ग़ालिब का शेर
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल के बहलाने को गा़लिब ये ख़याल अच्छा है
दिल्ली में आपका भाई अनवर जमाल |
ग़ालिब के बुत के पास आपका भाई अनवर जमाल |
एक आम ग़लती
भाई अमरेंद्र कुमार त्रिपाठी जी ने भी एक बार फिर इस शेर को जब इन्हीं अर्थों में कहा तो मुझे लगा कि कुछ बात ग़ालिब की शायरी और उसके भाव कहना वक्त की ज़रूरत है।
भाई अमरेंद्र जी ! आप आस्ति-नास्तिक, संशयवादी या कुछ और जो भी आप होना चाहें, बेशक हो सकते हैं और अगर आप अपने नज़रिये को अपने शब्दों में कहेंगे तो फिर उसकी ज़िम्मेदारी भी केवल आपकी अपनी ही होगी। आप एक साहित्यकार हैं और आप जानते हैं कि किसी भी साहित्यकार के शब्दों से उसी के भाव को ग्रहण करना चाहिए। उसके शब्दों में अपने भाव को अध्यारोपित करना उस साहित्यकार के साथ ज़ुल्म होता है। आपने ऐसा ही कुछ उर्दू शायर ग़ालिब के साथ किया है। आप हिंदी के साहित्यकार हैं। अफ़सोस कि मैं अभी तक आपको पढ़ नहीं पाया हूं लेकिन आपकी पृष्ठभूमि बता रही है, आपके बारे में लोगों की गवाही बता रही है कि आप एक अच्छे साहित्यकार हैं। इसके बावजूद यह भी सच है कि आप उर्दू नहीं जानते। आप यह भी जानते हैं कि किसी साहित्यकार के साहित्य को ठीक से समझने के लिए मात्र भाषा का ज्ञान ही काफ़ी नहीं हुआ करता बल्कि उसके साथ दूसरी कई और भी चीज़ें दरकार होती हैं। जिनमें से एक यह भी है कि साहित्यकार की मनोदशा और उसके व्यक्तित्व को भी जाना समझा जाए, उसके जीवन के पहलुओं को भी सामने रखा जाए।
ग़ालिब की ज़िंदगी के कुछ पहलू
ग़ालिब का पूरा नाम असदुल्लाह था और उनका तख़ल्लुस पहले ‘असद‘ था बाद में ‘ग़ालिब‘ रखा। असदुल्लाह का अर्थ है अल्लाह का शेर और असद का अर्थ होता है शेर। उनका नाम उनके वालिदैन ने रखा था जिससे पता चलता है कि वे ईश्वर के वुजूद पर यक़ीन भी रखते थे और चाहते थे कि उनका बच्चा भी नेकी के रास्ते पर चले। मिर्ज़ा ग़ालिब द्वारा अपना तख़ल्लुस ‘असद‘ रखना भी यही बताता है कि वे भी ऐसा ही चाहते थे। बाद में किन्हीं कारणों से उन्होंने अपना तख़ल्लुस रखा ‘ग़ालिब‘। अरबी में ग़ालिब प्रभु परमेश्वर का ही एक सगुण नाम है। ‘ग़ालिब‘ का अर्थ है ‘प्रभुत्वशाली, सामर्थ्यवान‘।
पवित्र कुरआन में परमेश्वर की सामर्थ्य का परिचय देने के लिए यह शब्द बार-बार प्रयुक्त हुआ है।
ग़ालिब के वालिदैन इस्लामी मान्यताओं पर विश्वास रखने वाले दीनदार मुसलमान थे और ख़ुद उनकी बीवी भी एक निहायत शरीफ़ और दीनदार औरत थीं लेकिन ख़ुद ग़ालिब एक पक्के पियक्कड़ थे। इसके अलावा वे शतरंज, चैपड़ और जुआ भी खेलते थे। मिर्ज़ा जी का एक सितम पेशा डोमनी से इश्क़ भी उनके जीवन की एक ऐसी ही मशहूर घटना है जैसे कि आपके जीवन में दिव्या जी का आना और फिर चला जाना।
मिर्ज़ा ग़ालिब का नज़रिया अपने बारे में
मिर्ज़ा ग़ालिब इस इश्क़ से पहले काम के आदमी हुआ करते थे लेकिन इस कमबख्त इश्क़ ने उन्हें निकम्मा कर दिया था।
‘इश्क़ ने निकम्मा कर दिया ग़ालिब
वर्ना आदमी हम भी थे काम के‘
कहकर उन्होंने ख़ुद बताया है कि इश्क़ ने उनके जीवन को बुरी तरह प्रभावित किया है। ये सभी काम जन्नत में जाने से रूकावट हैं। इस बात को वे जानते थे कि जन्नत में दाख़िल होने के लिए अपने पैदा करने वाले रब का हुक्म मानना और गुनाह से बचना लाज़िमी है, महज़ जन्नत की ख्वाहिश करना या एक मुसलमान के घर पैदा हो जाना या दाढ़ी रखकर कुर्ता-पाजामा और टोपी पहनना या ख़तनाशुदा होना ही काफ़ी नहीं है। उनकी नज़र अपने आमाल पर थी जो कि ख़िलाफ़े इसलाम थे। अपने बुरे आमाल की वजह से वे ख़ुद को कमीना कहते थे।वर्ना आदमी हम भी थे काम के‘
मस्जिद के ज़ेरे साया इक घर बना लिया है
ये बन्दा कमीना हमसाया ए ख़ुदा है
ये बन्दा कमीना हमसाया ए ख़ुदा है
इसलाम के प्रति ग़ालिब का विश्वास अटल था
इस शेर से यह भी पता चलता है कि उन्हें ख़ुदा के वुजूद पर भी यक़ीन था और उसकी पवित्रता और उसकी महानता का भी। इसीलिए वे हज के लिए काबा जाना तो चाहते थे लेकिन ख़ुदा से अपने आमाल पर शर्मिंदगी का अहसास उनके अंदर बहुत गहरा था। उनके एक शेर से यह देखा जा सकता है।
काबे किस मुंह से जाओगे ‘ग़ालिब‘
शर्म तुमको मगर नहीं आती
इसी तरह उनके बहुत से शेर हैं जिनसे ख़ुदा और इसलाम के प्रति उनके अटल विश्वास को जाना जा सकता है। उन सबके साथ ही ग़ालिब के इस बहुचर्चित शेर को जब रखकर देखा जाता है तभी उनकी हक़ीक़ी मुराद को समझा जा सकता है।शर्म तुमको मगर नहीं आती
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिनदिल के बहलाने को गा़लिब ये ख़याल अच्छा है
एक साहित्यकार का फ़र्ज़ क्या होता है ?
ग़ालिब ने अपने समाज को बर्बादी से निकालने और उसे सही रास्ते पर लाने का कोई प्रयास नहीं किया बल्कि अपने आप को भी वे सही रास्ते पर नहीं ला पाए जबकि वे जानते थे कि सही क्या है ?
न सिर्फ़ यह बल्कि वे एक ऐसा साहित्य छोड़कर गए जो आज भी लोगों को उनके जीवन के असली मक़सद से हटाकर शराब और शबाब की ओर आकर्षित कर रहा है।
आपने लिखा है कि ‘साहित्य की सामाजिक उपादेयता को समझकर ही साहित्योन्मुख हूं। स्मरण रहे साहित्य समाज का दर्पण है और ‘हृदयहीनता की ओर बढ़ रहे कुटुंब का हृदय भी है। धर्म पर आपका अति विश्वास हो सकता है पर मैं ग़ालिब की बात ज़्यादा मुफ़ीद मानता हूं :
‘मुझको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब यह ख़याल अच्छा है‘
आपने जो शेर लिखा है, वह दोषपूर्ण है, सही वह है जो मैंने ऊपर लिखा है। इस शेर से आपने भी दूसरों की तरह ग़लत अर्थ ले लिया है। सही भाव वह है जो मैं ऊपर लिख चुका हूं। दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब यह ख़याल अच्छा है‘
यह सही है कि साहित्य समाज का दर्पण है लेकिन इसकी उपादेयता मात्र यही नहीं है। समाज के मार्गदर्शन में साहित्य की एक अहम भूमिका होती है। साहित्य समाज का दर्पण भी होता है और उसे दिशा भी देता है। ऐसा आप भी मानते होंगे।
विचार वस्तु मात्र हैं
साहित्य में विचार होते हैं। विचार भी एक वस्तु है। दूसरी चीज़ों की तरह विचार भी वही सार्थक होता है जो कि उपयोगी हो। कुछ विचार अनुपयोगी भी होते हैं और कुछ विचार घातक होते हैं। अनुपयोगी विचार आदमी की समय और ऊर्जा को नष्ट करते हैं अतः वे भी नुक्सान ही देते हैं। इस तरह उपयोग की दृष्टि से हम विचार को तीन प्रकार में बांट सकते हैं-
1. लाभकारी
2. व्यर्थ
3. घातक
हमारे साहित्य में ये तीनों ही तरह के विचार आपस में मिश्रित हैं और किसी हिंदी साहित्यकार के पास आज तक कोई पैमाना ऐसा न हुआ जिसके ज़रिये यह जानना मुमकिन होता कि कौन सा विचार लाभकारी है और कौन सा घातक ?
साहित्य का प्रभाव समाज पर
कोई भी साहित्य मात्र इस कारण तो लाभकारी नहीं माना जा सकता कि वह साहित्य है, बल्कि साहित्य का आकलन समाज पर पड़ने वाले उसके प्रभाव से किया जाता है। लोगों के मन और चरित्र पर वह क्या प्रभाव छोड़ता है ?, उन्हें क्या करने की प्रेरणा देता है ?, उसके प्रभाव में आकर लोग क्या करते हैं ?
इन बातों की बुनियाद पर साहित्य को अच्छा या बुरा कहा जाता है। यदि कोई साहित्य शिल्प की दृष्टि से परफ़ैक्ट है लेकिन उसके प्रभाव में आकर लोग नशे की लत अपना रहे हैं तो उसे अच्छा साहित्य नहीं कहा जा सकता। ग़ालिब के साहित्य पर भी यही बात लागू होती है और आपकी रचनायें मैंने पढ़ी नहीं हैं लेकिन आपकी बात से लगता है कि आप ईश्वर और धर्म को नैतिकता का स्रोत नहीं मानते और न ही इंसान के लिए उनमें विश्वास करना आप इंसान की प्राथमिक आवश्यकता ही मानते हैं।
भूलो मत मूल को
अगर आप अच्छे और बुरे का फ़र्क़ बताने वाले परमेश्वर को ही नज़रअंदाज़ कर देंगे तो फिर आप अपने साहित्य में भी नैतिकता और अच्छाई को क़ायम नहीं रख पाएंगे। ऐसा साहित्य समाज का दर्पण तो अवश्य हो सकता है लेकिन समाज के हितकर हरगिज़ नहीं हो सकता। ऐसे साहित्य का सृजन न केवल आपके जीवन और समय को नष्ट करेगा बल्कि आपके बाद वह हर उस आदमी का समय और चरित्र नष्ट करता रहेगा जो कि उसे पढ़ेगा।
कौन जानता है किसी चीज़ के आख़िरी अंजाम को ?
आप हरगिज़ ऐसा काम नहीं करना चाहेंगे कि जिसकी अंतिम परिणति आपके लिए और समाज के लिए घातक हो। लेकिन आप कैसे जान सकते हैं कि किस विचार और कर्म की अंतिम परिणति क्या होगी ?
क्योंकि चीज़ें मात्र अपने सामयिक प्रभाव के ऐतबार से ही नहीं देखी जातीं बल्कि वे अपने आख़िरी अंजाम के ऐतबार से भी देखी जाती हैं। कई बार एक बुरा आदमी शुरू में अच्छा लगता है लेकिन बाद में सारी इज़्ज़त को मिट्टी में मिलाकर रख देता है जैसा कि आपके साथ हुआ। कई बार ऐसा होता है कि आदमी शुरूआती नज़रिये के ऐतबार से किसी को ग़लत समझता है लेकिन बाद में उससे नफ़ा पहुंचता है जैसा कि आपको मुझसे पहुंचा। यह तो समझाने के लिए सामने की मिसाल के तौर पर है वर्ना इससे अच्छी मिसालें मौजूद हैं। यानि कुल मिलाकर इंसान का इल्म इतना कम और कमज़ोर है कि वह नहीं जानता कि जो चीज़ अपने पहले परिचय में भली लग रही है उसका अंजाम क्या होगा ?
हरेक मनभावन चीज़ हितकर नहीं होती
किसी भी चीज़ का मन को भा जाना हरगिज़ यह साबित नहीं करता कि वह लाभकारी भी है और न ही किसी चीज़ से विरक्ति का भाव मन में पाया जाना उसे निरर्थक साबित करने के लिए पर्याप्त है। मन और भावनाएं किसी विचार और वस्तु के नफ़े-नुक्सान को परखने के लिए सिरे से ही कोई कसौटी नहीं हैं, जिन पर कि एक साहित्यकार का सारा दारोमदार होता है।
तब नफ़े-नुक्सान को तय करने का असली पैमाना क्या है ?
जब आप उस पैमाने को दरयाफ़्त कर लेंगे तभी आप लाभकारी साहित्य सृजित करने की क्षमता से लैस हो पाएंगे।
क्या आप बता सकते हैं कि व्यक्ति और समाज के लिए सही-ग़लत और नफ़े-नुक्सान को निर्धारित करने का वास्तिक आधार क्या है ?
और उस तक एक साहित्यकार की हैसियत से आप कैसे पहुंचेगे ?
या आप सिरे से ऐसी कोई कोशिश ही ज़रूरी नहीं समझते ?
संवाद से सत्य की प्राप्ति अभीष्ट है
आप सार्थक साहित्य का सृजन कर सकें इसी कामना से यह संवाद आपके लिए क्रिएट किया गया है।
जो ग़लती ग़ालिब कर चुके हैं उसे दोहराना नहीं है बल्कि उसे सुधारना है। अपने और मानव जाति के बेहतर भविष्य के लिए सही-ग़लत के सही पैमाने का निर्धारण बहुत ज़रूरी है।
पहले भारत में लोग हाथ से या लाठी से नापते थे लेकिन आज नापने का स्टैंडर्ड पैमाना मीटर स्वीकार कर लिया गया है और कोई भी राष्ट्रवादी इस पर आपत्ति नहीं करता कि मीटर तो अंग्रेजों की देन है। जब अंग्रेज़ चले गए तो उनका दिया हुआ मीटर यहां क्या कर रहा है ? ,निकालो उनका मीटर देश से बाहर।
सही-ग़लत का मीटर हमसे लो या फिर हमें दो
अंग्रेज़ों का मीटर, थर्मामीटर और बैरोमीटर ग़र्ज़ यह कि उनके सारे मीटर देशवासी आज भी लिए घूम रहे हैं। जो मीटर उनके पास था वह उन्होंने दे दिया और आपने ले भी लिया लेकिन सही-ग़लत का मीटर उनके भी पास नहीं था और न ही आपके पास है। इसीलिए हिंदू भाई सही-ग़लत तो क्या बताएंगे बल्कि सारे मिलकर भी सही-ग़लत की परिभाषा तक नहीं बता सकते।
ऐसा मैं उन्हें नीचा दिखाने के लिए नहीं कह रहा हूं बल्कि एक हक़ीक़त का इज़्हार कर रहा हूं।
जिसे मेरी बात पर ऐतराज़ हो वह मेरे सवाल का सवाल का जवाब देकर दिखाए।
अगर अंग्रेजों के भौतिक मीटर आप ले सकते हैं तो फिर मुसलमानों आप सही-ग़लत नापने का मीटर क्यों नहीं ले सकते ?
अगर आपके पास पहले से ही मौजूद है तो फिर उसे सामने लाईये और हमें भी दीजिए।
आपका मीटर अच्छा हुआ तो हम भी उससे काम लेंगे।
‘वसुधैव कुटुंबकम्‘ : परिवार एक है तो उसका मीटर भी एक हो
अब सारी दुनिया में चीज़ों को नापने और जांचने के मीटर एक हो चुके हैं और विचार भी वस्तु होते हैं लिहाज़ा विचारों को नापने और जांचने के लिए भी कम से कम एक मीटर तो होना ही चाहिए और अगर समाज में बहुत से मीटर प्रचलित हों तो उनमें से जो बेहतर हो उसे सारे विश्व समाज के लिए स्टैंडर्ड मान लिया जाना चाहिए।
भौतिक क्षेत्र में ऐसा हो चुका है। अब सूक्ष्म भाव जगत में भी इस प्रयोग को आज़माने का वक्त आ चुका है। मेरा मिशन यही है। मानव जाति का एकत्व ही मेरा लक्ष्य है। कोई भी बंटवारा मुझे हरगिज़ मंज़ूर नहीं है, आपको भी नहीं होना चाहिए।
नोट - भाई अमरेंद्र से इस संवाद की पूरी पृष्ठभूमि जानने के लिए देखें उनकी टिप्पणी डा. दिव्या जी के संबंध में।
24 comments:
गालिब का अपने बच्चे की मौत पर 'क्यामत'
का जिक्र अर्थात विश्वास
जाते हुए कहते हो कि क्यामत को मिलेंगे
गोया क्यामत का दिन है और
Nice post .
@ जनाब इक़बाल साहब और मेरे तमाम प्यारे पाठकों ! निचे दिए गए लिनक्स भी देखें और लिंक्स देखकर अपने विचार उपलब्ध कराने का कष्ट करें।
http://lucknowbloggersassociation.blogspot.com/2010/12/virtual-communalism.html
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2010/12/patriot.html
ये दो लिंक्स अलग से वास्ते दर्शन-पठन आपके नेत्राभिलाषी हैं।
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/01/standard-scale-for-moral-values.html
http://www.pyarimaan.blogspot.com
Bahut Acha Anwer Bhai,
Jawab nahi rakha aapne Ghalib Saheb k bare me jankari dekar.
@ शुक्रिया शाहवेज़ भाई ! आपके आने से हौसला और ताक़त दोनों मिली हैं .
अपनी नज़रे इनायत बनाये रखियेगा . आपकी आमद से खन्नास कमज़ोर होंगे , याद रखियेगा .
फिर आप आग में घी डाल रहे हैं
आग में घी डालना हराम है
@ हमारे प्यारे भाई तारकेश्वर जी ! आग में घी डालते हैं हवन करने वाले आप जैसे भाई , हम नहीं ।
अजीब बात है कि आपके लिए आग लगाना भी जायज़ है और आग में घी डालना भी और हमारे लिए ग़ालिब के शेर पर बात करने पर भी पाबंदी , ये कैसी अंधेरगर्दी है साहब ?
हमारे यहां तो आग में घी डालना हराम समझा जाता है इसीलिए हम यज्ञ भी नहीं करते । हम तो नमाज़ क़ायम करते हैं और नमाज़ में आग कुछ काम आती नहीं। नमाज़ से पहले वुज़ू करनी पड़ती है और वुज़ू में काम आता है पानी । मस्जिद में आपको पानी मिलेगा और आग मिलेगी मंदिर में । आग वाले आप हैं , हम तो पानी वाले हैं । आपकी आग पर पानी हम डालते ही रहते हैं लेकिन आप चाहते ही नहीं कि आप की लगाई आग कोई बुझाये।
अब घी की भी सुन लीजिए...
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आपकी यह पोस्ट और पिछली भी पढ़ी...
जो कहना था यहाँ कहा है:-
हाँ मैं नहीं देता कभी भी, पैगाम अमन का : मुझे झगड़े पसंद जो हैं !
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ढंग से हिंदी समझलो फिर मंदिर मस्जिद की बात करना
थोडा दिमाग खोलो(अगर दिमाग है तो ) और समझो कि आग में घी एक मुहावरा है जिसका मतलब होता है बात को बढ़ाना तुम्हे ये बाते करके चाहे जितना फायदा हो लेकिन ग़ालिब सौ सौ आंसू बहाएगे.
--
दरअसल ग़ालिब के अक्सर अशआर को लोगों ने गलत ही समझा.
हिंदी में कहावत है और हिंदुओं में इबादत है ‘आग में घी डालना‘
जनाब पी. के. मिश्रा जी ! आपके खुद के पास दिमाग़ नहीं है और नफ़रत में आप अंधे भी हो चुके हैं। क्या आपने देखा नहीं है कि मैंने कहा है कि आग में घी डालना हराम है अर्थात मना है। आप कोट पैंट पहनकर ज़रूर अपनी चोट कटा बैठे लेकिन आपका मन आज भी अंधविश्वासी है। आप चाहे अंग्रेज़ों से पूछ लीजिए और चाहे अपने से भी गए बीते अफ़्रीक़ा के जंगलियों से पूछ लीजिए कि हम हर साल खरबों रूपये का चंदन, केसर और नारियल लकड़ियों में रखकर आग लगा देते हैं, ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ा देते हैं जबकि हमारे यहां लाखों गर्भवती महिलाएं और बालक कुपोषण और भूख के शिकार हैं तो क्या हमारे पास दिमाग़ है तब वे जो जवाब दें वह आकर मुझे बताना।
मैं तो किसी को कुछ कहता नहीं हूं लेकिन आप हैं कि जानवरों की फ़ोटो लगाकर मुझ पर लिखना शुरू कर देते हैं। ये फ़ोटो आप अपनी लगाते हैं या अपने दोस्तों की ?
कहने को तो मैं भी आपको ‘कछुआ कफ़न‘ कह सकता हूं जैसा कि आपने मेरे नाम के साथ खिलवाड़ किया है लेकिन मैंने आज तक कुछ नहीं कहा। क्यों नहीं कहा ?
इसलिए नहीं कहा कि यह बेचारा तो अपनी चोटी पहले ही कटाकर सूट पहनकर अंग्रेज़ सा हुआ फिर रहा है। धर्म के नाम पर इस बेचारे के पास कुछ नहीं है और संस्कृति के नाम पर जो था उससे भी यह अपना पिंड छुड़ाता ही जा रहा है। इस बेचारे कंगाल को क्या अहसास दिलाना। कर लेने दो थोड़ा बहुत गर्व बेकार का। समय का रथ इसकी बाक़ी बची हुई बेकार परंपराओं को रौंदता हुआ खुद निकल जाएगा। ये तो समय के साथ ताक़ंतवर आक़ाओं के मुताबिक़ खुद को बदलने वाली क़ौम का सदस्य है। काफ़ी कुछ बदल गया है और बाक़ी भी बदल जाएगा। बस समय लगेगा और समय का मैं इंतज़ार कर ही रहा हूं।
लेकिन आप हैं कि मुझे कहावतें सिखा रहे हैं और मेरे दिमाग़ पर शक कर रहे हैं। आप अपना दिमाग़ टटोलिए यह गया कहां ?
देश के अन्न में आग लगाना कौन सी समझदारी है ?
एक तो देश में घी का उत्पादन पहले ही कम है और जो है उसे भी देश के फ़ौजियों और बालकों को देने के बजाए आग में डाल दिया जाए। आपकी इन्हीं परंपराओं के कारण पहले भी हमारे देश की फ़ौजे कमज़ोर रहीं और थोड़े से विदेशी फ़ौजियों से हारीं हैं। कम से कम इतिहास की ग़लतियां अब तो न दोहराओ। दिमाग़ हो तो इन ज्ञान की बातों को समझने की कोशिश ज़रूर करना।
Hunger free India क्या भूखों की समस्या और उपासना पद्धतियों में कोई संबंध है ?- Anwer Jamal
वंदे ईश्वरम्
अनवर साहब,
बाकी का पता नहीं लेकिन इन वाक्यों पर हमारी शिकायत दर्ज की जाये। ये बिलो द बेल्ट है, और इतने अच्छे लेख में इस तरह के व्यक्तिगत चोट की कोई आवश्यकता नहीं थीं। बाकी, आप खुद जहीन हैं।
"मिर्ज़ा जी का एक सितम पेशा डोमनी से इश्क़ भी उनके जीवन की एक ऐसी ही मशहूर घटना है जैसे कि आपके जीवन में दिव्या जी का आना और फिर चला जाना।"
आभार,
नंगी लड़कियों के साथ क्यों सोते थे गांधी जी ?
@ आदरणीय नीरज जी ! चार साल पहले ग़ालिब के प्रशंसकों ने दिल्ली सरकार के सहयोग से ग़ालिब की हवेली को उसकी पुरानी सूरत में खड़ा कर दिया है । यह हवेली बल्लीमारान , दिल्ली में है और तब से गाने बजाने और नाचने का आयोजन हर साल होता है , जिसे सांस्कृतिक आयोजन कहा जाता है और इसमें गुलज़ार जैसे साहित्यकार भी भाग लेते हैं । इस समारोह का आयोजन यादगारे ग़ालिब के नाम से नृत्यांगना उमा शर्मा साहित्य कला परिषद के सहयोग से करती हैं । अभी पिछले हफ्ते जब यह आयोजन हुआ तो उसमें पवन वर्मा जी ने मिर्ज़ा ग़ालिब की जिंदगी के बारे में अपना एक लेख भी सुनाया ।
इसकी रिपोर्ट दैनिक हिंदुस्तान अंक 2 दिनांक 9 जनवरी 2011 पृष्ठ 14 पर छपी है । देखिए -
'ग़ालिब को गर्मियों में अंधेरी कोठरियों में समय बिताना , शतरंज , जुआ और चौपड़ खेलना पसंद था । मिर्ज़ा का किसी सितमपेशा डोमनी से इश्क की प्रसिद्ध घटना को भी पवन वर्मा ने सुंदर शब्दों में व्यक्त किया ।'
नीरज रोहिला जी , एक हिंदू विद्वान पवन जी ने इस बात को पेश किया और हिंदी के एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र ने इसे प्रकाशित किया तो पूरे देश में से किसी को कोई आपत्ति नहीं हुई लेकिन जब वही बात मैंने दोहराई तो आपको आपत्ति हो गई ।
आपको आपत्ति क्यों हुई ?
लोगों ने क्यों नहीं कहा कि पवन जी , आप ग़ालिब की शायरी से मतलब रखिए , बेवजह डोमनी से उनके इश्क के किस्से सुनाकर आप उन पर व्यक्तिगत चोट क्यों कर रहे हैं ?
ऐसे ही महात्मा गाँधी की जीवनी में लिखा मिलता है कि गाँधी जी ब्रह्मचर्य के प्रयोग करते थे और नाबालिग़ लड़कियों को नंगी करके उनके साथ सोते थे । अव्वल तो मेरी समझ में ब्रह्मचर्य का प्रयोग ही नहीं आया । गाँधी जी यही प्रयोग अपनी बीवी के साथ भी तो कर सकते थे । अपनी बीवी को तो उन्होंने माँ बना लिया था और दूसरे हिंदुओं की लड़कियों को नंगी करके उनके साथ लेट गए । सारे बड़े बड़े बैरिस्टर और शास्त्री हिंदू ये बेग़ैरती और कुकर्म होते चुपचाप देखते रहे और लौह पुरुष पटेल भी ?
आज भी लोग कहते हैं कि गाँधी जी का रास्ता एक आदर्श रास्ता है , उनके रास्ते पर चलो । अब अगर उन कहने वालों से कोई उनकी लड़कियां मांग ले कि मुझे आपकी लड़की के साथ गाँधी जी की तरह ब्रह्मचर्य के प्रयोग करने हैं तो वे बिल्कुल भी न देंगे और स्वामी नित्यानंद की तरह कोई अपना जुगाड़ ख़ुद कर भी ले तो उसे जेल भेज दिया जाता है ?
वही खिलवाड़ गाँधी जी ने किया और महात्मा कहलाए और वही काम जब एक साधु महात्मा ने किया तो वह मुजरिम कहलाया और जेल गया । ऐसा क्यों ?
अगर गांधी जी के काम आदर्श नहीं थे तो उन्हें ख़ामख़्वाह आदर्श भी मत कहिए , लोगों को भटकाईये मत । ढूंढिये कि वास्तव में दुनिया में कोई आदर्श हुआ भी है कि नहीं और अगर हुआ है तो कौन ?
ख़ैर , कहने का मक़सद यह है कि नेताओं और साहित्यकारों के जीवन से जुड़ी घटनाओं को बयान करना भारतीय समाज में मान्य है अतः इस पर आपका आपत्ति करना केवल यह बताता है कि या तो आप सभ्य समाज की परंपराओं से नावाक़िफ़ हैं या फिर आप भी दोहरे पैमाने रखते हैं गांधी जी और पटेल की तरह , और ये दोनों ही चीज़ें घातक हैं।
मुसलमानों का परम चरम पतन
... और यादगारे ग़ालिब के नाम से नाचने गाने का यह आयोजन हुआ कहां ?
इंडिया इस्लामिक सभागार मेँ ।
जो सभागार इंडिया में इस्लामिक एक्टिविटीज़ के लिए बनाया गया था वहां मुजरे हो रहे हैं ।
क्या यह मुसलमानों के परम चरम पतन का खुला प्रमाण नहीं है ?
और ऐसा कहने के पीछे मेरा मक़सद मुसलमानों को नीचा दिखाना नहीं है बल्कि यह सच्चाई सामने लाना है कि मुसलमान जिस दीन पर ईमान का दावा करते हैं उसका शऊर उन्हें कितना कम है ?
कुरआन के हुक्म के मुताबिक़ उनकी ज़िंदगी में अमल कितना कम है ?
जन्नत में दाख़िले के लिए महज़ ईमान का दावा काफ़ी नहीं है बल्कि सचमुच ईमान होना ज़रूरी है और रब पर ईमान है या नहीं इसका पता चलता है आदमी के अमल से कि आदमी का अमल रबमुखी है या मनमुखी ?
जन्नत का शाश्वत जीवन उसी को मिलेगा जिसने नेकी की राह में शाश्वत और अमर प्रभु के लिए अपनी जान दी होगी या जान देने का रिस्क उठाया होगा और जो लोग अपने मन की वासनाओं के कारण अपने रब से दूर होकर आज घिनौने जुर्म करके आनंद मना रहे हैं वे अपने रब तक पहुंचने वाले नहीं हैं ।
अनवर जी,
आप मेरी टिप्पणी का आशय समझे ही नहीं, इसका अफ़सोस है। मुझे आपत्ति अमरेन्द्र और दिव्या के नाम पर है, इन दोनों का नाम का गालिब और सितमपेशा डोमनी के साथ उल्लेख गैरजरूरी है और मुझे इस पर आपत्ति थी। आपने मेरी बात समझे बगैर एक लम्बा सा पन्ना तान दिया। अमरेन्द्र से आपका मतभेद है और उसमें कोई गलत बात नहीं, चर्चा से ही कुछ नया जानने को मिलता है लेकिन अमरेन्द्र के निजी जीवन का उल्लेख क्यों हों।
यहां ये भी बताता चलूँ कि मैं अमरेन्द्र को जानता तक नहीं और आपत्ति दर्ज करने के लिये जानना जरूरी भी नहीं।
खैर, क्या कहें।
नीरज
वर्ष 2010 की एक शर्मनाक घटना
@ नीरज रोहिला जी ! आपका तहे दिल से स्वागत है और आपकी आपत्ति का भी। मुझे बिल्कुल अफ़सोस नहीं है कि आप एक साधारण सी बात क्यों नहीं समझे ?
भाई अमरेंद्र को मालिक अमर बनाए और इंद्र से अधिक ऐश्वर्यवान भी और आपको भी और मुझे भी और मेरे सारे समर्थकों को भी और विरोधियों को भी और उन्हें भी जो मुझे जानते तक नहीं ।
आपकी तरह मैं भी अमरेंद्र जी को नहीं जानता था । पहली बार उनका नाम ही मैंने तब सुना था जब हमारे कम्युनिटी ब्लाग 'ब्लाग संसद' पर दिव्या जी ने उन पर चरित्रहीनता का घिनौना इल्ज़ाम लगाकर उन्हें सरेआम ज़लील करने का प्रयास किया था और उनकी सारी प्रतिष्ठा को एकबारगी ही वे धूल में मिलाने में सफल हो भी गई होतीं , अगर भाई महफ़ूज़ ने आकर दिव्या जी का सारा कच्चा चिठ्ठा सामने रखकर उनका भांडा न फोड़ दिया होता । आज भी दिव्या जी मौक़ा बेमौक़ा अमरेंद्र जी का सरेआम अपमान करने नहीं चूकतीं । वर्ष 2010 की यह सबसे शर्मनाक घटनाओं में से एक है जिसे हरेक बड़ा ब्लागर जानता है सो आप भी जानते होंगे और अभी भी दिव्या जी की ओर से अमरेंद्र जी की इज्जत पर हमले बंद नहीं हुए हैं । अमरेंद्र जी इसे अपने जीवन की सबसे घातक भूल और सबसे तिक्त अनुभव मानते हैं ।
इन सब बातों को आप मेरी पिछली पोस्ट से जान सकते हैं जिसका लिंक इस पोस्ट में भी दिया गया है । उसी पोस्ट में भाई अमरेंद्र जी ने धर्म को लेकर अपने और मेरे नजरिए को रेखांकित करने के लिए ग़ालिब का एक शेर उद्धृत किया था । उनकी टिप्पणी एक मुकम्मल पोस्ट की हकदार थी सो मैंने उनके लिए यह पोस्ट क्रिएट कर दी ।
इस तरह यह पोस्ट पिछली पोस्ट का ही एक हिस्सा है ।
अब आप यह बताएं कि अमरेंद्र जी से बात करते हुए उन्हें उस हादसे का उदाहरण क्यों न दिया जाए जो कि
1. उनकी ज़िंदगी की नाक़ाबिले फ़रामोश घटना है ।
2. जिसकी वजह से उन्हें मेरे ब्लाग पर आना पड़ा ।
3. जो कि अभी भी ज़ेरे बहस है ।
4. जो कि गुप्त नहीं है बल्कि सार्वजनिक है ।
5. जो कि भविष्य में भी अमरेंद्र जी को दंश देती रहेगी ।
?????
ग़ालिब के साथ तुलना किया जाना अमरेंद्र जी के लिए पूरी तरह सम्मानजनक है , किसी भी तरह से 'बिलो द बेल्ट' नहीं है ।
वह भी एक साहित्यकार हैं और ग़ालिब की तरह शोहरत के शिखर पर जाने की संभावना भी रखते हैं और मेरी दुआ है कि वे ग़ालिब से भी ज्यादा बुलंदी पर पहुँचे । बस एक कातर विनती यह है कि जो गलतियाँ ग़ालिब ने कीं वे उन्हें न दोहराएं । अपने सामने सही ग़लत का पैमाना हमेशा रखें और आपसे भी यही विनती है ।
आशा है कि आप मेरी विनती को अवश्य ही स्वीकार करेंगे ।
@ भाई अमरेंद्र जी ! आप भी आकर इन्हें बताएँ कि क्या मैंने ऐसा कुछ कहा है जिसे बिलो द बेल्ट कहा जा सके ?
आपको इस पोस्ट का लिँक भी मैं दे आया हूं ।
अनवरजी,
असल में मैने आपकी पिछली पोस्ट नहीं पढी थी और न ही उस पर लिखी टिप्पणियां । "हमारी वाणी" संकलक पर आपकी इस पोस्ट का लिंक मिला और मेरी टिप्पणी केवल इस पोस्ट से मिली जानकारी से सम्बन्धित थी।
मैं इस पोस्ट को केवल मिर्जा गालिब से सम्बन्धित मानकर चल रहा था जिसके चलते मैने उस वाक्य विशेष पर आपत्ति जतायी, जिसे अब मैं आपकी पुरानी पोस्ट और उस पर आयी टिप्पणियों के सन्दर्भ में वापिस लेता हूँ ।
लेकिन इस पोस्ट को एक बरस के बाद कोई और पढेगा तो शायद ही उस एक वाक्य का सन्दर्भ समझ में आये। आपने मेरी टिप्पणी पर विस्तार से पूरी बात लिखी इसके लिये आपका आभार,
नीरज
@ जमाल जी , ग़ालिब से तुलना को अनर्गल नहीं कहूंगा . यह किसी का भी स्वप्न होता है कि मौत तक ( बाद में भी ) ग़ालिब के हजारवें हिस्से के एक कतरे भर को भी पहुँच सके !
बाकी ग़ालिब पर भारतीय और भारत के बाहर के विद्वानों ने भी लिखा है , बोलने के लिए अध्ययन होना चाहिए , अभी उतना अध्ययन नहीं है , इसलिए अपने लिए सीखना प्राथमिक समझता हूँ , जजमेंटल होने के लिए तो विराट अध्ययन चाहिए जो फिलहाल मुझमें नहीं है !
Bahut Acha Anwer Bhai,
बहुत सुन्दर जानकारी, बहुत सटीक विवरण
आपका आलेख पढ़ गया हूँ. जितना ग़ालिब को आपने एक्स्प्लेन किया है उतना शायद ग़ालिब ने भी स्वयं को नहीं किया.
हम तो ज़मीन, जन्नत, स्वर्ग से उठ चुके हुए लोग हैं. ग़ालिब को कुछ हमारा भी रहने देते यार :))
----दर असल अनवर जमाल जैसे तमाम ऐसे मूर्ख व् अज्ञानी हैं जो न विज्ञान को जानते हैं न ज्ञान को न सामाजिकता को ---बस धूल में लट्ठ हांकते हैं ---देखिये...
१-‘वसुधैव कुटुंबकम्‘ : परिवार एक है तो उसका मीटर भी एक हो---मूर्खता की बात है...बच्चे, बूढ़े जवान, मर्द औरत सबका एक मीटर कैसे होसकता है ...क्या सभीको दो-दो रोटियों में टरकाया जायगा ...मीटर यथायोग्य होता है...
२-नंगी लड़कियों के साथ क्यों सोते थे गांधी जी ?
---तो क्या सारे कपड़े पहने लड़कियों के साथ सोयेंगे ? अरे कोई भी काम करो तो तमीज से करो...
३-हम हर साल खरबों रूपये का चंदन, केसर और
नारियल लकड़ियों में रखकर आग लगा देते हैं, ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ा देते हैं --
मूर्खता पूर्ण कथन है...फिर चन्दन केसर नारियल का क्या अचार डालेंगे...इन वस्तुओं से वातावरण का प्रदूषण कम होता है , ग्लोबल वार्मिंग इन सबसे नहीं होता, ...जमाल से किस , मूर्ख ने यह सब कह दिया ...
अनवर जी, ग़ालिब साहब के नाम और उनकी इतनी सारी खूबियों के बारे में बताने के लिये बहुत शुक्रिया.
Mr. Anwar it is not necessary to break by twist to present the reality of Mirza Ghalib's poetry. By the study of Mirza's whole life even a common person can understand that Ghalib did not believe in orthodox believes of Islam and about its teaches. to understand the reality of this poetry please listen the whole ghazal in voice of Jagjit Singh. All the damn that he had given to himself is not realy for him. Poets use an allusive language in which they use himself as a common human being. You claim to be a knower but you do not know even this small truth, shame of you. And so this is true that Ghalib did not believe in the nonsense of Jannat.
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