ुरआन मौजूद है। इसकी हिफ़ाज़त का यही सबसे बड़ा सुबूत है। अल्लाह ने इसकी हिफ़ाज़त का वादा किया है और यह क़ुरआन में दर्ज भी है। क़ुरआन इमाम है सबके लिए और क़ियामत तक के लिए। हमारा इमाम ग़ायब नहीं है बल्कि हाज़िर है क्योंकि हम हाज़िर हैं।
हिदायत मौजूद है, जो चाहे इसकी पैरवी करे। हवा, रौशनी और पानी की तरह अल्लाह की हिदायत सबके लिए आम है।
अल-हम्दुलिल्लाह।
फिर से नई हिम्मत पैदा हुई और हम फिर से अमल में जुट गए।
यह सारी बात इसलिए यहां लिखी है कि इसलाम के बारे में बहुत से नज़रिये वुजूद में आ चुके हैं। एक आदमी जो अल्लाह के रास्ते पर चलने की कोशिश करता है। वह गोया पुल सिरात पर चलने की कोशिश करता है। बहुत सी वजहों से वह इस रास्ते से डिग सकता है लेकिन उसे किसी भी वजह से सीधे रास्ते से नहीं डिगना चाहिए।
अगर आप क़ुरआन व हदीस न भी पढ़े हों तो भी आप कॉमन सेंस से जान सकते हैं कि सच क्या है ?
बशर्ते कि आपको अपनी सच्ची मंज़िल की तलाश हो और दुनिया का कोई लालच या डर आपके दिल में न हो।