भाई ख़ुशदीप जी सवाल कर रहे हैं कि
ज़िंदगी से क्यों हार रहे हैं लोग ?
उनकी पोस्ट का विषय आत्महत्या है।
ज़िंदगी से क्यों हार रहे हैं लोग ?
उनकी पोस्ट का विषय आत्महत्या है।
जीना दुश्वार क्यों ?
आखि़र लोग आत्महत्या का रास्ता क्यों अपना रहे हैं ?
यह आज चिंता का विषय है।
हरेक उम्र और हरेक लिंग और भाषा के लोग आत्महत्या कर रहे हैं।
इसके पीछे एक सही नज़रिये का अभाव है।
लोगों के जीवन में समस्याएं आती हैं और जो लोग उन्हें हल होते नहीं देखते और उनसे उपजने वाले तनाव से वे हताश हो जाते हैं तो ऐसे लोगों में आत्महत्या का विचार सिर उठाने लगता है और कुछ लोग सचमुच आत्महत्या कर लेते हैं।
कोई आदमी अकेला नहीं मरता बल्कि वह अपने से जुड़े हुए लोगों को भी मार डालता है। उन्हें वह सदा के लिए एक न भरने वाला ज़ख्म देकर चला जाता है।
अपने मां बाप और पत्नी-बच्चों के लिए जो भीषण संत्रास वह जीवन भर छोड़ कर जा रहा है और उन्हें जीते जी ही मुर्दा बना रहा है। यह घोर पाप है और इस पाप के दंड से मुक्ति संभव नहीं है।
इस समस्या का हल यह है आदमी यह जान ले कि अपने जीवन का मालिक वह स्वयं नहीं है बल्कि वह रब है जिसने उसे पैदा किया है। उसी ने उसके पैदा होने का समय नियत किया है और उसकी मौत का समय भी उसी ने नियत कर रखा है। उसकी मंशा के खि़लाफ़ हरकत करना एक दंडनीय अपराध है और उसकी सज़ा उसे हर हाल में मिल कर रहेगी। इस तरह वह एक समस्या से बचेगा तो दूसरे कष्ट में जा पड़ेगा।
आदमी यह जीवन ढंग से जी सके इसके लिए ज़रूरी है कि वह जान ले कि मौत के बाद उसके साथ क्या मामला पेश आने वाला है ?
इंसान का हरेक अमल मौत के बाद उसके सामने आना है, यह तय है और इसे हरेक धर्म-मत में मान्यता प्राप्त है।
आधुनिक शिक्षा इस मान्यता को नकारती है और इस तरह वह नई नस्ल को एक ऐसी बुनियाद से वंचित कर रही है जो कि उसे हर हाल में जिलाए रख सकती है।
जब आदमी अपनी योग्यता के बल पर अपने हालात सुधरने से नाउम्मीद हो जाता है, तब भी एक आस्तिक को यह उम्मीद होती है कि उसका रब उसके हालात सुधारने की ताक़त रखता है और वह आशा और विश्वास के साथ प्रार्थना करता रहता है। इससे उसका मनोबल बना रहता है और मनोविज्ञान भी यह कहता है कि अगर आत्महत्या के इच्छुक व्यक्ति को कुछ समय भी आत्महत्या से रोक दिया जाए तो कुछ समय के बाद वह फिर आत्महत्या नहीं करेगा।
ईश्वर में आस्था और पारिवारिक रिश्तों के प्रति ज़िम्मेदारी का सही भाव आदमी को आत्महत्या से बचाते हैं।
आखि़र लोग आत्महत्या का रास्ता क्यों अपना रहे हैं ?
यह आज चिंता का विषय है।
हरेक उम्र और हरेक लिंग और भाषा के लोग आत्महत्या कर रहे हैं।
इसके पीछे एक सही नज़रिये का अभाव है।
लोगों के जीवन में समस्याएं आती हैं और जो लोग उन्हें हल होते नहीं देखते और उनसे उपजने वाले तनाव से वे हताश हो जाते हैं तो ऐसे लोगों में आत्महत्या का विचार सिर उठाने लगता है और कुछ लोग सचमुच आत्महत्या कर लेते हैं।
कोई आदमी अकेला नहीं मरता बल्कि वह अपने से जुड़े हुए लोगों को भी मार डालता है। उन्हें वह सदा के लिए एक न भरने वाला ज़ख्म देकर चला जाता है।
अपने मां बाप और पत्नी-बच्चों के लिए जो भीषण संत्रास वह जीवन भर छोड़ कर जा रहा है और उन्हें जीते जी ही मुर्दा बना रहा है। यह घोर पाप है और इस पाप के दंड से मुक्ति संभव नहीं है।
इस समस्या का हल यह है आदमी यह जान ले कि अपने जीवन का मालिक वह स्वयं नहीं है बल्कि वह रब है जिसने उसे पैदा किया है। उसी ने उसके पैदा होने का समय नियत किया है और उसकी मौत का समय भी उसी ने नियत कर रखा है। उसकी मंशा के खि़लाफ़ हरकत करना एक दंडनीय अपराध है और उसकी सज़ा उसे हर हाल में मिल कर रहेगी। इस तरह वह एक समस्या से बचेगा तो दूसरे कष्ट में जा पड़ेगा।
आदमी यह जीवन ढंग से जी सके इसके लिए ज़रूरी है कि वह जान ले कि मौत के बाद उसके साथ क्या मामला पेश आने वाला है ?
इंसान का हरेक अमल मौत के बाद उसके सामने आना है, यह तय है और इसे हरेक धर्म-मत में मान्यता प्राप्त है।
आधुनिक शिक्षा इस मान्यता को नकारती है और इस तरह वह नई नस्ल को एक ऐसी बुनियाद से वंचित कर रही है जो कि उसे हर हाल में जिलाए रख सकती है।
जब आदमी अपनी योग्यता के बल पर अपने हालात सुधरने से नाउम्मीद हो जाता है, तब भी एक आस्तिक को यह उम्मीद होती है कि उसका रब उसके हालात सुधारने की ताक़त रखता है और वह आशा और विश्वास के साथ प्रार्थना करता रहता है। इससे उसका मनोबल बना रहता है और मनोविज्ञान भी यह कहता है कि अगर आत्महत्या के इच्छुक व्यक्ति को कुछ समय भी आत्महत्या से रोक दिया जाए तो कुछ समय के बाद वह फिर आत्महत्या नहीं करेगा।
ईश्वर में आस्था और पारिवारिक रिश्तों के प्रति ज़िम्मेदारी का सही भाव आदमी को आत्महत्या से बचाते हैं।
1 comment:
हममें से अधिकतर को तो पता ही नहीं कि ईश्वर वारस्तव में होता क्या है। इसलिए,उसकी आस्था मनोनुकूल फल चाहती है जिसमें विफलता को तूल देने का ही नतीजा है आत्महत्या। मौत के बाद क्या होगा,इस पर सिर खपाना बेकार है क्योंकि हम उसके गवाह नहीं होंगे। लिहाज़ा,जीवन को ही साक्षी भाव से जीना एकमात्र उपाय है।
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