अमित जी मेरे अनुज हैं और मुझसे प्यार करते हैं । हाँ , वे मुझसे तकरार भी करते हैं लेकिन उसकी हैसियत फ़क़त एक इल्मी बहस की होती है । ठीक ऐसे ही जैसे कि अदालत में दो वकील आपस में ज़ोरदार बहस करते हैं लेकिन उनके दरम्यान कोई नफ़रत या रंजिश नहीं होती । सच को साबित करने के लिए जो तर्क और सुबूत वे दे सकते हैं, वे देते हैं । इस तरह वे सच तक पहुँचने में अदालत की मदद करते हैं । जब महज़ पैसे की ख़ातिर इंसान इतना सत्यापेक्षी और द्वेष रहित व्यवहार कर सकता है तो फिर एक रब की ख़ातिर यही व्यवहार हम क्यों नहीं कर पाते ?
यह विचारणीय है ।
हम नहीं कर पाते हैं इसीलिए हमें सच अभी तक सामूहिक रूप से मयस्सर नहीं है , हमारी दुर्दशा इसका प्रमाण है ।
उद्धार हमारा मकसद है तो प्यार हमारा तरीका होना चाहिए , जैसे कि ब्राह्मण युवा अमित जी का तरीक़ा है और ख़ुद मेरा भी ।
अपने ब्लॉग पर उन्होंने मुझे प्यार और सम्मान देते हुए कुछ ऐसी पंक्तियाँ कही हैँ जो इससे पहले ब्लागजगत में कभी नहीं कही गईं । वास्तव मेँ ही वे अद्भुत हैं । उर्दू में इसे 'इल्मी करामत' कहा जाता हैं । हिन्दी में इसे साहित्यिक चमत्कार कहा जाएगा ।
... और साहिबान , जैसा कि आप जानते ही हैं कि मैं जवाब जरूर देता हूँ तो अब एक ब्राह्मण के प्यार का इस्लामी जवाब भी मुलाहिज़ा फ़रमाएं ।
रहता है जिसके दिल में प्यार सदा
वह करता है जग पर उपकार सदा
हैवाँ भी करते हैं अपनों से प्यार
इंसाँ ही गिराता है भेद की दीवार सदा
मख़्लूक़ में है सिफ़ाते ख़ालिक़ का परतौ
इश्क़े मजाज़ी से वा है हक़ीक़ी द्वार सदा
विराट में अर्श है जो, सूक्ष्म में क़ल्ब वही
यहीं होता है रब का दीदार सदा
किरदार आला, ज़ुबाँ शीरीं है अमित तेरी
ऐसे बंदों का होता जग में उद्धार सदा
............
मख़्लूक़ - सृष्टि , ख़ालिक़ - रचयिता , इश्क़े - मजाज़ी लाक्षणिक प्रेम जो किसी लौकिक वस्तु से किया जाए , वा - खुला , हक़ीक़ी - सच्चा , अर्श - सृष्टि का केंद्र जो सूक्ष्म जगत में हैं , जहां से समस्त चराचर जगत का निर्देशन और नियंत्रण हो रहा है । जीवन की ऊर्जा वहीं से आती है , जैसे कि सारे जिस्म को खून की सप्लाई दिल से होती है ।, हैवान पशु , शीरीं - मीठा
Tuesday, November 30, 2010
Monday, November 29, 2010
One who is in search of truth must dive below . ठिकाना है राम रहीम का हर दिल में रब एक है, ढूंढो तो यहीं मिल जाएगा
अमन के पैग़ाम पर एक से बढ़कर एक ब्लागर आ रहे हैं और अपना कलाम सुना रहे हैं । ताज़ा कलाम श्री राजेंद्र स्वर्णकार जी का है । वे क़लमकार हैं और स्वर्णकार भी , सो वे लिखते भी होंगे तो सोने के ही क़लम से लिखते होंगे तभी तो उनके शब्द अपनी कीमत भी रखते हैं और चमकते भी हैं ।
इसी पोस्ट के अनुरूप मैंने शेर की शक्ल में कमेँट किए , जिन्हें पढ़कर जनाब मासूम साहब ने कुछ पूछा है।
क्या पूछा है इसे या तो उनके ब्लाग पर जाकर देख लीजिए या फिर मैंने जो जवाब उन्हें दिया है उसे पढ़कर आप अंदाज़ा लगा लीजिए कि उन्होंने पूछा क्या होगा ?
मैंने उनसे कहा कि -
@ जनाब मासूम साहब ! मैं लिखने में लगा रहा तो आप लोगों को कम पढ़ पाया , आप लोगों का हक वाजिब था मुझ पर सो आजकल लिखने से ज्यादा पढ़ रहा हूँ ।
टी. वी. के लिए और क्षेत्रीय सिनेमा के लिए भी मैंने कुछ समय लिखा है तब डायरेक्टर श्रीपाल चौधरी जी से बहुत कुछ सीखने को मिला है ।
बीच बीच में गाने क्यों रखे जाते हैं फिल्म में ?
ताकि दर्शकों के दिमाग़ को रिलैक्स मिल जाए ।
यह बात श्रीपाल जी ने बताई है । पता तो मुझे पहले भी थी लेकिन इसकी अहमियत का अहसास नहीं था ।
आजकल रिलैक्स की ख़ातिर गीत ग़ज़ल ही पढ़ रहा हूँ और मैं लिखता उसी पर हूँ जो कि पढ़ता हूँ , यह आप जानते ही हैं ।
मज़ीद अर्थात तद्अधिक
श्रीपाल जी का फ़ोन मेरे पास कल भी आया था और परसों भी । परसों रात जब मैं नेट पर था , तब उन्होंने एक तो मुझे यह ख़ुशख़बरी दी कि 3 साल पुरानी एक रक़म का चेक वे दिल्ली के निर्माता से लेकर लौटे हैं मेरे लिए । मैं जब चाहूं उनसे ले सकता हूं , उनके पास जाकर भी और उन्हें बुलाकर भी ।
दूसरी ख़ुशख़बरी उन्होंने यह दी कि 28 नवंबर 2010 के दैनिक जागरण में डा. रंधीर सिंह का बयान छपा है , उसका शीर्षक यह है - 'वेद हो या कुरआन सबमें एक पैग़ाम'
डा. रंधीर सिंह जी का यह बयान मुझे हीरे मोतियों से भी ज़्यादा क़ीमती लगा क्योंकि एक तो यह अमन का पैग़ाम है और इसकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि इसकी बुनियाद महज़ शायराना ख़याल पर नहीं है जिसमें कि हक़ीक़त के साथ कल्पना मिली होती है, जिसमें सच होता है तो झूठ भी होता है क्योंकि अक्सर शायर लोगों की ख़ुशी ध्यान मेँ रखकर अपना कलाम पेश करता है और उसे पता होता है कि अगर सच कह दिया तो बड़ा वर्ग नाराज़ हो जाएगा ।
सच वही बोल सकता है जिसे पूरे सच का वास्तव में पता हो और उसे किसी का डर भी न हो । ऐसा तो केवल एक रब ही है , इसीलिए वह जो कहता पूरा सच कहता है ।
डा. रंधीर साहब के बयान की सबसे बड़ी ख़ासियत यही है कि अमन का जो पैग़ाम उन्होंने दिया 'वेद-कुरआन' की बुनियाद पर दिया है , जिसके सच होने में सिर्फ वही शक करेगा जो खुद सच्चा न हो ।
श्रीपाल जी वेद कुरआन में मौजूद समान बातों को सामने लाने के लिए आधा घंटे का एक प्रोग्राम भी शूट करना चाहते हैं । किसी स्पाँसर से उनकी बात हो चुकी से, उन्होंने उसके लिए मुझे सिंगल लाईन स्टोरी तैयार करने के लिए कहा है , शनिवार तक ।
शायद अब शनिवार तक मैं ब्लॉगिंग को समय कुछ कम दे पाऊं ।
अंत में फिर से याद दिलाना चाहूंगा कि -
ठिकाना है राम रहीम का हर दिल में
रब एक है, ढूंढो तो यहीं मिल जाएगा
इसी पोस्ट के अनुरूप मैंने शेर की शक्ल में कमेँट किए , जिन्हें पढ़कर जनाब मासूम साहब ने कुछ पूछा है।
क्या पूछा है इसे या तो उनके ब्लाग पर जाकर देख लीजिए या फिर मैंने जो जवाब उन्हें दिया है उसे पढ़कर आप अंदाज़ा लगा लीजिए कि उन्होंने पूछा क्या होगा ?
मैंने उनसे कहा कि -
@ जनाब मासूम साहब ! मैं लिखने में लगा रहा तो आप लोगों को कम पढ़ पाया , आप लोगों का हक वाजिब था मुझ पर सो आजकल लिखने से ज्यादा पढ़ रहा हूँ ।
टी. वी. के लिए और क्षेत्रीय सिनेमा के लिए भी मैंने कुछ समय लिखा है तब डायरेक्टर श्रीपाल चौधरी जी से बहुत कुछ सीखने को मिला है ।
बीच बीच में गाने क्यों रखे जाते हैं फिल्म में ?
ताकि दर्शकों के दिमाग़ को रिलैक्स मिल जाए ।
यह बात श्रीपाल जी ने बताई है । पता तो मुझे पहले भी थी लेकिन इसकी अहमियत का अहसास नहीं था ।
आजकल रिलैक्स की ख़ातिर गीत ग़ज़ल ही पढ़ रहा हूँ और मैं लिखता उसी पर हूँ जो कि पढ़ता हूँ , यह आप जानते ही हैं ।
मज़ीद अर्थात तद्अधिक
श्रीपाल जी का फ़ोन मेरे पास कल भी आया था और परसों भी । परसों रात जब मैं नेट पर था , तब उन्होंने एक तो मुझे यह ख़ुशख़बरी दी कि 3 साल पुरानी एक रक़म का चेक वे दिल्ली के निर्माता से लेकर लौटे हैं मेरे लिए । मैं जब चाहूं उनसे ले सकता हूं , उनके पास जाकर भी और उन्हें बुलाकर भी ।
दूसरी ख़ुशख़बरी उन्होंने यह दी कि 28 नवंबर 2010 के दैनिक जागरण में डा. रंधीर सिंह का बयान छपा है , उसका शीर्षक यह है - 'वेद हो या कुरआन सबमें एक पैग़ाम'
डा. रंधीर सिंह जी का यह बयान मुझे हीरे मोतियों से भी ज़्यादा क़ीमती लगा क्योंकि एक तो यह अमन का पैग़ाम है और इसकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि इसकी बुनियाद महज़ शायराना ख़याल पर नहीं है जिसमें कि हक़ीक़त के साथ कल्पना मिली होती है, जिसमें सच होता है तो झूठ भी होता है क्योंकि अक्सर शायर लोगों की ख़ुशी ध्यान मेँ रखकर अपना कलाम पेश करता है और उसे पता होता है कि अगर सच कह दिया तो बड़ा वर्ग नाराज़ हो जाएगा ।
सच वही बोल सकता है जिसे पूरे सच का वास्तव में पता हो और उसे किसी का डर भी न हो । ऐसा तो केवल एक रब ही है , इसीलिए वह जो कहता पूरा सच कहता है ।
डा. रंधीर साहब के बयान की सबसे बड़ी ख़ासियत यही है कि अमन का जो पैग़ाम उन्होंने दिया 'वेद-कुरआन' की बुनियाद पर दिया है , जिसके सच होने में सिर्फ वही शक करेगा जो खुद सच्चा न हो ।
श्रीपाल जी वेद कुरआन में मौजूद समान बातों को सामने लाने के लिए आधा घंटे का एक प्रोग्राम भी शूट करना चाहते हैं । किसी स्पाँसर से उनकी बात हो चुकी से, उन्होंने उसके लिए मुझे सिंगल लाईन स्टोरी तैयार करने के लिए कहा है , शनिवार तक ।
शायद अब शनिवार तक मैं ब्लॉगिंग को समय कुछ कम दे पाऊं ।
अंत में फिर से याद दिलाना चाहूंगा कि -
ठिकाना है राम रहीम का हर दिल में
रब एक है, ढूंढो तो यहीं मिल जाएगा
Sunday, November 28, 2010
Kasab and Indians मुल्क और क़ौम को पैसे की हवस बर्बाद कर रही है
जम्मू का बाज़ार में |
बाज़ार की एक दुकान से गुज़रते हुए मेरी नज़र टी. वी. पर पड़ी। लोग हैरत से देख रहे थे। हादसे इस मुल्क में बहुत से हुए। बहुत बार तबाहियां आईं लेकिन यह स्टाईल अनोखा था। यक़ीन ही नहीं हो रहा था कि दरिंदगी और वहशत के ऐसे मंज़र, जिन्हें हम टी. वी. पर देख रहे हैं, ये किसी फ़िल्म का नहीं बल्कि न्यूज़ का हिस्सा हैं। पैसे के लिए मारामारी जारी थी। जो विदेशी हमलावर गोलियों से शूटिंग कर रहे थे, वे भी पैसा लेकर आए थे और जो न्यूज़ रिपोर्टर शूट हुए लोगों की शूटिंग अपने कैमरों से कर रहे थे, वे भी पैसे के लिए ही कर रहे थे। वे अपने फ़ायदे के लिए आतंकवादियों को फ़ायदा पहुंचा रहे थे। उनकी लाइव कवरेज से हमलावरों को संवेदनशील जानकारी बराबर मिल रही थी। आतंकवादी भी पैसों की ख़ातिर अपना ज़मीर बेच चुके थे और लोकतंत्र का चैथा स्तंभ भी ग़ैरत से ख़ाली खड़ा था। लगता है कि ये सब अलग अलग मुल्कों के लोग हैं जो अलग अलग धर्मों को मानते हैं लेकिन हक़ीक़त यह है कि इन सब बेग़ैरत और बेज़मीर लोगों का ईमान-धर्म और ख़ुदा एक है और वह है सिर्फ पैसा। पैसे की चाहत में ही लोग विदेशों से हमले करने आ रहे हैं और पैसे की चाहत में ही लोग उनकी मदद कर रहे हैं। मुल्क और क़ौम को पैसे की हवस बर्बाद कर रही है।
हमले के बाद
कहा जा रहा था कि पाकिस्तानी आतंकवादियों ने मुंबई पर हमला कर दिया है। कोई भी व्यक्ति और वर्ग अपने अंदर किसी बुराई की मौजूदगी मानने के लिए तैयार नहीं होता। मेरा मन भी यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि ये हमलावर सचमुच मुसलमान ही हैं। इसी दरम्यान ख़बर आई कि हेमंत करकरे मारे गए। ऐसा लगा कि जो लोग करकरे के खि़लाफ़ थे, उन्होंने ही यह कांड कर डाला, लेकिन शायद मैं ग़लत था।
कसाब को ज़िंदा पकड़ लिया गया। सुरक्षा एजेंसियों की जांच से पहले अख़बार वालों ने जांच करके उसका गांव और पता ठिकाना ढूंढ निकाला। वह सचमुच पाकिस्तानी ही था। जांच हुई, केस चला और कसाब आखि़र फंस गया। अदालत सुबूत देखती है लेकिन सरकार सुबूत के अलावा हालात भी देखती है। अब तो अदालतें भी सुबूत के अलावा बहुत कुछ देखने लगी है। लोग न्याय के लिए उसके पास जाते हैं लेकिन वह देखती है कि अगर न्याय किया तो लोग उसे मानेंगे नहीं तो क्यों न फ़ैसला कर दिया जाए, ऐसा फ़ैसला जिसे दोनों पक्ष मानने पर मजबूर हो जाएं। अदालत से फ़ैसले भी आ जाते हैं तो फिर उन पर अमल नहीं हो पाता। अफ़जल गुरू आज भी इसी दुनिया में है, अदालत से सज़ा ए मौत का फ़ैसला आ जाने के बाद भी। ऐसे हालात में अरूंधति रॉय आदि के ख़िलाफ़ मुक़द्दमा दायर हो जाने से क्या फ़र्क़ पड़ेगा सिवाय इसके कि उन्हें अब ज़्यादा प्रचार मिलेगा, कुछ अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार और मिल जाएंगे, जिससे उनके रूतबे में इज़ाफ़ा ही होगा।
दुश्मन हमला कब करता है ?
जुर्म भी साबित है और मुजरिम भी क़ब्ज़े में है लेकिन सज़ा उनसे अभी बहुत दूर है। नफ़रतें अभी भी ज़िंदा है और साज़िशें भी जारी हैं। पिछली समस्याएं हल नहीं हुईं, नई और बढ़ती जा रही हैं। लोगों में न्याय और सुरक्षा के प्रति यक़ीन कमज़ोर से कमज़ोरतर होता जा रहा है। मुल्क के लिए ये हालात अच्छे नहीं हैं, ये बात सभी जानते और कहते हैं लेकिन कोई यह नहीं बताता कि
ऐसी कौन सी व्यवस्था को लागू किया जाए जो समाज को सभी समस्याओं से मुक्ति दिला सके ?
या फिर हो सकता है कि बहुत से लोग जानते भी हों और कहना न चाहते हों ?
कसाब दुश्मन है। दुश्मन हमला तब करता है जब वह विपक्षी को कमज़ोर पाता है ?
कसाब ने वही किया जो एक दुश्मन को करना चाहिए और अब उसे सज़ा भी वही मिलनी चाहिए जो एक दुश्मन क़ातिल को मिलनी चाहिए। उसे उचित सज़ा देने में देरी भारत को कमज़ोर ज़ाहिर कर रही है। देश को एक कमज़ोर देश के रूप में दुनिया के सामने दिखाने वाले पाकिस्तान से आए दुश्मन नहीं हैं, वे इसी देश के हैं। लोग उन्हें चुनते हैं।
लोग ऐसे प्रतिनिधियों को क्यों चुनते हैं, जो देश को कमज़ोर बनाते हैं ?
घोटाले करने वाले नेता और रिश्वत लेकर ख़ुफ़िया राज़ विदेशियों को बेचने वाले अफ़सरों को भी कसाब के साथ ही जेल में होना चाहिए और जो सज़ा कसाब को मिले उन्हें उससे ज़्यादा नहीं तो कम से कम उसके बराबर तो ज़रूर ही मिलनी चाहिए। ऐसा मेरा मानना है। जो लोग मेरी सही बातों का भी विरोध करते हैं, उन्हें मुझसे असहमत होने का पूरा अधिकार है।
Friday, November 26, 2010
Rape बलात्कार का मूल कारण और सही निवारण क्या है ? - Anwer Jamal
विचारक बहन निर्मला जी और अंशुमाला जी के विचार से मैं सहमत हुँ , जो उन्होंने भाई गिरी जी के ब्लाग 'काम की बातें' पर दिए हैं। गिरी जी ने बलात्कार की एक ताज़ा घटना को लेकर इस समस्या पर चिंता प्रकट की है ।
बलात्कार एक ऐसा जुर्म है जो अपने घटित होने से ज़्यादा घटित होने के बाद दुख देता है, सिर्फ बलात्कार की शिकार लड़की को ही नहीं बल्कि उससे जुड़े हर आदमी को , उसके पूरे परिवार को ।
क़ानून और अदालतें हमेशा से हैं लेकिन यह घिनौना जुर्म कभी ख़त्म न हो सका बल्कि ख़ुद इंसाफ़ के मुहाफ़िज़ों के दामन भी इसके दाग़ से दाग़दार हैं ।
क्योंकि जब इंसान के दिल में ख़ुदा के होने का यक़ीन नहीं होता, उसकी मुहब्बत नहीं होती , उसका ख़ौफ़ नहीं होता तो उसे जुर्म और पाप से दुनिया की कोई ताक़त नहीं रोक सकती, पुलिस तो क्या फ़ौज भी नहीं । वेद कुरआन यही कहते हैं ।
गिरी जी ने जिन सुरक्षा उपायों की बात है , अमेरिका और सभी पश्चिमी देशों में उनसे ज़्यादा उपाय किए जाते हैं लेकिन फिर भी वहां बलात्कार होते हैं ,
क्यों होते हैं ?
यह जानने के लिए देखिए मेरेअंग्रेज़ी ब्लाग पर My favorite websites के लिंक्स
मनु के विधान मेँ बलात्कारी को ऐसे लोहे के पलंग पर बैठाकर मृत्युदण्ड देने का हुक्म है जिसे आग में तपाया गया हो । (मनु 8 : 371)
मैं एक मनुवादी हूँ और मनु के विधान की इस व्यवस्था को उसके शुद्ध और परिष्कृत रूप में आज भी प्रासंगिक मानता हूँ ।
इस व्यवस्था को भुलाकर हिंदू जाति आज ख़ुद को पश्चिमी रंग ढंग में ग़ारत करती जा रही है और तानाकशी उन मुस्लिम देशों पर की जाती है जहाँ बलात्कारियों को आज भी सज़ाए मौत ही दी जाती है जो कि मनु द्वारा प्रतिपादित है ।
यह दण्ड व्यवस्था भी यही बता रही है मनु की वैदिक व्यवस्था और पैग़ंबर मुहम्मद साहब स. की कुरआनी व्यवस्था में मात्र समानता नहीं बल्कि एकत्व है क्योँकि दोनों के ज्ञान का स्रोत एक ही ईश्वर है । एक ईश्वर ने दोनों को एक ही धर्म का बोध कराया । जिन देशों में यह दण्ड व्यवस्था आदर्श रूप में लागू है वहाँ तमाम देशों की अपेक्षा बलात्कार की घटनाएं आज भी कम हैं । ईरान इसकी एक मिसाल है ।
समाज के जो लोग इस आदर्श और मुक्तिदायिनी व्यवस्था की क़ायमी में बाधा बने हुए हैं वे सभी लोग बलात्कारियों को उनके घिनौने जुर्म की सज़ा से बचाने और उनके हौसले बुलंद करने के दोषी हैं । इस तरह परोक्ष रूप से हरेक बलात्कार के पाप में वे भी शरीक हैं । किसी रोज़ ख़ुद उनकी बहन बेटी भी कामातुर हैवानों का शिकार हो सकती है बल्कि हो ही रही है । ... रोज़ाना ।
लेकिन फिर भी सच को स्वीकारते नहीं , ख़ुद को सुधारते नहीं , जबकि ख़ुद को समझते सुधारक हैं ।
क्या यह ख़ुद एक विडंबना नहीं है ?
जो कि बलात्कार से भी बड़ी है क्योंकि यह बलात्कार शरीर के प्रति नहीं बल्कि उस न्याय चेतना के प्रति किया जा रहा है जो कि मालिक ने हरेक आदमी में रखी है । यह बलात्कार ख़ुद से ख़ुद के लिए ख़ुद के द्वारा किया जा रहा है , व्यक्ति द्वारा व्यक्तिगत रूप से और समस्त राष्ट्र द्वारा सामूहिक रूप से । नर्क की आग वास्तव में इन्हीं बलात्कारियों के लिए भड़काई गई है ।
मनु और मुहम्मद की दण्ड व्यवस्था वास्तव में ईश्वर की ओर से है , जो आदमी इस सत्य को जीते जी न मानेगा , मरकर आख़िरकार वह भी मान ही लेगा ।
तो फिर अभी मान लेने में क्या हर्ज है ?
अपने द्वारा नित्य किए जा रहे बलात्कार को छोड़ दीजिए , बलात्कार ख़त्म हो जाएगा और फिर भी जो कोई करेगा वह मारा जाएगा , यह निश्चित है ।
बलात्कार एक ऐसा जुर्म है जो अपने घटित होने से ज़्यादा घटित होने के बाद दुख देता है, सिर्फ बलात्कार की शिकार लड़की को ही नहीं बल्कि उससे जुड़े हर आदमी को , उसके पूरे परिवार को ।
क़ानून और अदालतें हमेशा से हैं लेकिन यह घिनौना जुर्म कभी ख़त्म न हो सका बल्कि ख़ुद इंसाफ़ के मुहाफ़िज़ों के दामन भी इसके दाग़ से दाग़दार हैं ।
क्योंकि जब इंसान के दिल में ख़ुदा के होने का यक़ीन नहीं होता, उसकी मुहब्बत नहीं होती , उसका ख़ौफ़ नहीं होता तो उसे जुर्म और पाप से दुनिया की कोई ताक़त नहीं रोक सकती, पुलिस तो क्या फ़ौज भी नहीं । वेद कुरआन यही कहते हैं ।
गिरी जी ने जिन सुरक्षा उपायों की बात है , अमेरिका और सभी पश्चिमी देशों में उनसे ज़्यादा उपाय किए जाते हैं लेकिन फिर भी वहां बलात्कार होते हैं ,
क्यों होते हैं ?
यह जानने के लिए देखिए मेरेअंग्रेज़ी ब्लाग पर My favorite websites के लिंक्स
मनु के विधान मेँ बलात्कारी को ऐसे लोहे के पलंग पर बैठाकर मृत्युदण्ड देने का हुक्म है जिसे आग में तपाया गया हो । (मनु 8 : 371)
मैं एक मनुवादी हूँ और मनु के विधान की इस व्यवस्था को उसके शुद्ध और परिष्कृत रूप में आज भी प्रासंगिक मानता हूँ ।
इस व्यवस्था को भुलाकर हिंदू जाति आज ख़ुद को पश्चिमी रंग ढंग में ग़ारत करती जा रही है और तानाकशी उन मुस्लिम देशों पर की जाती है जहाँ बलात्कारियों को आज भी सज़ाए मौत ही दी जाती है जो कि मनु द्वारा प्रतिपादित है ।
यह दण्ड व्यवस्था भी यही बता रही है मनु की वैदिक व्यवस्था और पैग़ंबर मुहम्मद साहब स. की कुरआनी व्यवस्था में मात्र समानता नहीं बल्कि एकत्व है क्योँकि दोनों के ज्ञान का स्रोत एक ही ईश्वर है । एक ईश्वर ने दोनों को एक ही धर्म का बोध कराया । जिन देशों में यह दण्ड व्यवस्था आदर्श रूप में लागू है वहाँ तमाम देशों की अपेक्षा बलात्कार की घटनाएं आज भी कम हैं । ईरान इसकी एक मिसाल है ।
समाज के जो लोग इस आदर्श और मुक्तिदायिनी व्यवस्था की क़ायमी में बाधा बने हुए हैं वे सभी लोग बलात्कारियों को उनके घिनौने जुर्म की सज़ा से बचाने और उनके हौसले बुलंद करने के दोषी हैं । इस तरह परोक्ष रूप से हरेक बलात्कार के पाप में वे भी शरीक हैं । किसी रोज़ ख़ुद उनकी बहन बेटी भी कामातुर हैवानों का शिकार हो सकती है बल्कि हो ही रही है । ... रोज़ाना ।
लेकिन फिर भी सच को स्वीकारते नहीं , ख़ुद को सुधारते नहीं , जबकि ख़ुद को समझते सुधारक हैं ।
क्या यह ख़ुद एक विडंबना नहीं है ?
जो कि बलात्कार से भी बड़ी है क्योंकि यह बलात्कार शरीर के प्रति नहीं बल्कि उस न्याय चेतना के प्रति किया जा रहा है जो कि मालिक ने हरेक आदमी में रखी है । यह बलात्कार ख़ुद से ख़ुद के लिए ख़ुद के द्वारा किया जा रहा है , व्यक्ति द्वारा व्यक्तिगत रूप से और समस्त राष्ट्र द्वारा सामूहिक रूप से । नर्क की आग वास्तव में इन्हीं बलात्कारियों के लिए भड़काई गई है ।
मनु और मुहम्मद की दण्ड व्यवस्था वास्तव में ईश्वर की ओर से है , जो आदमी इस सत्य को जीते जी न मानेगा , मरकर आख़िरकार वह भी मान ही लेगा ।
तो फिर अभी मान लेने में क्या हर्ज है ?
अपने द्वारा नित्य किए जा रहे बलात्कार को छोड़ दीजिए , बलात्कार ख़त्म हो जाएगा और फिर भी जो कोई करेगा वह मारा जाएगा , यह निश्चित है ।
The great sin क्यों होते हैं बलात्कार ?
बलात्कार एक ऐसा जुर्म है जो अपने घटित होने से ज़्यादा घटित होने के बाद दुख देता है, सिर्फ बलात्कार की शिकार लड़की को ही नहीं बल्कि उससे जुड़े हर आदमी को , उसके पूरे परिवार को ।
क़ानून और अदालतें हमेशा से हैं लेकिन यह घिनौना जुर्म कभी ख़त्म न हो सका बल्कि इंसाफ़ के इन मुहाफ़िज़ों के दामन भी इसके दाग़ से दाग़दार है ।
क्योंकि जब इंसान के दिल में ख़ुदा के होने का यक़ीन नहीं होता, उसकी मुहब्बत नहीं होती , उसका ख़ौफ़ नहीं होता तो उसे जुर्म और पाप से दुनिया की कोई ताक़त नहीं रोक सकती, पुलिस तो क्या फ़ौज भी नहीं । वेद कुरआन यही कहते हैं ।
क़ानून और अदालतें हमेशा से हैं लेकिन यह घिनौना जुर्म कभी ख़त्म न हो सका बल्कि इंसाफ़ के इन मुहाफ़िज़ों के दामन भी इसके दाग़ से दाग़दार है ।
क्योंकि जब इंसान के दिल में ख़ुदा के होने का यक़ीन नहीं होता, उसकी मुहब्बत नहीं होती , उसका ख़ौफ़ नहीं होता तो उसे जुर्म और पाप से दुनिया की कोई ताक़त नहीं रोक सकती, पुलिस तो क्या फ़ौज भी नहीं । वेद कुरआन यही कहते हैं ।
Thursday, November 25, 2010
Father Manu मैं चैलेंज करता हूँ कि पूरी दुनिया में कोई एक ही आदमी यह साबित कर दे कि मनु ने ऊँच नीच और ज़ुल्म की शिक्षा दी है , है कोई एक भी विद्वान ? Anwer Jamal
'धर्म उतना जोड़ता नहीं जितना कि तोड़ता है'
आज यह शीर्षक ब्लाग एग्रीगेटर पर मेरी नज़र से गुज़रा । ब्लॉग पर जाकर पूरा लेख पढ़ा और कमेन्ट भी दिया । उसी कमेन्ट को पूरा किया तो यह पोस्ट प्रकट हुई -
आपका तर्कपूर्ण और रोचक लेख पढ़ा ।
देशवासियों में आज भी वैज्ञानिक चेतना का अभाव है , ठीक ऐसे ही उनमें धार्मिक चेतना भी लुप्तप्रायः है ।
धर्म की शास्त्रीय परिभाषा पर उन्हें परख कर देख लीजिए ।
यह परिभाषा भी वेद पुराण या मनु स्मृति से ही ले लीजिए ।
अंधविश्वास और जड़ता धर्म नहीं होती । वाल्टेयर , बुद्ध और महावीर का विद्रोह जायज़ था । समाज के प्रवाह और विकास में जो भी चीज़ बाधा बनती है उसे अंततः विदा होना ही पड़ता है । तत्कालीन हालात ऐसे ही थे ।
लेकिन धर्म आज भी दुनिया के हर समाज में अपना मक़ाम बनाए हुए है तो केवल इसलिए कि इंसान के अस्तित्व और उसके मकसद के बारे में तमाम तरक्की के बावजूद आज भी विज्ञान आज भी कुछ बता पाने में असमर्थ है ।
विज्ञान का विषय केवल ज्ञानेन्द्रियों की पकड़ में आने वाली चीजों का निरीक्षण परीक्षण करके निष्कर्ष निकालना है लेकिन विज्ञान तो अपने दायरे तक में बेबस पाया जाता है ।
1. आखिर मैं हूँ कौन ?
2. मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं ?
3. क्या सही है और क्या ग़लत है ?
4. किस कर्म का फल क्या है ? और वह कब और किस रूप में मुझे मिलेगा ?
ये वे प्रश्न हैं जो हरेक के मन में कौंधते रहते हैं , उनके मन में भी जिन्होंने धर्म के विकृत रूप के प्रति विद्रोह किया । उन सभी लोगों ने भी इन प्रश्नों को अपने विचारानुसार हल करने की कोशिश की । फलतः अनेक दर्शन वजूद में आये । दुनिया को बांटने वाले वास्तव में यही दर्शन हैं धर्म नहीं ।
धर्म के अभाव में लोगों ने दर्शनों को अपनाया और बहुत से दर्शनों को अपनाने का यह हुआ कि मानव जाति बहुत से मतों में बंट गई । बांटने वाली चीज़ दर्शन है धर्म नहीं ।
पहले सब एकमन थे बाद में बंटकर अनेक हुए और फिर आपस में लड़े कि श्रेष्ठ कौन है ?
ज़मीन और उसके साधनों पर कब्जे की हवस में एक दूसरे का खून बहाया । इंसानियत को तबाह करने वाली चीज यही हवस है धर्म नहीं ।
ये सभी दर्शन आज भी समाज में मौजूद हैं , यह हवस आज भी इंसान में मौजूद है । नतीजा यह है कि तबाही के सारे कारण और साधन आज भी मौजूद हैं और खुद तबाह होने और करने के लिए इंसान भी ।
ऐसे आदमियों के हाथों विज्ञान का विकास होने का नतीजा यह हुआ कि उन्होंने सभी वैज्ञानिक साधनों को अपनी हवस पूरा करने का जरिया बना लिया और नतीजा यह हुआ कि इंसान के ख़मीर से लेकर आबो-हवा तक हर चीज़ का संतुलन तबाह होकर रह गया है । मनु का पहले विरोध किया था तो जल प्रलय हुई थी और अब फिर लोगों ने मनु को भुलाकर, उनकी निंदा करके जीने की कोशिश की तो अब फिर जल प्रलय होगी . ग्लेशियर पिघल रहे हैं . समुद्र के किनारे बसे शहर अब डूबने वाले हैं . समुद्रों का जल स्टार ४ फुट तक ऊँचा होने वाला है . और भी प्राकृतिक आपदाएं आने वाली हैं . गा लो , नाच लो और तीस साल तक. यह बात वैज्ञानिक खुद कह रहे हैं . कह रहे हैं की हम दुनिया नहीं बचा सकते , हाँ कोई और ग्रह मिल जाये तो शायद भागने में सफलता मिल जाये . अन्तरिक्ष में बसने लायक ग्रह ढूंढ रहे हैं वैज्ञानिक . मनु की रीति से हट कर जीने वाला जब धरती में न बच सका तो आसमान में कैसे बचेगा ?
बचने का मार्ग केवल मनु का मार्ग है , यह सत्य है, बिलकुल अंतिम सत्य . कोई वैज्ञानिक और कोई दार्शनिक अब न ख़ुद बचेगा और न ही दुनिया वालों को बचा सकेगा. जब तबाही बिलकुल सर पर आ जाएगी तब लोग पश्चात्ताप करेंगे लेकिन आज गाफ़िल है अपने अंजाम से , अफ़सोस .
अतः सिद्ध हुआ कि आदमी धर्म से कोरा हो तो विज्ञान भी उसका विनाश ही करेगा न कि कल्याण । मूल है धर्म , इस मूल से कटने के बाद न तो विज्ञान और दर्शन कुछ हैं और न ही खुद इंसान ।
शुभ गुणों से युक्त होकर सार्थक रीति से जीने का नाम धर्म है । मेरे पिता मनु ने यही रीति सिखाई थी ।
मनु महाराज के निष्कलंक होने के तीन प्रमाण
मनु को बेवजह कोसना आज बुद्धिजीवियों का प्रिय शग़ल बन चुका है , जबकि ऐतिहासिक और तार्किक रूप से यह सिद्ध है कि आज की मनु स्मृति मनु के काल जितनी प्राचीन नहीं है ।
दूसरी बात यह है कि आर्य समाजी और सनातनी स्कॉलर दोनों ही मनु स्मृति को प्रक्षिप्त मानते हैं ।
तीसरी बात यह है कि जो श्रद्धालु इसे प्रक्षिप्त नहीं भी मानते वे भी यह देख सकते हैं कि मनु स्मृति में जितनी भी आपत्तिजनक चीजें हैं वे सब 63 वें श्लोक के बाद हैं , जहाँ से भृगु जी व्यवस्था देना शुरू करते हैं ।
शुरू के सभी 62 श्लोक भी मनु जी द्वारा नहीं कहे गए हैं । इसके बावजूद उनमें कहीं एक रत्ती भी जुल्म की तालीम या प्रेरणा नहीं है क्योंकि उनमें केवल वंशावली आदि का बयान है । जो बात महर्षि मनु ने कही ही नहीं उसका इल्ज़ाम उन पर धरना कैसे जायज़ कहा जा सकता है ?
अन्यथा उन्हें केवल पूर्वाग्रही माना जाएगा न कि विद्वान । अपुष्ट बातें कहना विद्वानों को शोभा नहीं देता ।
जो कुछ मनु वास्तव में सिखाकर गए थे, उसे तो कब का भुलाया जा चुका लेकिन कुछ चिन्ह ऐसे हैं जिन्हें देखकर आज भी मनु याद आते हैं और उनका धर्म भी । मनु मेरे मन में रहते हैं और मेरा मन दुखी होता है उनकी निंदा होते देखकर । मनु की महानता का परिचय पाने के लिए धर्म का सच्चा बोध होना जरूरी है । यह बोध केवल उन लोगों को होता है जो जीवन और उसके मकसद के प्रति सचमुच गंभीर हों ।
Eat, drink and be marry अमीर गरीब सबका तरीका आज प्रायः यही है । जीवन के मकसद को पाने के बजाए साधनों को पाने और बढ़ाने में लगे हैं । जिन्हें मिल गए हैं वे दूसरों पर छा जाने में लगे हैं और जिन्हें ये साधन कम मिले हैं वे कमी का रोना रोने में लगे हैं या फिर उनकी छीन झपट में लगे हैं ।
दुनिया को तोड़ने वाली हैं लोगों की नीयतेँ और नीतियां, और दोष दे रहे हैं मनु को और धर्म को ।
आज यह शीर्षक ब्लाग एग्रीगेटर पर मेरी नज़र से गुज़रा । ब्लॉग पर जाकर पूरा लेख पढ़ा और कमेन्ट भी दिया । उसी कमेन्ट को पूरा किया तो यह पोस्ट प्रकट हुई -
आपका तर्कपूर्ण और रोचक लेख पढ़ा ।
देशवासियों में आज भी वैज्ञानिक चेतना का अभाव है , ठीक ऐसे ही उनमें धार्मिक चेतना भी लुप्तप्रायः है ।
धर्म की शास्त्रीय परिभाषा पर उन्हें परख कर देख लीजिए ।
यह परिभाषा भी वेद पुराण या मनु स्मृति से ही ले लीजिए ।
अंधविश्वास और जड़ता धर्म नहीं होती । वाल्टेयर , बुद्ध और महावीर का विद्रोह जायज़ था । समाज के प्रवाह और विकास में जो भी चीज़ बाधा बनती है उसे अंततः विदा होना ही पड़ता है । तत्कालीन हालात ऐसे ही थे ।
लेकिन धर्म आज भी दुनिया के हर समाज में अपना मक़ाम बनाए हुए है तो केवल इसलिए कि इंसान के अस्तित्व और उसके मकसद के बारे में तमाम तरक्की के बावजूद आज भी विज्ञान आज भी कुछ बता पाने में असमर्थ है ।
विज्ञान का विषय केवल ज्ञानेन्द्रियों की पकड़ में आने वाली चीजों का निरीक्षण परीक्षण करके निष्कर्ष निकालना है लेकिन विज्ञान तो अपने दायरे तक में बेबस पाया जाता है ।
पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति कैसे हुई ?
यह मूल प्रश्न भी वह आज तक न सुलझा पाया , तब वह उन सवालों के जवाब कैसे दे सकता है जिनका विषय चखने सूंघने और सुनने के दायरे से ही बाहर है ? 1. आखिर मैं हूँ कौन ?
2. मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं ?
3. क्या सही है और क्या ग़लत है ?
4. किस कर्म का फल क्या है ? और वह कब और किस रूप में मुझे मिलेगा ?
ये वे प्रश्न हैं जो हरेक के मन में कौंधते रहते हैं , उनके मन में भी जिन्होंने धर्म के विकृत रूप के प्रति विद्रोह किया । उन सभी लोगों ने भी इन प्रश्नों को अपने विचारानुसार हल करने की कोशिश की । फलतः अनेक दर्शन वजूद में आये । दुनिया को बांटने वाले वास्तव में यही दर्शन हैं धर्म नहीं ।
धर्म के अभाव में लोगों ने दर्शनों को अपनाया और बहुत से दर्शनों को अपनाने का यह हुआ कि मानव जाति बहुत से मतों में बंट गई । बांटने वाली चीज़ दर्शन है धर्म नहीं ।
पहले सब एकमन थे बाद में बंटकर अनेक हुए और फिर आपस में लड़े कि श्रेष्ठ कौन है ?
ज़मीन और उसके साधनों पर कब्जे की हवस में एक दूसरे का खून बहाया । इंसानियत को तबाह करने वाली चीज यही हवस है धर्म नहीं ।
ये सभी दर्शन आज भी समाज में मौजूद हैं , यह हवस आज भी इंसान में मौजूद है । नतीजा यह है कि तबाही के सारे कारण और साधन आज भी मौजूद हैं और खुद तबाह होने और करने के लिए इंसान भी ।
ऐसे आदमियों के हाथों विज्ञान का विकास होने का नतीजा यह हुआ कि उन्होंने सभी वैज्ञानिक साधनों को अपनी हवस पूरा करने का जरिया बना लिया और नतीजा यह हुआ कि इंसान के ख़मीर से लेकर आबो-हवा तक हर चीज़ का संतुलन तबाह होकर रह गया है । मनु का पहले विरोध किया था तो जल प्रलय हुई थी और अब फिर लोगों ने मनु को भुलाकर, उनकी निंदा करके जीने की कोशिश की तो अब फिर जल प्रलय होगी . ग्लेशियर पिघल रहे हैं . समुद्र के किनारे बसे शहर अब डूबने वाले हैं . समुद्रों का जल स्टार ४ फुट तक ऊँचा होने वाला है . और भी प्राकृतिक आपदाएं आने वाली हैं . गा लो , नाच लो और तीस साल तक. यह बात वैज्ञानिक खुद कह रहे हैं . कह रहे हैं की हम दुनिया नहीं बचा सकते , हाँ कोई और ग्रह मिल जाये तो शायद भागने में सफलता मिल जाये . अन्तरिक्ष में बसने लायक ग्रह ढूंढ रहे हैं वैज्ञानिक . मनु की रीति से हट कर जीने वाला जब धरती में न बच सका तो आसमान में कैसे बचेगा ?
बचने का मार्ग केवल मनु का मार्ग है , यह सत्य है, बिलकुल अंतिम सत्य . कोई वैज्ञानिक और कोई दार्शनिक अब न ख़ुद बचेगा और न ही दुनिया वालों को बचा सकेगा. जब तबाही बिलकुल सर पर आ जाएगी तब लोग पश्चात्ताप करेंगे लेकिन आज गाफ़िल है अपने अंजाम से , अफ़सोस .
अतः सिद्ध हुआ कि आदमी धर्म से कोरा हो तो विज्ञान भी उसका विनाश ही करेगा न कि कल्याण । मूल है धर्म , इस मूल से कटने के बाद न तो विज्ञान और दर्शन कुछ हैं और न ही खुद इंसान ।
शुभ गुणों से युक्त होकर सार्थक रीति से जीने का नाम धर्म है । मेरे पिता मनु ने यही रीति सिखाई थी ।
मनु महाराज के निष्कलंक होने के तीन प्रमाण
मनु को बेवजह कोसना आज बुद्धिजीवियों का प्रिय शग़ल बन चुका है , जबकि ऐतिहासिक और तार्किक रूप से यह सिद्ध है कि आज की मनु स्मृति मनु के काल जितनी प्राचीन नहीं है ।
दूसरी बात यह है कि आर्य समाजी और सनातनी स्कॉलर दोनों ही मनु स्मृति को प्रक्षिप्त मानते हैं ।
तीसरी बात यह है कि जो श्रद्धालु इसे प्रक्षिप्त नहीं भी मानते वे भी यह देख सकते हैं कि मनु स्मृति में जितनी भी आपत्तिजनक चीजें हैं वे सब 63 वें श्लोक के बाद हैं , जहाँ से भृगु जी व्यवस्था देना शुरू करते हैं ।
शुरू के सभी 62 श्लोक भी मनु जी द्वारा नहीं कहे गए हैं । इसके बावजूद उनमें कहीं एक रत्ती भी जुल्म की तालीम या प्रेरणा नहीं है क्योंकि उनमें केवल वंशावली आदि का बयान है । जो बात महर्षि मनु ने कही ही नहीं उसका इल्ज़ाम उन पर धरना कैसे जायज़ कहा जा सकता है ?
मैं गर्व नहीं करता क्योंकि गर्व करना जायज नहीं है लेकिन मैं चैलेंज जरूर करूँगा कि पूरी दुनिया में कोई एक ही आदमी यह साबित कर दे कि जुल्म की तालीम मनु देकर गए ।
और अगर वे साबित न कर सकें तो फिर मेरे पिता मनु को इल्ज़ाम देना और कोसना छोड़ दें, तुरंत ।अन्यथा उन्हें केवल पूर्वाग्रही माना जाएगा न कि विद्वान । अपुष्ट बातें कहना विद्वानों को शोभा नहीं देता ।
जो कुछ मनु वास्तव में सिखाकर गए थे, उसे तो कब का भुलाया जा चुका लेकिन कुछ चिन्ह ऐसे हैं जिन्हें देखकर आज भी मनु याद आते हैं और उनका धर्म भी । मनु मेरे मन में रहते हैं और मेरा मन दुखी होता है उनकी निंदा होते देखकर । मनु की महानता का परिचय पाने के लिए धर्म का सच्चा बोध होना जरूरी है । यह बोध केवल उन लोगों को होता है जो जीवन और उसके मकसद के प्रति सचमुच गंभीर हों ।
Eat, drink and be marry अमीर गरीब सबका तरीका आज प्रायः यही है । जीवन के मकसद को पाने के बजाए साधनों को पाने और बढ़ाने में लगे हैं । जिन्हें मिल गए हैं वे दूसरों पर छा जाने में लगे हैं और जिन्हें ये साधन कम मिले हैं वे कमी का रोना रोने में लगे हैं या फिर उनकी छीन झपट में लगे हैं ।
दुनिया को तोड़ने वाली हैं लोगों की नीयतेँ और नीतियां, और दोष दे रहे हैं मनु को और धर्म को ।
क्या यही है आधुनिक दुनिया के बुद्धिजीवियों की नैतिक चेतना और उनका इंसाफ़ ?
Labels:
'नैतिक चेतना',
'मनु स्मृति',
दर्शन,
बुद्ध,
ब्लॉग,
महावीर,
वाल्टेयर,
विज्ञान
A thought about Father Manu जुल्म पिताश्री मनु ने किया या उनकी संतान उन पर करती आ रही है ? Anwer Jamal
आज 'धर्म उतना जोड़ता नहीं जितना कि दौड़ना है' शीर्षक ब्लाग एग्रीगेटर पर नज़र से गुज़रा । पूरा लेख पढ़ा और कमेँट भी दिया । उसी कमेँट को पूरा किया तो यह पोस्ट प्रकट हुई -
आपका तर्कपूर्ण और रोचक लेख पढ़ा ।
देशवासियों में आज भी वैज्ञानिक चेतना का अभाव है , ठीक ऐसे ही उनमें धार्मिक चेतना भी लुप्तप्रायः है ।
धर्म की शास्त्रीय परिभाषा पर उन्हें परख कर देख लीजिए ।
यह परिभाषा भी वेद पुराण या मनु स्मृति से ही ले लीजिए ।
अंधविश्वास और जड़ता धर्म नहीं होती । वाल्टेयर , बुद्ध और महावीर का विद्रोह जायज़ था । समाज के प्रवाह और विकास में जो भी चीज़ बाधा बनती है उसे अंततः विदा होना ही पड़ता है । तत्कालीन हालात ऐसे ही थे ।
लेकिन धर्म आज भी दुनिया के हर समाज में अपना मक़ाम बनाए हुए है तो केवल इसलिए कि इंसान के अस्तित्व और उसके मकसद के बारे में तमाम तरक्की के बावजूद आज भी विज्ञान आज भी कुछ बता पाने में असमर्थ है ।
विज्ञान का क्षेत्र केवल ज्ञानेँद्रियों की पकड़ मेँ आने वाली चीजों का निरीक्षण परीक्षण करके निष्कर्ष निकालना है लेकिन वह तो अपने दायरे तक में बेबस पाया जाता है ।
पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति कैसे हुई ?
यह मूल प्रश्न भी वह आज तक न सुलझा पाया , तब वह उन सवालों के जवाब कैसे दे सकता है जिनका विषय चखने सूंघने और सुनने के दायरे से ही बाहर है ?
1. आखिर मैं हूँ कौन ?
2. मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं ?
3. क्या सही है और क्या ग़लत है ?
4. किस कर्म का फल क्या है ? और वह कब और किस रूप में मुझे मिलेगा ?
ये वे प्रश्न हैं जो हरेक के मन में कौंधते रहते हैं , उनके मन में भी जिन्होंने धर्म के विकृत रूप के प्रति विद्रोह किया । उन सभी लोगों ने भी इन प्रश्नों को अपने विचारानुसार हल करने की कोशिश की । फलतः अनेक दर्शन वजूद में आये । दुनिया को बांटने वाले वास्तव में यही दर्शन हैं धर्म नहीं ।
धर्म के अभाव में लोगों ने दर्शनों को अपनाया और बहुत से दर्शनों को अपनाने का यह हुआ कि मानव जाति बहुत से मतों में बंट गई । बांटने वाली चीज़ दर्शन है धर्म नहीं ।
पहले सब एकमन थे बाद में बंटकर अनेक हुए और फिर आपस में लड़े कि श्रेष्ठ कौन है ?
ज़मीन और उसके साधनों पर कब्जे की हवस में एक दूसरे का खून बहाया । इंसानियत को तबाह करने वाली चीज यही हवस है धर्म नहीं ।
ये सभी दर्शन आज भी समाज में मौजूद हैं , यह हवस आज भी इंसान में मौजूद है । नतीजा यह है कि तबाही के सारे कारण और साधन आज भी मौजूद हैं और खुद तबाह होने और करने के लिए इंसान भी ।
ऐसे आदमियों के हाथों विज्ञान का विकास होने का नतीजा यह हुआ कि उन्होंने सभी वैज्ञानिक साधनों को अपनी हवस पूरा करने का जरिया बना लिया और नतीजा यह हुआ कि इंसान के ख़मीर से लेकर आबो-हवा तक हर चीज़ का संतुलन तबाह होकर रह गया है ।
मनु को बेवजह कोसना आज बुद्धिजीवियों का प्रिय शग़ल बन चुका है , जबकि ऐतिहासिक और तार्किक रूप से यह सिद्ध है कि आज की मनु स्मृति मनु के काल जितनी प्राचीन नहीं है ।
दूसरी बात यह है कि आर्य समाजी और सनातनी स्कॉलर दोनों ही मनु स्मृति को प्रक्षिप्त मानते हैं ।
तीसरी बात यह है कि जो श्रद्धालु इसे प्रक्षिप्त नहीं भी मानते वे भी यह देख सकते हैं कि मनु स्मृति में जितनी भी आपत्तिजनक चीजें हैं वे सब 63 वें श्लोक के बाद हैं , जहाँ से भृगु जी व्यवस्था देना शुरू करते हैं ।
शुरू के सभी 62 श्लोक भी मनु जी द्वारा नहीं कहे गए हैं । इसके बावजूद उनमें कहीं एक रत्ती भी जुल्म की तालीम या प्रेरणा नहीं है क्योंकि उनमें केवल वंशावली आदि का बयान है ।
मैं गर्व नहीं करता क्योंकि गर्व करना जायज नहीं है लेकिन मैं चैलेंज जरूर करूँगा कि पूरी दुनिया में कोई एक ही आदमी यह साबित कर दे कि जुल्म की तालीम मनु देकर गए ।
और अगर साबित न कर सकें तो फिर मेरे पिता मनु को इल्ज़ाम देना और कोसना छोड़ दें, तुरंत ।
अन्यथा उन्हें केवल पूर्वाग्रही माना जाएगा न कि विद्वान । अपुष्ट बातें कहना विद्वानों को शोभा नहीं देता ।
जो कुछ मनु वास्तव में सिखाकर गए थे उसे तो कब का भुलाया जा चुका लेकिन कुछ चिन्ह ऐसे हैं जिन्हें देखकर आज भी मनु याद आते हैं और उनका धर्म भी । मनु मेरे मन में रहते हैं और मेरा मन दुखी होता है उनकी निंदा होते देखकर ।
मनु की महानता का परिचय पाने के लिए धर्म का सच्चा बोध होना जरूरी है । यह बोध केवल उन लोगों को होता है जो जीवन और उसके मकसद के प्रति सचमुच गंभीर हों ।
Eat, drink and be marry अमीर गरीब सबका तरीका आज प्रायः यही है । जीवन के मकसद को पाने के बजाए साधनों को पाने और बढ़ाने में लगे हैं । जिन्हें मिल गए हैं वे दूसरों पर छा जाने में लगे हैं और जिन्हें ये साधन कम मिले हैं वे कमी का रोना रोने में लगे हैं , उनकी छीन झपट में लगे हैं ।
दुनिया को तोड़ने वाली हैं लोगों की नीयतेँ और नीतियां, और दोष दे रहे हैं मनु को और धर्म को ।
आपका तर्कपूर्ण और रोचक लेख पढ़ा ।
देशवासियों में आज भी वैज्ञानिक चेतना का अभाव है , ठीक ऐसे ही उनमें धार्मिक चेतना भी लुप्तप्रायः है ।
धर्म की शास्त्रीय परिभाषा पर उन्हें परख कर देख लीजिए ।
यह परिभाषा भी वेद पुराण या मनु स्मृति से ही ले लीजिए ।
अंधविश्वास और जड़ता धर्म नहीं होती । वाल्टेयर , बुद्ध और महावीर का विद्रोह जायज़ था । समाज के प्रवाह और विकास में जो भी चीज़ बाधा बनती है उसे अंततः विदा होना ही पड़ता है । तत्कालीन हालात ऐसे ही थे ।
लेकिन धर्म आज भी दुनिया के हर समाज में अपना मक़ाम बनाए हुए है तो केवल इसलिए कि इंसान के अस्तित्व और उसके मकसद के बारे में तमाम तरक्की के बावजूद आज भी विज्ञान आज भी कुछ बता पाने में असमर्थ है ।
विज्ञान का क्षेत्र केवल ज्ञानेँद्रियों की पकड़ मेँ आने वाली चीजों का निरीक्षण परीक्षण करके निष्कर्ष निकालना है लेकिन वह तो अपने दायरे तक में बेबस पाया जाता है ।
पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति कैसे हुई ?
यह मूल प्रश्न भी वह आज तक न सुलझा पाया , तब वह उन सवालों के जवाब कैसे दे सकता है जिनका विषय चखने सूंघने और सुनने के दायरे से ही बाहर है ?
1. आखिर मैं हूँ कौन ?
2. मुझे क्या करना चाहिए और क्या नहीं ?
3. क्या सही है और क्या ग़लत है ?
4. किस कर्म का फल क्या है ? और वह कब और किस रूप में मुझे मिलेगा ?
ये वे प्रश्न हैं जो हरेक के मन में कौंधते रहते हैं , उनके मन में भी जिन्होंने धर्म के विकृत रूप के प्रति विद्रोह किया । उन सभी लोगों ने भी इन प्रश्नों को अपने विचारानुसार हल करने की कोशिश की । फलतः अनेक दर्शन वजूद में आये । दुनिया को बांटने वाले वास्तव में यही दर्शन हैं धर्म नहीं ।
धर्म के अभाव में लोगों ने दर्शनों को अपनाया और बहुत से दर्शनों को अपनाने का यह हुआ कि मानव जाति बहुत से मतों में बंट गई । बांटने वाली चीज़ दर्शन है धर्म नहीं ।
पहले सब एकमन थे बाद में बंटकर अनेक हुए और फिर आपस में लड़े कि श्रेष्ठ कौन है ?
ज़मीन और उसके साधनों पर कब्जे की हवस में एक दूसरे का खून बहाया । इंसानियत को तबाह करने वाली चीज यही हवस है धर्म नहीं ।
ये सभी दर्शन आज भी समाज में मौजूद हैं , यह हवस आज भी इंसान में मौजूद है । नतीजा यह है कि तबाही के सारे कारण और साधन आज भी मौजूद हैं और खुद तबाह होने और करने के लिए इंसान भी ।
ऐसे आदमियों के हाथों विज्ञान का विकास होने का नतीजा यह हुआ कि उन्होंने सभी वैज्ञानिक साधनों को अपनी हवस पूरा करने का जरिया बना लिया और नतीजा यह हुआ कि इंसान के ख़मीर से लेकर आबो-हवा तक हर चीज़ का संतुलन तबाह होकर रह गया है ।
अतः सिद्ध हुआ कि आदमी धर्म से कोरा हो तो विज्ञान भी उसका विनाश ही करेगा न कि कल्याण ।
मूल है धर्म , इस मूल से कटने के बाद न तो विज्ञान और दर्शन कुछ हैं और न ही खुद इंसान ।
शुभ गुणों से युक्त होकर सार्थक रीति से जीने का नाम धर्म है । मेरे पिता मनु ने यही रीति सिखाई थी ।मनु को बेवजह कोसना आज बुद्धिजीवियों का प्रिय शग़ल बन चुका है , जबकि ऐतिहासिक और तार्किक रूप से यह सिद्ध है कि आज की मनु स्मृति मनु के काल जितनी प्राचीन नहीं है ।
दूसरी बात यह है कि आर्य समाजी और सनातनी स्कॉलर दोनों ही मनु स्मृति को प्रक्षिप्त मानते हैं ।
तीसरी बात यह है कि जो श्रद्धालु इसे प्रक्षिप्त नहीं भी मानते वे भी यह देख सकते हैं कि मनु स्मृति में जितनी भी आपत्तिजनक चीजें हैं वे सब 63 वें श्लोक के बाद हैं , जहाँ से भृगु जी व्यवस्था देना शुरू करते हैं ।
शुरू के सभी 62 श्लोक भी मनु जी द्वारा नहीं कहे गए हैं । इसके बावजूद उनमें कहीं एक रत्ती भी जुल्म की तालीम या प्रेरणा नहीं है क्योंकि उनमें केवल वंशावली आदि का बयान है ।
मैं गर्व नहीं करता क्योंकि गर्व करना जायज नहीं है लेकिन मैं चैलेंज जरूर करूँगा कि पूरी दुनिया में कोई एक ही आदमी यह साबित कर दे कि जुल्म की तालीम मनु देकर गए ।
और अगर साबित न कर सकें तो फिर मेरे पिता मनु को इल्ज़ाम देना और कोसना छोड़ दें, तुरंत ।
अन्यथा उन्हें केवल पूर्वाग्रही माना जाएगा न कि विद्वान । अपुष्ट बातें कहना विद्वानों को शोभा नहीं देता ।
जो कुछ मनु वास्तव में सिखाकर गए थे उसे तो कब का भुलाया जा चुका लेकिन कुछ चिन्ह ऐसे हैं जिन्हें देखकर आज भी मनु याद आते हैं और उनका धर्म भी । मनु मेरे मन में रहते हैं और मेरा मन दुखी होता है उनकी निंदा होते देखकर ।
मनु की महानता का परिचय पाने के लिए धर्म का सच्चा बोध होना जरूरी है । यह बोध केवल उन लोगों को होता है जो जीवन और उसके मकसद के प्रति सचमुच गंभीर हों ।
Eat, drink and be marry अमीर गरीब सबका तरीका आज प्रायः यही है । जीवन के मकसद को पाने के बजाए साधनों को पाने और बढ़ाने में लगे हैं । जिन्हें मिल गए हैं वे दूसरों पर छा जाने में लगे हैं और जिन्हें ये साधन कम मिले हैं वे कमी का रोना रोने में लगे हैं , उनकी छीन झपट में लगे हैं ।
दुनिया को तोड़ने वाली हैं लोगों की नीयतेँ और नीतियां, और दोष दे रहे हैं मनु को और धर्म को ।
क्या यही है आधुनिक दुनिया के बुद्धिजीवियों की नैतिक चेतना और उनका इंसाफ़ ?
Labels:
'धर्म की शास्त्रीय परिभाषा',
law,
Manu,
rituals,
vivah
Tuesday, November 23, 2010
Hindi writers मदर इंडिया की सच्ची सेवा
बिना व्यवस्था को बेहतर बनाए देशवासियों का भला होने वाला नहीं , यह तय है ।
मेरे शफ़ीक़ बुजुर्ग आदरणीय जनाब सतीश सकसेना जी ! आपने चिंता प्रकट की है कि उर्दू जानने वाले जो मुस्लिम लेखक हिंदी में लिख रहे हैं, उनकी योग्यता के मुताबिक जायज मक़ाम उन्हें नहीं मिल पा रहा है ।
आपकी चिंता जायज़ है और उनकी प्रति आपकी फ़िक्रमंदी भी सराहनीय है , लेकिन यह बात भी क़ाबिले ग़ौर है कि बहुत से ऐसे हिंदी लेखक भी हैं जो अपना जायज़ मक़ाम न पा सके हालाँकि वे हिंदू हैं ।
जब इस देश में हिंदी के हिंदू लेखक ही यथोचित सम्मान से वंचित हैं तो फिर मुसलमान लेखकों के साथ न्याय कैसे हो पाएगा ?
इससे भी ज्यादा क़ाबिले फ़िक्र बात यह है कि लेखकों की दुर्दशा की बात तो जाने दीजिए , खुद हिंदी को ही कौन सा उसका जायज़ मक़ाम मिल गया है ?
इस देश की बेटी होने के बावजूद हिंदी आज भी उपेक्षित है , हिंदी की दशा शोचनीय है ।
हक़ीक़त यह है कि एक भ्रष्ट व्यवस्था से किसी को भी कुछ मिला ही नहीं करता , न हिंदू को और न ही मुस्लिम को ।
मिलता है केवल उन्हें जो व्यवस्था की तरह खुद भी भ्रष्ट होते हैं । आज भ्रष्ट नेता, डाक्टर, इंजीनियर और जज 'आदर्श घोटाले' कर रहे हैं । IAS ऑफ़िसर्स देश के राज़ दुश्मनों को बेच रहे हैं ।
बिना व्यवस्था को बेहतर बनाए देशवासियों का भला होने वाला नहीं , यह तय है ।
देश की व्यवस्था को बेहतर कैसे बनाया जाए ?
बुद्धिजीवी इस पर विचार करें तो इसे बौद्धिक ऊर्जा का सही उपयोग माना जाएगा ।
Labels:
'Mother India',
'मदर इंडिया',
घोटाला,
जासूस,
लेखक,
लेखा,
सेवा
Sunday, November 21, 2010
Innocent woman अमन का पैग़ाम और औरत का मक़ाम ?
दो लेख नज़र से गुजरे , दोनों के सब्जेक्ट अलग । एक का विषय औरत और दूसरे का धर्म ।
दोनों पर ही चल रही है बहस गरमागर्म ।
और तब लफ़्ज़ों में ढल गए मेरे अहसास
देखिए अमन के पैग़ाम पर मेरा पैग़ाम
@ सोने की चिड़िया अर्थात प्राचीन भारत जी ! औरत की तरक्की औरत होने में है न कि मर्द बनने की कोशिश में, अपनी हया ग़ैरत और आबरू गंवाकर माल कमाने में।
कभी हमारे ब्लाग पर भी पधारकर उसे भी सुनहरा कर दें ।
विचित्र ज्ञान पहेली
क्या आप जानना चाहेंगे कि मैंने निम्न सिद्धांत किसके ब्लाग पर प्रतिपादित किया ?
1, भारतीय नागरिक जी से पूरी तरह सहमत ।
2, कमी कभी धर्म नहीं होती इसीलिए धर्म में कभी कमी नहीं होती । कमी होती है इनसान में जो धर्म के बजाए अपने मन की इच्छा पर या परंपरा पर चलता है और लोगों को देखकर जब चाहे जैसे चाहे अपनी मान्यताएँ खुद ही बदलता रहता है ।
3, जिसके पास धर्म होगा वह न अपने मन की इच्छा पर चलेगा और न ही परंपरा पर , वह चलेगा अपने मालिक के हुक्म पर , जिसके हुक्म पर चले हमारे पूर्वज ।
4, धर्म बदला नहीं जा सकता क्योंकि यह कोई कपड़ा नहीं है ।
5, जो बदलता है उस पर धर्म वास्तव में होता ही नहीं है ।
6, अब आप बताइए कि नित्य और हर पल आप उस मालिक के आदेश पर चलते हैं या अपनी इच्छाओं पर ?
तब पता चलेगा कि वास्तव में आपके पास धर्म है भी कि नहीं ?
संकेत सूत्र
देखें -
tarkeshwergiri.blogspot.com
दोनों पर ही चल रही है बहस गरमागर्म ।
और तब लफ़्ज़ों में ढल गए मेरे अहसास
देखिए अमन के पैग़ाम पर मेरा पैग़ाम
@ सोने की चिड़िया अर्थात प्राचीन भारत जी ! औरत की तरक्की औरत होने में है न कि मर्द बनने की कोशिश में, अपनी हया ग़ैरत और आबरू गंवाकर माल कमाने में।
कभी हमारे ब्लाग पर भी पधारकर उसे भी सुनहरा कर दें ।
विचित्र ज्ञान पहेली
क्या आप जानना चाहेंगे कि मैंने निम्न सिद्धांत किसके ब्लाग पर प्रतिपादित किया ?
1, भारतीय नागरिक जी से पूरी तरह सहमत ।
2, कमी कभी धर्म नहीं होती इसीलिए धर्म में कभी कमी नहीं होती । कमी होती है इनसान में जो धर्म के बजाए अपने मन की इच्छा पर या परंपरा पर चलता है और लोगों को देखकर जब चाहे जैसे चाहे अपनी मान्यताएँ खुद ही बदलता रहता है ।
3, जिसके पास धर्म होगा वह न अपने मन की इच्छा पर चलेगा और न ही परंपरा पर , वह चलेगा अपने मालिक के हुक्म पर , जिसके हुक्म पर चले हमारे पूर्वज ।
4, धर्म बदला नहीं जा सकता क्योंकि यह कोई कपड़ा नहीं है ।
5, जो बदलता है उस पर धर्म वास्तव में होता ही नहीं है ।
6, अब आप बताइए कि नित्य और हर पल आप उस मालिक के आदेश पर चलते हैं या अपनी इच्छाओं पर ?
तब पता चलेगा कि वास्तव में आपके पास धर्म है भी कि नहीं ?
संकेत सूत्र
देखें -
tarkeshwergiri.blogspot.com
Saturday, November 20, 2010
Hindu Rashtra for a muslim क्या हिन्दू राष्ट्र में एक मुसलमान के लिए कोई जगह नहीं है ?
दुनिया को वेद और उपनिषदों से परिचित कराने वाले हैं ईसाई और मुस्लिम @ सीनियर ब्लॉगर बहन रचना जी ! आपने कहा है कि भाई अमित जी को पूरा अधिकार है कि वे चाहें तो हिन्दू धर्म के बारे में कुछ भी कह सकते हैं, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता लेकिन मुझे अमित जी की तरह हिंदू कल्चर और साहित्य के बारे में कुछ भी कहने का हक़ हासिल नहीं है क्योंकि मैं हिंदू नहीं हूं।
1. पहली बात तो यह है कि हिंदू धर्म के बारे में कुछ भी कहने का हक़ एक हिंदू को क्यों है ?
अगर वह ग़लत बात कहता है, भ्रामक बात कहता है तो उसे हरगिज़ यह हक़ नहीं होना चाहिए। किसी भी विषय पर ग़लत बात कहने की इजाज़त नैतिकता और क़ानून हरगिज़ नहीं देता, धर्म भी नहीं देता।
2. अगर मैं सप्रमाण एक सही बात कहता हूं तो मुझे यह हक़ क्यों हासिल नहीं है ?
3. मैक्समूलर और अन्य पश्चिमी विद्वानों ने हिंदू कल्चर और साहित्य पर बहुत कुछ लिखा है। क्या आप उस सारे साहित्य को निरस्त मानती हैं ?
4. क्या आप उसमें से कभी उद्धरण न देंगी ?
5. पश्चिमी दुनिया आज उपनिषदों की तारीफ़ करती है तो इसके पीछे किसी ब्राह्मण प्रचारक की मेहनत नहीं है कि उसने उपनिषदों से दुनिया को परिचित कराया है बल्कि इसके पीछे एक मुसलमान का, दाराशिकोह की मेहनत है। उसने उपनिषदों का अनुवाद फ़ारसी में कराया। फ़ारसी से उनका अनुवाद पश्चिमी भाषाओं में हुआ और दुनिया ने हिन्दुस्तानी फ़लसफ़े को जाना और उसकी तारीफ़ की। निस्संदेह हिन्दुस्तानी दर्शन कुछ बातों में यूनानी दर्शन से उच्च है। अगर दाराशिकोह भी आपकी तरह मान लेता कि उसे हिन्दू दर्शन के बारे में सोचने और उसका प्रचार करने का हक़ नहीं है तो दुनिया शायद भारतीय दर्शन से इतना परिचित न होती जितना कि आज है।
6. क्या आज बहुत से ग़ैर हिन्दू लोग देश-दुनिया में हिन्दू साहित्य पर शोध नहीं कर रहे हैं ?
7. क्या उनके शोध निबंध को यूनिवर्सिटियां और हिन्दू समाज मान्यता नहीं देता ?
8. क्या बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में जो वेद भाष्य पढ़ाया जाता है वह मैक्समूलर द्वारा संकलित नहीं है ?
तब केवल मुझ पर ही पाबंदी क्यों ?
9. बहन रचना जी ! आप खुद को हिन्दुत्ववादी कहती हैं और हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा तक से ठीक से परिचित नहीं हैं। हिन्दुत्ववादी विचारकों ने मुसलमानों को ‘मुहम्मदी हिन्दू‘ कहकर हिन्दुओं का ही एक प्रकार माना है तब आप कैसे कह सकती हैं कि ‘अनवर, आप हिन्दू नहीं हैं ?‘
मैं हिन्दू हूं, वह भी यूनिक टाइप का
10. मैं खुद भी अपने आप को हिन्दू कहता हूं। तब आप मेरे हिन्दू होने का इन्कार किस आधार पर कर सकती हैं ?
11. मुसलमान होना किसी भी तरह से हिन्दू का विलोम नहीं है कि अगर आदमी मुसलमान है तो वह हिन्दू नहीं हो सकता। कहीं से सिद्ध होता हो तो कृप्या प्रमाण दें। बिना सुबूत के कोई बात कहना न तो एक बुद्धिजीवी को शोभा देता है और न ही उसे मान लेना मेरी आदत है।
12. अगर फिर भी मैं आपकी नज़र में हिन्दू शब्द और साहित्य के बारे में बोलने का अधिकार नहीं रखता तो कृप्या बताएं कि मैं क्या करूं कि वह काम करने के बाद सभी हिन्दू मतावलंबी मुझे हिन्दू स्वीकार कर लें ?
13. अगर हिन्दू शब्द की कोई परिभाषा है तो उसमें प्रवेश करने या उससे बाहर निकलने की कोई विघि तो होती ही होगी, वह विधि क्या है ?
http://mypoeticresponse.blogspot.com/2010/11/blog-post_20.html
.................................................................................................
दो पैमानों से नापना छोड़ना होगा
@ भाई तारकेश्वर जी ! आपकी विनती मेरे लिए बहुत अहमियत रखती है।
1. आप मेरे लिखे शब्दों पर ध्यान दें तो आप पाएंगे कि मैंने हिन्दू देवी देवताओं का उदाहरण दिया है लेकिन मैंने यह नहीं लिखा है कि मांस खाकर उन्होंने कोई ग़लत काम किया है। मुझे उनका उदाहरण देने का कोई शौक़ नहीं है, मजबूरी में देना पड़ा उनका उदाहरण।
2. भाई अमित जी और बहन दिव्या जी ने हज़रत इबराहीम अलैहिस्सलाम की कुरबानी की मिसाल दी और कहा कि जो पशुबलि करते हैं वे अधम पापी और राक्षस हैं, वे अमन का पैग़ाम दे ही नहीं सकते, वे इंसान ही नहीं हैं। इसी तरह की बहुत सी बेहूदा बातें कीं और नहीं जानते थे कि जिस मांसाहार को वे अधर्म बता रहे हैं। वही मांसाहार उन प्राचीन आर्यों का मुख्य भोजन था जिन्हें धर्म की स्थापना के लिए अवतरित हुआ बताते हैं। इसी प्रसंग में प्रमाण के तौर पर मुझे श्री रामचन्द्र जी व अन्य हिन्दू महापुरूषों का आचरण सामने लाना पड़ा।
मांस मुसलमानों का पवित्र धार्मिक भोजन है
3. आपने मुझे तो टोक दिया लेकिन आपने अमित जी और दिव्या बहन जी व अन्य ब्लागर्स को एक बार भी न कहा कि आप मुस्लिम महापुरूषों का उदाहरण न दें, ऐसा क्यों ? जवाब दीजिए। यह तो ठीक नहीं है कि ब्लागर्स इस्लाम के बारे में भ्रामक जानकारी फैलाते रहें और आप उन्हें बिल्कुल भी न टोकें और जब मैं उनके भ्रम का निवारण करूं तो आप मुझे समझाने के बहाने चुप करने चले आएं ?
4. आप मुझे रोक रहे हैं और खुद मांस की तुलना मदिरा से कर रहे हैं ?
जबकि इस्लाम में मांस एक पवित्र भोजन है और मदिरा व अन्य किसी भी प्रकार का नशा पाप और वर्जित है। खुद मुसलमानों के भोजन की तुलना एक गंदी और नापाक चीज़ से करें और फिर यह उम्मीद भी रखें कि सामने वाला ख़ामोश रहे, यह तरीक़ा ग़लत है।
5. आप देख लीजिए, मेरे जितने भी लेख हैं वे सभी जवाबी हैं। जब भी कोई आदमी इस्लाम के बारे में ग़लत बात फैलाकर लोगों में अज्ञान और नफ़रत के बीज बोएगा तो सही बात बताना मेरा फ़र्ज़ है क्योंकि मैं सही बात जानता हूं। अगर किसी को मेरी बात ग़लत लगती है तो वह सिद्ध कर दे। मैं उसे वापस ले लूंगा, अपनी ही बात के लिए हठ और आग्रह बिल्कुल नहीं करूंगा लेकिन सत्य के लिए आग्रह ज़रूर करूंगा। मैं सत्याग्रह ज़रूर करूंगा हालांकि मैं गांधीवादी नहीं हूं।
शांति के लिए मेरी तरफ़ से एक बेहतरीन आफ़र
मैंने पहले भी कहा था और आज फिर कहता हूं कि मेरे ब्लाग की जिस पोस्ट पर ऐतराज़ हो उसे डिलीट करवा दीजिए लेकिन पहले आप लोग भी इस्लाम के खि़लाफ़ दुर्भावनापूर्ण पोस्ट डिलीट कर दें।
अब आप बताइये कि मेरी कौन सी बात ग़लत है और आपकी कौन सी बात सही है ?
क्यों है न काम की बातें ?
अब नवाज़ देवबंदी साहब का एक शेर अर्ज़ है-
1. पहली बात तो यह है कि हिंदू धर्म के बारे में कुछ भी कहने का हक़ एक हिंदू को क्यों है ?
अगर वह ग़लत बात कहता है, भ्रामक बात कहता है तो उसे हरगिज़ यह हक़ नहीं होना चाहिए। किसी भी विषय पर ग़लत बात कहने की इजाज़त नैतिकता और क़ानून हरगिज़ नहीं देता, धर्म भी नहीं देता।
2. अगर मैं सप्रमाण एक सही बात कहता हूं तो मुझे यह हक़ क्यों हासिल नहीं है ?
3. मैक्समूलर और अन्य पश्चिमी विद्वानों ने हिंदू कल्चर और साहित्य पर बहुत कुछ लिखा है। क्या आप उस सारे साहित्य को निरस्त मानती हैं ?
4. क्या आप उसमें से कभी उद्धरण न देंगी ?
5. पश्चिमी दुनिया आज उपनिषदों की तारीफ़ करती है तो इसके पीछे किसी ब्राह्मण प्रचारक की मेहनत नहीं है कि उसने उपनिषदों से दुनिया को परिचित कराया है बल्कि इसके पीछे एक मुसलमान का, दाराशिकोह की मेहनत है। उसने उपनिषदों का अनुवाद फ़ारसी में कराया। फ़ारसी से उनका अनुवाद पश्चिमी भाषाओं में हुआ और दुनिया ने हिन्दुस्तानी फ़लसफ़े को जाना और उसकी तारीफ़ की। निस्संदेह हिन्दुस्तानी दर्शन कुछ बातों में यूनानी दर्शन से उच्च है। अगर दाराशिकोह भी आपकी तरह मान लेता कि उसे हिन्दू दर्शन के बारे में सोचने और उसका प्रचार करने का हक़ नहीं है तो दुनिया शायद भारतीय दर्शन से इतना परिचित न होती जितना कि आज है।
6. क्या आज बहुत से ग़ैर हिन्दू लोग देश-दुनिया में हिन्दू साहित्य पर शोध नहीं कर रहे हैं ?
7. क्या उनके शोध निबंध को यूनिवर्सिटियां और हिन्दू समाज मान्यता नहीं देता ?
8. क्या बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में जो वेद भाष्य पढ़ाया जाता है वह मैक्समूलर द्वारा संकलित नहीं है ?
तब केवल मुझ पर ही पाबंदी क्यों ?
9. बहन रचना जी ! आप खुद को हिन्दुत्ववादी कहती हैं और हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा तक से ठीक से परिचित नहीं हैं। हिन्दुत्ववादी विचारकों ने मुसलमानों को ‘मुहम्मदी हिन्दू‘ कहकर हिन्दुओं का ही एक प्रकार माना है तब आप कैसे कह सकती हैं कि ‘अनवर, आप हिन्दू नहीं हैं ?‘
मैं हिन्दू हूं, वह भी यूनिक टाइप का
10. मैं खुद भी अपने आप को हिन्दू कहता हूं। तब आप मेरे हिन्दू होने का इन्कार किस आधार पर कर सकती हैं ?
11. मुसलमान होना किसी भी तरह से हिन्दू का विलोम नहीं है कि अगर आदमी मुसलमान है तो वह हिन्दू नहीं हो सकता। कहीं से सिद्ध होता हो तो कृप्या प्रमाण दें। बिना सुबूत के कोई बात कहना न तो एक बुद्धिजीवी को शोभा देता है और न ही उसे मान लेना मेरी आदत है।
12. अगर फिर भी मैं आपकी नज़र में हिन्दू शब्द और साहित्य के बारे में बोलने का अधिकार नहीं रखता तो कृप्या बताएं कि मैं क्या करूं कि वह काम करने के बाद सभी हिन्दू मतावलंबी मुझे हिन्दू स्वीकार कर लें ?
13. अगर हिन्दू शब्द की कोई परिभाषा है तो उसमें प्रवेश करने या उससे बाहर निकलने की कोई विघि तो होती ही होगी, वह विधि क्या है ?
http://mypoeticresponse.blogspot.com/2010/11/blog-post_20.html
.................................................................................................
दो पैमानों से नापना छोड़ना होगा
Mr. Tarkeshwar Giri at cps global , New Delhi |
1. आप मेरे लिखे शब्दों पर ध्यान दें तो आप पाएंगे कि मैंने हिन्दू देवी देवताओं का उदाहरण दिया है लेकिन मैंने यह नहीं लिखा है कि मांस खाकर उन्होंने कोई ग़लत काम किया है। मुझे उनका उदाहरण देने का कोई शौक़ नहीं है, मजबूरी में देना पड़ा उनका उदाहरण।
2. भाई अमित जी और बहन दिव्या जी ने हज़रत इबराहीम अलैहिस्सलाम की कुरबानी की मिसाल दी और कहा कि जो पशुबलि करते हैं वे अधम पापी और राक्षस हैं, वे अमन का पैग़ाम दे ही नहीं सकते, वे इंसान ही नहीं हैं। इसी तरह की बहुत सी बेहूदा बातें कीं और नहीं जानते थे कि जिस मांसाहार को वे अधर्म बता रहे हैं। वही मांसाहार उन प्राचीन आर्यों का मुख्य भोजन था जिन्हें धर्म की स्थापना के लिए अवतरित हुआ बताते हैं। इसी प्रसंग में प्रमाण के तौर पर मुझे श्री रामचन्द्र जी व अन्य हिन्दू महापुरूषों का आचरण सामने लाना पड़ा।
मांस मुसलमानों का पवित्र धार्मिक भोजन है
3. आपने मुझे तो टोक दिया लेकिन आपने अमित जी और दिव्या बहन जी व अन्य ब्लागर्स को एक बार भी न कहा कि आप मुस्लिम महापुरूषों का उदाहरण न दें, ऐसा क्यों ? जवाब दीजिए। यह तो ठीक नहीं है कि ब्लागर्स इस्लाम के बारे में भ्रामक जानकारी फैलाते रहें और आप उन्हें बिल्कुल भी न टोकें और जब मैं उनके भ्रम का निवारण करूं तो आप मुझे समझाने के बहाने चुप करने चले आएं ?
4. आप मुझे रोक रहे हैं और खुद मांस की तुलना मदिरा से कर रहे हैं ?
जबकि इस्लाम में मांस एक पवित्र भोजन है और मदिरा व अन्य किसी भी प्रकार का नशा पाप और वर्जित है। खुद मुसलमानों के भोजन की तुलना एक गंदी और नापाक चीज़ से करें और फिर यह उम्मीद भी रखें कि सामने वाला ख़ामोश रहे, यह तरीक़ा ग़लत है।
5. आप देख लीजिए, मेरे जितने भी लेख हैं वे सभी जवाबी हैं। जब भी कोई आदमी इस्लाम के बारे में ग़लत बात फैलाकर लोगों में अज्ञान और नफ़रत के बीज बोएगा तो सही बात बताना मेरा फ़र्ज़ है क्योंकि मैं सही बात जानता हूं। अगर किसी को मेरी बात ग़लत लगती है तो वह सिद्ध कर दे। मैं उसे वापस ले लूंगा, अपनी ही बात के लिए हठ और आग्रह बिल्कुल नहीं करूंगा लेकिन सत्य के लिए आग्रह ज़रूर करूंगा। मैं सत्याग्रह ज़रूर करूंगा हालांकि मैं गांधीवादी नहीं हूं।
शांति के लिए मेरी तरफ़ से एक बेहतरीन आफ़र
मैंने पहले भी कहा था और आज फिर कहता हूं कि मेरे ब्लाग की जिस पोस्ट पर ऐतराज़ हो उसे डिलीट करवा दीजिए लेकिन पहले आप लोग भी इस्लाम के खि़लाफ़ दुर्भावनापूर्ण पोस्ट डिलीट कर दें।
अब आप बताइये कि मेरी कौन सी बात ग़लत है और आपकी कौन सी बात सही है ?
क्यों है न काम की बातें ?
अब नवाज़ देवबंदी साहब का एक शेर अर्ज़ है-
मेरे पैमाने में कुछ है उसके पैमाने में कुछ
देख साक़ी हो न जाए तेरे मैख़ाने में कुछ
देख साक़ी हो न जाए तेरे मैख़ाने में कुछ
Intellectual dwarfness राक्षस कौन है ? , बलि के विरोधी या हम सबके पूर्वज ?
एक पैमाने से नापिए सारे झगड़े खत्म हो जाएँगे
इस्लाम एक वैज्ञानिक और व्यवहारिक धर्म है । यह धर्म उसी ईश्वर द्वारा प्रदत्त है जिसने सारे जीव बनाए, जिसने उनके भोजन की व्यवस्था बनाई । उसी ईश्वर ने जन्म के साथ मृत्यु भी बनाई, उसी ने Food chain बनाई । जीव दूसरे जीवों को खाएँ , जीवों की यह प्रकृति भी उसी ने बनाई । उसी ने आहार के अनुसार जीवों के दाँत बनाए ,पाचन क्रिया बनाई । जब से दुनिया आबाद है तब से मनुष्य अपने आहार में दूसरी चीजों के साथ मांस भी लेता आ रहा है । हरेक जाति और समुदाय के ज्ञानी पूर्वज और वीर सैनिक मांस खाते आए हैं यह इतिहास से सिद्ध है ।
विश्व के श्रेष्ठ बुद्धिजीवी और वीर सैनिक आज भी मांस खाते हैं । मुसलमान भी ज्ञानी पूर्वजों और श्रेष्ठ बुद्धिजीवियों की परंपरा के अनुसार दूसरी चीजों के साथ मांस खाते हैं । जो श्रेष्ठ भोजन खुद खाते हैं वही अन्य गरीब भाइयों को भी मिल जाए । इसकी व्यवस्था इस्लामी पर्व बक़र: ईद में निहित है । कुर्बानी के गोश्त में से एक तिहाई गरीबों को देना लाज़िमी है । यह एक सच्चाई है । जो इसे समझ नहीं पाते उनकी अक़्लें बौनी हैं , जो इसे मानते नहीं हैं उनके दिल छोटे हैं , यही साबित होता है । उनके न मानने से न तो हकीकत बदलेगी और न ही Natural food chain .
कुछ लोग आज की दुनिया मेँ भी अंधविश्वास में जीते हैं और इस्लाम से जलते हैं या फिर ईश्वर की प्राकृतिक और धार्मिक व्यवस्था का ज्ञान नहीं रखते हैँ बल्कि अपने इतिहास की जानकारी भी ठीक से नहीँ रखते , ये नर नारी भावनाओं मेँ बहकर अपनी हद से निकल जाते हैं ।
ये कहते हैं कि जीव को मारना उसका मांस खाना पाप है । जो मांस खाता है वह तामसिक है राक्षस है । मुसलमानों पर निशाना साधने के चक्कर में ये अज्ञानी भाई बहन यह भी भुला देते हैं कि उनकी बदतमीज़ी की लपेट में उनके पूर्वज भी आ रहे हैं । वे पूर्वज, जिन्हें वे साकार ईश्वर मानते हैं ।
A- क्या वे सब दया शांति और ज्ञान से कोरे थे ?
B- क्या उन्होंने कभी अमन का पैग़ाम नहीं दिया ?
C- क्या ये सभी नीच पापी और राक्षस थे ?
लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस बदतमीज़ी के काम में उनसे सहमत नहीं हैं । बहन रचना जी उनमें से एक हैं । अपनी ताजा पोस्ट में इस सोच के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की है । मैंने उनकी पोस्ट पर कमेँट देते हुए कहा है कि -
@ Great sister रचना जी ! आपके विचार सुंदर और स्पष्ट हैं । आपने सही लिखा है कि हिंदू कल्चर और इस्लाम धर्म में दोनों में पाप पुण्य की परिभाषा में अंतर है । पहले परिभाषा तय कर ली जाए और फिर तर्क वितर्क किया जाए ।
वह दिन आना मुश्किल है क्योंकि अभी तक तो हिंदू शब्द की ही परिभाषा तय नहीं हो पाई है, पाप पुण्य की कैसे तय कर लेंगे ?
2- चलिए फिर भी आपकी नज़र में जो पाप है जिस पर आप इस्लाम और मुसलमानों को नाप रहे हैं उसी पैमाने से अपने पूर्वजों को भी नापिए । हमें कोई ऐतराज न होगा ।
3- रामचंद्र जी भरत जी और हनुमान जी का भोजन क्या था ?
4- क्या शिव जी शेर की खाल पर बैठ कर ध्यान नहीं लगाते थे ?
5- शिवा जी का फूड क्या था ?
6- सिक्ख गुरुओं आहार क्या था ?
7- हमारे सैनिकों और अधिकांश हिंदुओं का भोजन आज क्या है ?
8- उड़ीसा और दक्षिण के वेदपाठी ब्राह्मणों का भोजन आज भी क्या है ?
9- क्या ये सब अमन के दुश्मन और राक्षस हैं ?, अधम और पतित हैं ?
बलि विरोधी जवाब दें ।
एक पैमाने से नापेँगे तो झगड़े खुद ख़त्म हो जाएगे ।
हमारे पूर्वज धर्म और नैतिकता के आदर्श हैं , यह एक स्थापित सत्य है। धर्म और करुणा की जो भी चेतना आज हममें पाई जाती है वह चेतना हम तक उन्हीं से पहुँची है ।
तो फिर क्या बलि के विरोधियों को राक्षस कहा जाएगा ?
नहीं , इन्हें भी राक्षस नहीं कहा जाएगा बल्कि इन्हें ऐसा नादान समझा जाएगा जिन्हें धर्म और महापुरुषों के इतिहास की सही जानकारी नहीं है ।
That's all .
इस्लाम एक वैज्ञानिक और व्यवहारिक धर्म है । यह धर्म उसी ईश्वर द्वारा प्रदत्त है जिसने सारे जीव बनाए, जिसने उनके भोजन की व्यवस्था बनाई । उसी ईश्वर ने जन्म के साथ मृत्यु भी बनाई, उसी ने Food chain बनाई । जीव दूसरे जीवों को खाएँ , जीवों की यह प्रकृति भी उसी ने बनाई । उसी ने आहार के अनुसार जीवों के दाँत बनाए ,पाचन क्रिया बनाई । जब से दुनिया आबाद है तब से मनुष्य अपने आहार में दूसरी चीजों के साथ मांस भी लेता आ रहा है । हरेक जाति और समुदाय के ज्ञानी पूर्वज और वीर सैनिक मांस खाते आए हैं यह इतिहास से सिद्ध है ।
विश्व के श्रेष्ठ बुद्धिजीवी और वीर सैनिक आज भी मांस खाते हैं । मुसलमान भी ज्ञानी पूर्वजों और श्रेष्ठ बुद्धिजीवियों की परंपरा के अनुसार दूसरी चीजों के साथ मांस खाते हैं । जो श्रेष्ठ भोजन खुद खाते हैं वही अन्य गरीब भाइयों को भी मिल जाए । इसकी व्यवस्था इस्लामी पर्व बक़र: ईद में निहित है । कुर्बानी के गोश्त में से एक तिहाई गरीबों को देना लाज़िमी है । यह एक सच्चाई है । जो इसे समझ नहीं पाते उनकी अक़्लें बौनी हैं , जो इसे मानते नहीं हैं उनके दिल छोटे हैं , यही साबित होता है । उनके न मानने से न तो हकीकत बदलेगी और न ही Natural food chain .
कुछ लोग आज की दुनिया मेँ भी अंधविश्वास में जीते हैं और इस्लाम से जलते हैं या फिर ईश्वर की प्राकृतिक और धार्मिक व्यवस्था का ज्ञान नहीं रखते हैँ बल्कि अपने इतिहास की जानकारी भी ठीक से नहीँ रखते , ये नर नारी भावनाओं मेँ बहकर अपनी हद से निकल जाते हैं ।
ये कहते हैं कि जीव को मारना उसका मांस खाना पाप है । जो मांस खाता है वह तामसिक है राक्षस है । मुसलमानों पर निशाना साधने के चक्कर में ये अज्ञानी भाई बहन यह भी भुला देते हैं कि उनकी बदतमीज़ी की लपेट में उनके पूर्वज भी आ रहे हैं । वे पूर्वज, जिन्हें वे साकार ईश्वर मानते हैं ।
A- क्या वे सब दया शांति और ज्ञान से कोरे थे ?
B- क्या उन्होंने कभी अमन का पैग़ाम नहीं दिया ?
C- क्या ये सभी नीच पापी और राक्षस थे ?
लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस बदतमीज़ी के काम में उनसे सहमत नहीं हैं । बहन रचना जी उनमें से एक हैं । अपनी ताजा पोस्ट में इस सोच के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की है । मैंने उनकी पोस्ट पर कमेँट देते हुए कहा है कि -
@ Great sister रचना जी ! आपके विचार सुंदर और स्पष्ट हैं । आपने सही लिखा है कि हिंदू कल्चर और इस्लाम धर्म में दोनों में पाप पुण्य की परिभाषा में अंतर है । पहले परिभाषा तय कर ली जाए और फिर तर्क वितर्क किया जाए ।
वह दिन आना मुश्किल है क्योंकि अभी तक तो हिंदू शब्द की ही परिभाषा तय नहीं हो पाई है, पाप पुण्य की कैसे तय कर लेंगे ?
2- चलिए फिर भी आपकी नज़र में जो पाप है जिस पर आप इस्लाम और मुसलमानों को नाप रहे हैं उसी पैमाने से अपने पूर्वजों को भी नापिए । हमें कोई ऐतराज न होगा ।
3- रामचंद्र जी भरत जी और हनुमान जी का भोजन क्या था ?
4- क्या शिव जी शेर की खाल पर बैठ कर ध्यान नहीं लगाते थे ?
5- शिवा जी का फूड क्या था ?
6- सिक्ख गुरुओं आहार क्या था ?
7- हमारे सैनिकों और अधिकांश हिंदुओं का भोजन आज क्या है ?
8- उड़ीसा और दक्षिण के वेदपाठी ब्राह्मणों का भोजन आज भी क्या है ?
9- क्या ये सब अमन के दुश्मन और राक्षस हैं ?, अधम और पतित हैं ?
बलि विरोधी जवाब दें ।
एक पैमाने से नापेँगे तो झगड़े खुद ख़त्म हो जाएगे ।
हमारे पूर्वज धर्म और नैतिकता के आदर्श हैं , यह एक स्थापित सत्य है। धर्म और करुणा की जो भी चेतना आज हममें पाई जाती है वह चेतना हम तक उन्हीं से पहुँची है ।
तो फिर क्या बलि के विरोधियों को राक्षस कहा जाएगा ?
नहीं , इन्हें भी राक्षस नहीं कहा जाएगा बल्कि इन्हें ऐसा नादान समझा जाएगा जिन्हें धर्म और महापुरुषों के इतिहास की सही जानकारी नहीं है ।
That's all .
Wednesday, November 17, 2010
Humanity is still alive मालिक सबकी मुराद पूरी करे
मालिक सबका भला करे ,
वेद कुरआन ब्लॉग पर
@ दिव्य बहन दिव्या जी ! आपने मुझे ईद की मुबारकबाद दी , बेशक आपने केवल सुह्रदयता का ही नहीं बल्कि विशाल ह्रदयता का भी परिचय दिया है ।
मालिक आपको दिव्य मार्ग पर चलाए और आपको रियल मंजिल तक पहुँचाए ।
@ भाई तारकेश्वर जी ! आपकी शुभकामनाएं थ्रू SMS मौसूल हुईं और वह भी बिल्कुल सुबह सुबह ।
धन्यवाद !
जिन्होंने मुझे शुभकामनाएं नहीं भेजीं , वे भी मेरा शुभ ही चाहते हैं ऐसा मेरा मानना है ।
मालिक सबका शुभ करे ।
विशेष : तर्क वितर्क से मेरा मक़सद केवल संवाद है और संवाद का मक़सद सत्पथ की निशानदेही करना है ।
किसी के पास सत्य का कोई अन्य सूत्र है तो मैं प्रेमपूर्वक उसका स्वागत करता हूं , अपने कल्याण के लिए , सबके कल्याण के लिए ।
कल्याण सत्य में निहित है ।
वेद कुरआन ब्लॉग पर
@ दिव्य बहन दिव्या जी ! आपने मुझे ईद की मुबारकबाद दी , बेशक आपने केवल सुह्रदयता का ही नहीं बल्कि विशाल ह्रदयता का भी परिचय दिया है ।
मालिक आपको दिव्य मार्ग पर चलाए और आपको रियल मंजिल तक पहुँचाए ।
@ भाई तारकेश्वर जी ! आपकी शुभकामनाएं थ्रू SMS मौसूल हुईं और वह भी बिल्कुल सुबह सुबह ।
धन्यवाद !
जिन्होंने मुझे शुभकामनाएं नहीं भेजीं , वे भी मेरा शुभ ही चाहते हैं ऐसा मेरा मानना है ।
मालिक सबका शुभ करे ।
विशेष : तर्क वितर्क से मेरा मक़सद केवल संवाद है और संवाद का मक़सद सत्पथ की निशानदेही करना है ।
किसी के पास सत्य का कोई अन्य सूत्र है तो मैं प्रेमपूर्वक उसका स्वागत करता हूं , अपने कल्याण के लिए , सबके कल्याण के लिए ।
कल्याण सत्य में निहित है ।
Sunday, November 14, 2010
Subscribe to:
Posts (Atom)