आप अब तक अपनी टिप्पणियों को देख लीजिए, उनमें जब भी आप इस्लाम, कुरआन और पैग़म्बर साहब का ज़िक्र करते हैं तो कितनी नफ़रत के साथ और कितने तिरस्कार के साथ करते हैं।
इसमें हम आपकी ग़लती ज़्यादा नहीं मानते।
जब आदमी किसी विशेष पारिवारिक पृष्ठभूमि में पला बढ़ा हो या इस्लाम के विरूद्ध नफ़रत रखने वाले चिंतकों के साथ उठता बैठता हो और खुद अपनी अक्ल खोलकर सोचता न हो तो उसकी दशा यही बनेगी।
दूसरी ओर आप हमें देखिए और आप
इस पूरे ब्लॉग को पढ़ लीजिए,
आपको कहीं भी हमारी ओर से कोई भी ग़लत ऐतराज़ हिंदू महापुरूषों पर नहीं मिलेंगे, इसे कहते हैं महापुरूषों को आदर सम्मान देना और उनसे प्यार करना।
केवल कह देना ही काफ़ी नहीं होता।
इस्लाम के विरूद्ध प्रचार कोई नई बात नहीं है। इस्लाम के विरूद्ध हरेक भाषा में बहुत सा ऐसा सहित्य आपको मिल जाएगा जो कि इस्लाम की गलत जानकारी देने के लिए ही लिखा गया है। इस्लाम के खिलाफ नफरत भरा साहित्य पढ़कर या ऐसे प्रवचनों से इस्लाम की जानकारी लेना ऐसा ही है जैसे कि कोई विदेशी टूरिस्ट ‘कसाब‘ के मुंह से भारतीय संस्कृति की जानकारी लेना चाहे,
क्या उसे भारतीय संस्कृति की सही जानकारी का स्रोत माना जा सकता है ?
आप पहले इस्लाम के बारे में उसके प्रामाणिक स्रोतों से जानकारी हासिल कीजिए और उसका तरीका यह नहीं है कि कुरआन के विरोध में लिखे गए साहित्य को पढ़ लिया और फिर कहीं से कुरआन का अनुवाद लेकर उसमें उन आयतों को मिला लिया और समझ लिया कि हम समझ गए।
बल्कि इसका तरीका यह है कि आप पहले मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की जीवनी पढ़ें ताकि आपकी जानकारी में यह बात आ जाए कि उनके साथ मक्का और मदीना में क्या क्या अत्याचार किए गए ?
क्या आप यह बात जानते हैं कि एक ईश्वर की उपासना और उसी का आदेश मानने का प्रचार करने की जो दूसरी सज़ाएं उन्हें दी गईं उनके साथ साथ पैग़ंबर साहब को लगभग ढाई साल तक ‘इब्ने अबी तालिब‘ की घाटी में क़ैद रखा गया और इस लंबे अर्से में मक्के के किसी भी व्यापारी ने उन्हें अन्न का एक दाना तक नहीं बेचा यानि मुकम्मल बहिष्कार।
इस क़ैद और इस बहिष्कार में मुहम्मद साहब सल्ल. अकेले नहीं थे बल्कि उनके साथ उनका पूरा क़बीला था और उनके साथ ये सारी तकलीफ़ें उन लोगों ने भी उठाईं जो कि पैग़ंबर साहब के धर्म पर आस्था नहीं लाए थे लेकिन फिर भी उन्होंने उनका साथ दिया क्योंकि वे उनसे प्यार करते थे और उन्होंने पैग़ंबर साहब को कभी दुश्मनों के हाथ नहीं सौंपा। उनके क़बीले के दूध पीते बच्चों और औरतों को भी यह दर्दनाक कष्ट झेलना पड़ा।
इस तरह के वाक़यात इस्लाम विरोधी अपने लिट्रेचर में नहीं छापते, इसलिए आपको पता भी नहीं होंगे।
आप इस्लाम को औरत विरोधी बता रहे हैं लेकिन आपको पता नहीं होगा कि पैग़ंबर साहब सल्ल. के उपदेश पर सबसे पहले आस्था व्यक्त करने वाली भी एक औरत ही थी और वह भी एक औरत ही थी जिसे इस्लाम पर ईमान लाने के जुर्म में इस्लाम विरोधियों ने क़त्ल कर दिया।
जब आप पैग़ंबर साहब की जीवनी पढ़ेंगे तभी आपको पता चलेगा कि उन्होंने क्या कहा था और उनके साथ क्या किया गया था ?
इसके बाद आप कुरआन का कोई ऐसा अनुवाद पढ़ें जिसमें थोड़ा विस्तार से आयतों का संदर्भ प्रसंग भी बताया गया हो ताकि आप जान लें कि कौन सी आयतें सामान्य जीवन के लिए हैं और कौन सी आयतें युद्ध काल और आपत्ति काल के लिए हैं।
तब ही आपको यह पता चल पाएगा कि जब ज़ुल्म अपनी सारी हदें पार कर गया तो मुहम्मद साहब सल्ल. मक्का से चले आए और मदीना के लोगों को उपदेश देना शुरू किया तो उनके क़त्ल के इरादे से उनके दुश्मनों मक्का से आकर मदीना पर हमला कर दिया। तब मुसलमानों को अपने पैग़ंबर, अपने दीन और खुद अपनी जान की हिफाजत के लिए हथियार मजबूरन उठाने पड़े और इन युद्धों में जब बहुत से मुसलमान मारे गए और उनकी विधवाएं बेसहारा हो गईं तो यह हुक्म दिया गया कि मुसलमान उन
विधवाओं से निकाह कर लें ताकि उन्हें आर्थिक , सामाजिक और मनोवैज्ञानिक सहारा मिल सके।
विधवाओं का इससे ज़्यादा अच्छा पुनर्वास कुछ और हो सकता हो तो आप भी सोच कर बताएं और यह भी याद रखें कि यह वह दौर था जबकि विधवाओं को अभागिन और मनहूस समझा जाता था और उन्हें सहारा देने के बजाय उन्हें ज़िंदा जला दिया जाता था और ऐसा करने वाले यह कहते थे कि विश्व में हमसे ज़्यादा सभ्य कोई है ही नहीं।
जब आप इस्लाम के मूल स्रोतों को ढंग से पढ़ लेंगे तो आपकी बहुत सी आपत्तियां दूर हो जाएंगी लेकिन कुछ फिर भी बनी रहेंगी और कुछ इस अध्ययन के दौरान पैदा होंगी।
ये आपत्तियां वास्तव में ऐसी होंगी जिन्हें अध्ययन के दौरान पैदा होने वाली आपत्तियां कहा जाएगा और उनका निराकरण भी किया जाएगा।
क्योंकि किसी भी विषय के अध्ययन के दौरान इस तरह की आपत्तियां पैदा होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।
हम ऐसी आपत्तियों का स्वागत करते हैं क्योंकि ज्ञान इसी तरह बढ़ता है और ज्ञान इसी तरह फैलता है।
दूसरी बात आपको यह जान लेनी चाहिए कि ये आपत्तियां आप पहली बार नहीं कर रहे हैं और इन सभी का जवाब दिया जा चुका है जिनमें से कुछ के जवाब हिंदी में नेट पर भी देखे जा सकते हैं। जब भी आपको उनका लिंक दिया जाता है तो आप मज़ाक़ उड़ाने लगते हैं।
यह क्या तरीक़ा है ?
क्या लिंक देना ग़लत बात है ?
जिस बात को लिखा जा चुका है तो क्या उसी बात को हर बार नए सिरे से लिखा जाए ?
आपके बाद फिर कोई तीसरा बंदा यही सवाल लाएगा तो उसे इस पोस्ट का लिंक ही दिया जाएगा न कि उसके लिए फिर नए सिरे से लिखा जाएगा।
इस तरह मज़ाक़ वही उड़ाता है जिसके दिल में सच जानने की कोई ख्वाहिश नहीं होती बल्कि बस चलते हुए काम में अड़चन डालकर मज़ा लेने के लिए या खुद को सुपर दिखाने के लिए कुछ ऐतराज़ कर दिए जाते हैं।
आपसे और आप जैसे दूसरे भाईयों से जब भी
‘कुरआन पढ़ो‘ कहते हैं तो भी मज़ाक़ बनाने लगते हैं।
भाई जब आप कुछ सवाल कर रहे हैं तो जवाब में आपको कुछ पढ़ने के लिए ही तो कहा जाएगा।
आप लोगों को लिंक पर भी ऐतराज़ है और आपको ‘कुरआन पढ़ो‘ की सलाह देने पर भी।
फिर बताइये कि आप अपनी
आपत्तियों का निराकरण किस प्रकार चाहते हैं ?
अगर आप यह चाहते हैं कि आपके हरेक सवाल का जवाब यहीं लिखकर दिया जाए तो यही सही लेकिन आप सभी जानते हैं कि सवाल एक-दो लाइन का होता है और जवाब में लिखना पड़ता है लंबा चौड़ा।
लिहाज़ा यह नहीं चलेगा कि आप आए और खिल्ली उड़ाई और दस बीस सवाल लिखे और निकल लिए।
हम इस्लाम में आस्था रखते हैं और इस्लाम पर उठने वाले हरेक सवाल का जवाब तर्कपूर्ण रीति से देने के लिए तैयार हैं लेकिन जो लोग यहां ऐतराज़ करने आते हैं वे भी तो बताएं कि वे किस धर्म-मत-संप्रदाय में आस्था रखते हैं।
जब वे हमें ग़लत समझते हैं तो खुद तो वे ज़रूर किसी न किसी सही आचार संहिता पर आस्था रखते होंगे और फिर उसके अनुसार चलते भी होंगे।
चाहे कोई नास्तिक ही क्यों न हो, उसका भी यहां स्वागत है
वह आए और यहां हमसे इस्लाम के बारे में सवाल करे लेकिन तब हम भी उसकी विचारधारा के बारे में उससे सवाल करेंगे।
एक सवाल हमसे कीजिए तो हमारे भी एक सवाल का जवाब दीजिए,
तभी तो पता चलेगा न कि कौन कितने पानी में है ?
वर्ना तो अपनी पहचान छिपाकर सवाल पूछना और फिर खिसक लेना कौन सी बड़ी बात है ?
आइये, जितने चाहे पूछिए हमसे सवाल, हम आपकी वैचारिक आज़ादी और आलोचना के अधिकार का सम्मान करते हैं .
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राज जी के ऐतराज़ यहाँ देखे जा सकते हैं :