बहन निर्मला जी एक सीनियर ब्लागर हैं , लेखिका हैं और समाज में उनकी प्रतिष्ठा भी है । दूसरे बहुत से अमनपसंदों की तरह वे भी यह महसूस करती हैं कि धर्म को कुछ लोगों ने बंधक बना लिया है और उसके नाम पर पहले भी बहुत ख़ून बहाया गया है और आज भी बहाया जा रहा है । धर्म का नाम इन लोगों ने इतना बदनाम कर दिया है कि पढ़े लिखे लोग यह कहने पर मजबूर होने लगे हैं कि 'खुद को आध्यात्मिक बनाओ न कि धार्मिक ।'
बहन निर्मला जी इन हालात पर दुखी हैं और चाहती हैं कि धर्म को आजाद कराया जाए ताकि किसी को धर्म के नाम पर शोषण करने का मौका न मिल सके ।
लेकिन क्योंकि धर्म पर क़ब्ज़ा जमाने वाले लोगों के ख़िलाफ़ खड़े होने में ख़तरे ही ख़तरे हैं , इसलिए वे ख़ुद तो धर्म जाति और महिला-पुरुष आदि विषयों पर टिप्पणी करने से भी बचती हैं लेकिन फिर भी वे चाहती हैं कि दूसरे लोग खतरा उठाएं , अपनी प्रतिष्ठा गवाएं और धर्म को आजाद कराएं। दूसरे लोग भी उन्हीं की बुद्धि रखते हैं वे भी यही सोचते हैं कि धर्म को आजाद कराने के लिए बलि कोई और चढ़े। जो लोग ऐसा सोचते हैं वे लोग कभी आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर सकते क्योंकि जिन लोगों के बारे में यह माना जाता है कि वे आध्यात्मिक गुरु हैं , उन्होंने कहा है कि 'जो घर बालै आपणा चलै हमारे साथ' । इन लोगों में अपने घर में आग लगाने की , अपना सब कुछ कुर्बान करने की हिम्मत ही नहीं है । ये लोग अपना सब कुछ भला कैसे लुटा सकते हैं ? जबकि इनके जीवन का मकसद ही ऐशो आराम के ज़्यादा से ज़्यादा साधन जुटाना भर है। इसीलिए ये लोग धर्म को बंधक बनाए जाते हुए खामोश देखते रहते हैं । ठेकेदार ग्रुप धर्म को बंधक बनाने का हौसला ही तब करता है जबकि वह देख लेता है कि बुद्धिजीवी लोग अपने नुक़्सान के डर से कुछ नहीं बोलेंगे । धर्म को बंधक बनाए जाने के पाप में ये बुद्धिजीवी भी बराबर के भागी हैं । जब अपने घर जलाने की जरूरत होती है तब ये लोग रूम हीटर जलाकर या ए. सी. चलाकर गाना गाते हैं , कहानियाँ सुनाते हैं , नए बिम्ब और अलंकार ढूंढते हैं । इसका नाम इन्होंने रचनात्मक कार्य रख छोड़ा है और जो काम वास्तव में रचनात्मक है उसे ये कभी करते नहीं हैं । उसकी प्रेरणा ये दूसरों को देते हैं और अगर कोई दूसरा धर्म के लिए कुछ कर रहा होता है तो ये लोग उसके समर्थन में दो शब्द तक बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते ।
ये लोग समझते हैं कि धार्मिक हुए बिना आध्यात्मिक बना जा सकता है । दरअस्ल ये लोग पूजा पाठ आदि कर्मकांड को , उपासना के तरीक़ों को धर्म समझते हैं और मानवीय गुणों की प्राप्ति को आध्यात्मिकता। इसी वजह से ये लोग आध्यात्मिकता को धर्म से अलग समझ लेते हैं।
'अध्यात्म' शब्द 'अधि' और 'आत्म' दो शब्दों से मिलकर बना है । अधि का अर्थ है ऊपर और आत्म का अर्थ है ख़ुद । इस प्रकार अध्यात्म का अर्थ है ख़ुद को ऊपर उठाना । ख़ुद को ऊपर उठाना ही मनुष्य का कर्तव्य है। ख़ुद को ऊपर उठाने के लिए प्रत्येक मनुष्य को कुछ गुण धारण करना अनिवार्य है जैसे कि सत्य, विद्या, अक्रोध, धैर्य, क्षमा और इंद्रिय निग्रह आदि । जो धारणीय है वही धर्म है । कर्तव्य को भी धर्म कहा जाता है। जब कोई राजा शुभ गुणों से युक्त होकर अपने कर्तव्य का पालन करता तभी वह ऊपर उठ पाता है । इसे राजधर्म कह दिया जाता है । पिता के कर्तव्य पालन को पितृधर्म की संज्ञा दे दी जाती है और पुत्र द्वारा कर्तव्य पालन को पुत्रधर्म कहा जाता है। पत्नी का धर्म, पति का धर्म, भाई का धर्म, बहिन का धर्म, चिकित्सक का धर्म आदि सैकड़ों नाम बन जाते हैं । ये सभी नाम नर नारियों की स्थिति और ज़िम्मेदारियों को विस्तार से व्यक्त करने के उद्देश्य से दिए गए हैं। सैकड़ों नामों का मतलब यह नहीं है कि धर्म भी सैकड़ों हैं । सबका धर्म एक ही है 'शुभ गुणों से युक्त होकर अपने स्वाभाविक कर्तव्य का पालन करना'। सबका धर्म एक ही है और सदा से है । धर्म की इसी सनातन प्रकृति को व्यक्त करने के लिए धर्म को सनातन भी कहा गया है लेकिन इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं है कि यह धर्म केवल संस्कृत जानने वालों के लिए या भारत में रहने वालों के लिए ही सदा से चला आ रहा है । सारी धरती के मनुष्यों का सदा से यही एक धर्म है कि वे अपने लिंग , पद और स्थिति के अनुसार शुभ गुणों से युक्त होकर अपने कर्तव्यों का पालन करके खुद को ऊपर उठाएं । इसी एक धर्म को संसार की हजारों भाषाओं में हजारों नामों से व्यक्त किया गया है । हजारों नामों के कारण न तो धर्म हजारों हो जाते हैं और न ही एक धर्म हजारों टुकड़ों में खंडित हो सकता है। हजारों नामों से तो धर्म की महिमा और उसकी अनिवार्यता का पता चलता है ।
जो मर जाए वह ईश्वर नहीं होता और जिसे कोई बाँध ले वह धर्म नहीं होता । धर्म को कोई कैसे बाँध सकता है वह तो खुद दूसरों को माया के बंधन से मुक्त करता है, पतन के गर्त से ऊपर उठाता है । हाँ , इसके नाम पर लोग जरूर कब्जा जमा सकते हैं । भाषा को बाँधना संभव है इसलिए कुछ लोग धर्म के नाम को जरूर बंधक बना सकते हैं । कुछ लोग धर्म के एक नाम को बंधक बना लेते हैं तो कुछ लोग दूसरे नाम को । कुछ लोग मानवता और शांति जैसे नामों को बंधक बना लेते हैं जो कि वास्तव में धर्म के ही प्रभाव और परिणाम हैं ।
अपना सब कुछ मनुष्य को अंततः त्यागना ही पड़ता है कुछ लोग धर्म के लिए अपनी इच्छा से त्यागते हैं और जो अपनी इच्छा से नहीं त्यागते, उन्हें अनिच्छापूर्वक त्यागना पड़ता है अपनी मौत के समय। उठे हुए व्यक्ति में और गिरे हुए व्यक्ति में यही अंतर है ।
ऐसा मैं समझता हूँ लेकिन जरूरी नहीं है कि मेरी समझ बिल्कुल सही हो । अगर किसी और को मेरी बात ग़लत लगती है तो वह मुझे बताए ताकि मैं उसकी बात मानते हुए अपनी गलती सुधार लूं ।
बहन निर्मला जी से विशेष रूप से सादर कातर विनती है कि वे ग़लती ज़रूर सुधारें। मेरी गलती पाएँ तो मेरी सुधार दें और अगर अपनी पाएँ तो अपनी सुधार लें । आप बड़ी हैं । आप जो भी करेंगी उससे दूसरों को भी प्रेरणा मिलेगी।
मेरे लेख का उद्देश्य यही है ।
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