Wednesday, January 26, 2011

ऋषियों को नाहक़ इल्ज़ाम न दो Do you know the truth about great rishies ? part first

ऋषियों का अहसान मानव जाति पर
ईश्वर सर्वव्यापी है और उसका नाम भी। दुनिया की हरेक ज़बान में ऐसे शब्द हैं जिनसे इस दुनिया के बनाने वाले और पालने वाले के गुणों को बोध होता है। ऐसे ही दुनिया की तमाम क़ौमों में ऐसे शब्द भी पाए जाते हैं जिनसे ऐसे ज्ञानी पुरूषों का बोध होता है जिन्होंने ईश्वरीय वाणी को अपने अंतःकरण में धारण में धारण किया, उसके अनुसार आचरण किया और लोगों को अपने आदर्श का अनुसरण की प्रेरणा दी। ऐसे सत्पुरूष की संख्या दस-बीस नहीं है बल्कि हज़ारों में है। एक हदीस के मुताबिक़ इनकी कुल संख्या लगभग एक लाख चैबीस हज़ार है। अगर दुनिया में आज माता-पिता, भाई-बहन का रिश्ता पवित्र माना जाता है तो यह इन्हीं सत्पुरूषों की पवित्र शिक्षा का नतीजा है वर्ना दुनिया के सारे वैज्ञानिक और दार्शनिक मिलकर भी रिश्तों की पवित्रता क़ायम नहीं कर सकते और न ही इसके लिए कोई वैज्ञानिक कारण बता सकते हैं।
पवित्रता विज्ञान की समझ से परे का विषय है। रिश्तों की पवित्रता ही एक इंसान को जानवर से अलग करती है। जानवर के लेवल से ऊपर उठाने वाले, मानव जाति को उसकी पवित्रता और उसकी असल मंज़िल का ज्ञान कराने वाले यही सत्पुरूष थे जो इस धरती के हरेक हिस्से में अलग-अलग दौर में आए। उनकी भाषाएं तो बेशक जुदा थीं लेकिन उन सबका संदेश एक ही था, उन सबका आचरण पवित्र था। सभी ने अपने फ़र्ज़ को अदा करने के लिए, हमें इंसान बनाने के लिए भीषण अत्याचार सहे, अपना अपमान सहा और अपनी जानें भी दीं। उन्होंने तो हमें सब कुछ दिया लेकिन हमने उन्हें क्या दिया ?
हमने उन्हें बदनामी दी, हमने उनके नामों का मज़ाक़ उड़ाया, हमने उनकी शिक्षा को भुलाया, उनके आदर्श इतिहास को भुलाया और अपने मन की बेहूदा कल्पनाओं को उनकी कथा कहकर समाज में फैलाया। उनकी कुर्बानियों का उन्हें हमने यह सिला दिया।
क्या अच्छा सिला दिया हमने अपने साथ भलाई करने वालों को ?
इन सत्पुरूषों को अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग उपाधियों से पुकारा जाता है। अरबी-हिब्रू में इन्हें नबी और रसूल कहा जाता है, फ़ारसी में इन्हें पैग़म्बर कहा जाता है और संस्कृत में इन्हें ‘ऋषि‘ कहा गया है।

ऋषि का अर्थ क्या है ?
‘साक्षात्कृंतधर्माण ऋषयो बभूवुः‘। (नि. 1 , 20)
अर्थ- धर्म को साक्षात करने वाले मनुष्य ऋषि कहलाते हैं।
जो धर्म को साक्षात करने वाले मनुष्य हैं, वे कभी अधर्म नहीं कर सकते यह स्वयंसिद्ध है। इसके बावजूद हिन्दू साहित्य में ऋषियों के बारे में ऐसी कहानियां मिलती हैं जो कि अधर्म के सिवा कुछ भी नहीं हैं। रामायण में भी ऐसी कहानियों की भरमार है। संकेत मात्र के लिए एक श्लोक का अनुवाद पेश है-
‘अयोध्या कांड (सर्ग 91, 52) में लिखा है कि भरत के साथ आए अयोध्यावासियों का सत्कार करते हुए ऋषि भरद्वाज ने शराबियों के लिए शराब और मांस खाने वालों के लिए अच्छे अच्छे मांस जुटाए।‘

(क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिन्दू धर्म ?, पृष्ठ 63)
क्या यह कहानी एक ऋषि के आचरण से मेल खाती है ?
इन कहानी लिखने वालों ने सिर्फ़ इतना ही नहीं किया कि ऋषियों के बारे में झूठी कहानियां लिखकर लोगों को उनसे नफ़रत दिलाई बल्कि उनके आचरण को इतना कलंकित दिखाया कि लोग उन्हें आदर्श मानना तो दूर उनके नाम से भी नफ़रत करने लगें। ऋषि भरद्वाज के साथ भी ही जुल्म किया गया। उनके पैदा होने के पीछे एक ऐसी गंदी कहानी जोड़ दी गई जो कि कभी सच नहीं हो सकती। देखिए-
श्रीमद्भागवतपुराण में आता है कि अपने बड़े भाई उतथ्य की गर्भवती पत्नी ममता के साथ बृहस्पति ने बलात्कारपूर्वक संभोग किया और उसके वीर्य से भरद्वाज नामक पुत्र उत्पन्न हुआ.
अंतर्वत्न्यां भ्रातृपत्न्यां मैथुनायां मैथुनाय बृहस्पतिः,
प्रवृत्ते वारितो गर्भ शप्त्वा वीर्यमवासृजत .
तं त्यक्तुकामां ममतां भर्तृत्यागविशंकिताम्,
नामनिर्वचनं तस्य श्लोकमेकं सुरा जगुः .
मूढ़े भर द्वाजमिमं भर द्वाजं बृहस्पतेः
यातौ तदुक्त्वा पितरौ भरद्वाजस्ततस्त्वयम् .
चोद्यामाना सुरैरेवं मत्वा वितथमात्मजम्, व्यसृजत् .
-श्रीमद्भागवतपुराण, 9,20,36-39
अर्थात, बृहस्पति गर्भवती भावज से संभोग में प्रवृत्त हुआ. उसे रोका. वह गर्भ को शाप दे कर संभोगरत हुआ और उसका वीर्य स्खलित हुआ. उस वीर्य को भावज फेंकना चाहती थी ताकि उस का पति उससे नाराज हो कर उसे त्याग न दे. तब देवताओं ने कहा- हे मूर्ख औरत, इस द्वाज (वीर्य) को भर (धारण किए रह). उसने उसे धारण किया और जिस पुत्र को उसने जन्म दिया वह ‘भरद्वाज‘ कहलाया.

दोने से द्रोणाचार्य
यही भरद्वाज एक बार गंगास्नान करने गया. वहां उसने स्नान कर के कपड़े बदल रही घृताची नामक अप्सरा को देखा. उसके शरीर के एक भाग से उसका कपड़ा सरक गया. उसे देख भरद्वाज का वीर्य स्खलित हो गया. उससे एक बालक उत्पन्न हुआ, जो द्रोण से उपजने के कारण ‘द्रोण‘ कहलाया.
गंगाद्वारं प्रति महान् बभूव भगवानृषिः ,
भरद्वाज इति ख्यातः .
ददर्शाप्सरसं साक्षाद् घृताचीमाप्लुतामृषिः ,
रूपयौवनसम्पन्नां मद्दृप्त्तां मदालसाम् .
तस्या पुनर्नदीतीरे वसनं पर्यवर्तत ,
व्यपकृष्टांबरां दृष्ट्वां तामृषिश्चकमे ततः .
तत्र संसक्तमनसो भरद्वाजस्य धीमतः ,
ततोऽस्य रेतश्चस्कंद तदृषिद्र्रोण आदधे .
ततः समभवद् द्रोणः कलशे तस्य धीमतः .
-महाभारत आदिपर्व, 129,33-38
(क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिन्दू धर्म ?, पृष्ठ 327, 328)
एक मुसलमान का विश्वास आजकल इस मुल्क में ज़रा कम किया जाता है, इसलिए ये दोनों उद्धरण एक ख्याति प्राप्त ब्राह्मण विद्वान श्री सुरेन्द्र कुमार शर्मा ‘अज्ञात‘ जी की पुस्तक से लिए गए हैं। यह पुस्तक ‘विश्वबुक्स, दिल्ली‘ द्वारा प्रकाशित है.
http://www.vishvbook.com/
आपकी आत्मा क्या कहती है ?

क्या यह कहानी सच हो सकती है ?
नहीं न ?
मैं भी ऐसी बातों को सच नहीं मानता। दरअस्ल ये कहानियां धर्म की गद्दी पर विराजमान हिन्दू कवियों ने अपने मन से खुद ही लिख ली हैं ताकि वे किसी की भी औरत और दौलत से मनमानी कर सकें और जब कोई टोके तो ऋषियों की कहानी सुनाकर उन्हें संतुष्ट कर सकें कि वे पाप नहीं कर रहे हैं बल्कि उनका कल्याण कर रहे हैं।
आज अनवर जमाल भरद्वाज ऋषि के बारे में गालियों से भी गंदी कहानी को धो-मांझ रहा है जो खुद को उनकी औलाद बताते हैं वे भारद्वाज गोत्र वाले मज़े से कोट पैंट पहनकर भागवत की कथाएं सुन रहे हैं। जहां उनके बाप पर गंदे आरोप लगाए जाते हैं, वहां वे मज़े से जाते हैं और जो इस्लाम उनके बाप भरद्वाज को ही नहीं बल्कि हरेक ऋषि को पवित्र घोषित करता है, उससे उन्हें घिन आती है। जो सत्य को अपने अहंकार के कारण तुच्छ जानकर उसका तिरस्कार करता है, वह जहां भी जाएगा, ज़िल्लत ही पाएगा। यही उनका दंड है, चाहे उन्हें उसका पता चले या न चले।
आज हिन्दू साहित्य में हरेक ऋषि के चरित्र को भरद्वाज जी की तरह ही दूषित दिखाया जाता है और उनके वंशज मज़े से उस साहित्य का प्रचार कर रहे हैं।
है न ताज्जुब की बात ?

भारत का उद्धार होगा ऋषियों के अनुकरण से
जब धर्म को भुला दिया जाए और उसे धंधा बना लिया जाए तब इंसान की ग़ैरत ऐसे ही मर जाती है।
ऋषियों के सच्चे चरित्र का लोप होने के कारण ही आज भारत दुर्दशा का शिकार है और जब तक ऋषियों का सच्चा चरित्र लोगों के सामने नहीं आएगा और लोग उनका अनुकरण नहीं करेंगे तब तक भारत का उद्धार हरगिज़ हरगिज़ होने वाला नहीं है। यह मेरा दृढ़ मत है।
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यह संवाद डा. श्याम गुप्ता जी के लिए क्रिएट किया गया है। उन्होंने मुझसे पूछा था कि -

‘...सब कुछ ठीक कहते हुए भी निम्न उद्धृत वाक्य की क्या आवश्यकता थी। यह प्रोवोकेटिव ... होता है और प्रतिक्रिया उत्पन्न होती है। इससे बचना चाहिये।
‘‘...हिंदू साहित्य में ऋषियों के चरित्र आज वैसे शेष नहीं हैं जैसे कि वास्तव में वे पवित्र थे। कल्पना और अतिरंजना का पहलू भी उनमें पाया जाता है।‘‘

http://forum.thiazi.net/showthread.php?p=1703163

2 comments:

impact said...

'अहसास की परतें' की लोकप्रियता से घबराकर लोगों ने नकली ब्लॉग इसी नाम से बना लिया है. ऐसे लोगों से सावधान रहने की ज़रुरत है.

Taarkeshwar Giri said...

Apke hath main jarur galat dharmik kitab lag gai hai. aap jara sawadhani se aur dubara padhe.

apka likhne ka maksad kanhi aur jaa raha hai