इस तथ्य से भला कौन इंकार कर सकता है कि तथाकथित प्रगतिशीलता और उत्तर आधुनिकता के इस दौर में भी भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा धर्म, संस्कृति, परम्परा और मर्यादा के नाम पर स्त्रियों का, विशेषतया विधवाओं का निरंतर दमन एवं शोषण कर रहा है।
रूढ़िवादी समाज की क्रूरताओं और बेड़ियों में छटपटाती विधवाओं के जीवन को आधार बनाकर असमिया की लब्ध प्रतिष्ठित रचनाकार इन्दिरा गोस्वामी का उपन्यास ‘नीलकंठी ब्रज’ विधवाओं के जीवन को दारुण वास्तविकताओं के चित्रण के साथ-साथ पुरुष वर्चस्व की घृणित परिणतियों के शोषण चक्र के रूपाकार की भी निर्मम व्याख्या करता है।
डाक्टर राय चौधरी की कच्ची उम्र में विधवा हुई बेटी सौदामिनी के ईसाई युवक के प्रति आकर्षित होने से कट्टर सनातनी धर्मभीरू पिता का पत्नी अनुपमा सहित ब्रजवास आगमन केउपरांत राधेश्यामियों के बीच जीवन की उद्दाम तरंगों की गला घोंटने की कारूणिकता पाठक को भिगो देती है। ब्रजमंडल की लीलाभूमि में शशिप्रभा का पुजारी आलमगढ़ी द्वारा यौन शोषण तथा रूढ़ियों-बेड़ियों में जकड़ी ‘राधेश्यामी’ विधवाओं के नारकीय जीवन की भयावहता सहज ही झिंझोड़ देती है।
अपनी नैसर्गिक इच्छाओं पर निरंतर दमन से इन ब्रजवासी विधवाओं के कंकाल जैसी देहों पर लिपटी मैली कुचैली धोतियों में लिपटे उनके मनोविज्ञान को उभारते हुए लेखिका का कहना है, ‘एक बार फिर वे प्रेतात्माएं हंस पड़ी। उनकी हंसी इस तरह कर्कशा थी, मानो अस्थियों का खड़ताल बज उठा हो।’
इन्हीं कठोर निर्मम बेड़ियों की जकड़न का ही नतीजा है कि जब महाप्रभु रंगनाथ की परिक्रमा या विलास विनोद की आम्रकुंजके लिए शोभा यात्रा निकलती है तो अपनी जीर्ण शीर्ण टूटी फूटी कोठरियों से ये अनायास निकल पड़ती है और इनके दुबले पतले हाथ पैरों में खून के दौरे से उन्माद सा उतर आता है। लेखिका ने संसार के सार और जगत के कर्म स्थान ब्रज में पंडो-दलालों के दुष्कृत्यों व मरी हुई बुढ़िया के क्रिया कर्म तक में छीनाझपटी व जूतम पैजार की बखिया उधेड़ी है।
शरीर और दिमाग के उत्ताप को जीने की लालसा में सांस लेते इन पात्रों की मनोव्यथा के जरिए लेखिका धर्म, संस्कृति और परम्परा के नाम पर भारतीय समाज में विशेषतया विधवा जीवन के रस को सोखने वाली चालों-कुचालों, एकाकीपन एवं परावलंबन के भीषण यथार्थ को संजीदा अभिव्यक्ति प्रदान करती है।
लेखिकाः इंदिरा गोस्वामी, अनुवादकः दिनेश द्विवेदी, प्रकाशकः भारतीय ज्ञानपीठ, मूल्यः 140 रुपये
रूढ़िवादी समाज की क्रूरताओं और बेड़ियों में छटपटाती विधवाओं के जीवन को आधार बनाकर असमिया की लब्ध प्रतिष्ठित रचनाकार इन्दिरा गोस्वामी का उपन्यास ‘नीलकंठी ब्रज’ विधवाओं के जीवन को दारुण वास्तविकताओं के चित्रण के साथ-साथ पुरुष वर्चस्व की घृणित परिणतियों के शोषण चक्र के रूपाकार की भी निर्मम व्याख्या करता है।
डाक्टर राय चौधरी की कच्ची उम्र में विधवा हुई बेटी सौदामिनी के ईसाई युवक के प्रति आकर्षित होने से कट्टर सनातनी धर्मभीरू पिता का पत्नी अनुपमा सहित ब्रजवास आगमन केउपरांत राधेश्यामियों के बीच जीवन की उद्दाम तरंगों की गला घोंटने की कारूणिकता पाठक को भिगो देती है। ब्रजमंडल की लीलाभूमि में शशिप्रभा का पुजारी आलमगढ़ी द्वारा यौन शोषण तथा रूढ़ियों-बेड़ियों में जकड़ी ‘राधेश्यामी’ विधवाओं के नारकीय जीवन की भयावहता सहज ही झिंझोड़ देती है।
अपनी नैसर्गिक इच्छाओं पर निरंतर दमन से इन ब्रजवासी विधवाओं के कंकाल जैसी देहों पर लिपटी मैली कुचैली धोतियों में लिपटे उनके मनोविज्ञान को उभारते हुए लेखिका का कहना है, ‘एक बार फिर वे प्रेतात्माएं हंस पड़ी। उनकी हंसी इस तरह कर्कशा थी, मानो अस्थियों का खड़ताल बज उठा हो।’
इन्हीं कठोर निर्मम बेड़ियों की जकड़न का ही नतीजा है कि जब महाप्रभु रंगनाथ की परिक्रमा या विलास विनोद की आम्रकुंजके लिए शोभा यात्रा निकलती है तो अपनी जीर्ण शीर्ण टूटी फूटी कोठरियों से ये अनायास निकल पड़ती है और इनके दुबले पतले हाथ पैरों में खून के दौरे से उन्माद सा उतर आता है। लेखिका ने संसार के सार और जगत के कर्म स्थान ब्रज में पंडो-दलालों के दुष्कृत्यों व मरी हुई बुढ़िया के क्रिया कर्म तक में छीनाझपटी व जूतम पैजार की बखिया उधेड़ी है।
शरीर और दिमाग के उत्ताप को जीने की लालसा में सांस लेते इन पात्रों की मनोव्यथा के जरिए लेखिका धर्म, संस्कृति और परम्परा के नाम पर भारतीय समाज में विशेषतया विधवा जीवन के रस को सोखने वाली चालों-कुचालों, एकाकीपन एवं परावलंबन के भीषण यथार्थ को संजीदा अभिव्यक्ति प्रदान करती है।
लेखिकाः इंदिरा गोस्वामी, अनुवादकः दिनेश द्विवेदी, प्रकाशकः भारतीय ज्ञानपीठ, मूल्यः 140 रुपये
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आज 'हिन्दुस्तान' में इस पुस्तक की समीक्षा छपी है . इसे आप ऑनलाइन भी देख सकते हैं :
17 comments:
बहुत अच्छी पोस्ट, शुभकामना, मैं सभी धर्मो को सम्मान देता हूँ, जिस तरह मुसलमान अपने धर्म के प्रति समर्पित है, उसी तरह हिन्दू भी समर्पित है. यदि समाज में प्रेम,आपसी सौहार्द और समरसता लानी है तो सभी के भावनाओ का सम्मान करना होगा.
यहाँ भी आये. और अपने विचार अवश्य व्यक्त करें ताकि धार्मिक विवादों पर अंकुश लगाया जा सके.,
मुस्लिम ब्लोगर यह बताएं क्या यह पोस्ट हिन्दुओ के भावनाओ पर कुठाराघात नहीं करती.
अच्छे है आपके विचार, ओरो के ब्लॉग को follow करके या कमेन्ट देकर उनका होसला बढाए ....
बहुत सुन्दर पोस्ट
भगवान हनुमान जयंती पर आपको हार्दिक शुभकामनाएँ.
@ Rajpurohit ji ! हनुमान जी को भगवान तो मेरे पूर्वज श्री रामचंद्र जी ने भी नहीं माना भाई .
बहुत अच्छी पोस्ट, शुभकामना!
@हनुमान जी को भगवान तो मेरे पूर्वज श्री रामचंद्र जी ने भी नहीं माना भाई
अनवर जमाल जी कब सुधरेंगे आप ?
लगता है आपकी कुतर्क की आदत जाएगी नहीं.
कृपया हिंदी फिर से सीखें तो आपके लिए अच्छा होगा.
भगवान और इश्वर में अंतर होता है.
भगवान का अर्थ होता है ऐश्वर्य युक्त.
जो भी महान आत्मा होता है उन्हें हम भगवान कहते हैं
किन्तु इश्वर एक होता है जो की परम पिता परमात्मा है.
@ मदन शर्मा जी ! आप कहते हैं कि
भगवान और ईश्वर में अंतर होता है.
भगवान का अर्थ होता है ऐश्वर्य युक्त.
जो भी महान आत्मा होता है उन्हें हम भगवान कहते हैं
किन्तु ईश्वर एक होता है जो की परम पिता परमात्मा है.
मदन शर्मा जी ! भगवान का जो अर्थ आप बता रहे हैं उसे आप संस्कृत के किसी शब्दकोष में तो दिखा नहीं सकते , आप जैसे लोग खुद ही किसी भी चीज़ को भगवान बना लेते हो और किसी भी शब्द का कुछ भी अर्थ घोषित कर देते हो. आपको अपनी बात के पक्ष में प्रमाण देना चाहिए. आपकी बात सही होगी तो मैं आपकी बात मान लूँगा.
अनवर जमाल जी बहुत दुःख होता है की आपको इतना भी नहीं पता!
लगता है आपको बच्चों की तरह पढाना पड़ेगा.
भगवान एक यौगिक शब्द है .
भग +वान = भगवान
भग= ऐश्वर्य
वान= युक्त
@ मदन शर्मा जी ! आप संधि-विच्छेद करके जो अर्थ जबरन निकाल रहे हैं उसका आधार और स्रोत क्या है ?
किसी ग्रन्थ का हवाला तो दीजिये .
भाई अनवर जमाल जी आप भी कैसी बच्चों सी बातें कर रहे हैं ?
लगता है आपने हिंदी व्याकरण ठीक से नहीं पढ़ा!
ये तो एक छोटा से छोटा बच्चा भी बता देगा.
यदि किसी विषय में ज्ञान न हो तो फालतू में टांग नहीं अडाना चाहिए.
मेरी आपको सलाह है की पहले आप हिंदी व्याकरण किसी अच्छे गुरु से सीखिए
फिर इस विषय पर बात कीजिये. मेरे पास आप जैसे लोगों को समझाने के लिए
अब फालतू का वक्त नहीं है
इस विषय को यहीं समाप्त समझा जाय
@ शर्मा जी ! आपके पास समय नहीं है तो हम तो आपको बुलाने नहीं गए थे . हमारे पास आये थे तो सोचकर आते कि अब वो ज़माने नहीं रहे कि जब लोग पंडत की बात इसलिए मान लेते थे कि पंडत जी कह रहे हैं . लोगों के इसी भोलेपन का फायदा उठाकर आपने जानवरों को इंसानों का भगवान घोषित कर दिया . घोर पाप किया पंडत जी आप जैसे लोगों ने .
विधवाओं की दुर्दशा के पीछे भी यही कारण है , जो कि इस पोस्ट का विषय है . लेकिन इस्लाम के प्रभाव में आकर विधवाओं की सोच काफी बदल गयी है. अब वे भी जीना चाहती हैं .
अगली बार जब आप आयें तो समय निकलकर और प्रमाण ढूंढ कर ज़रूर लायें .
आप ने कहा- हनुमान जी को भगवान तो मेरे पूर्वज श्री रामचंद्र जी ने भी नहीं माना भाई
यदि यही बात आप से कहा जाय की आप के दादा ने तो आपके पिता को अपना बाप नहीं माना तो क्या आप अपने पिता को अपना बाप नहीं मानेंगे.
मैं पहले भी कह चूका हूँ की भगवान एक यौगिक शब्द है जो की विशेषण के रूप में प्रयोग होता है. अधिकतर यौगिक शब्दों के अर्थ आपको किसी भी विश्व कोष में नहीं मिलेगा. उनका अर्थ संधि विच्छेद कर के ही प्रकरण के अनुसार किया जाता है.
इसलिए मैं आपसे पुनः कहता हूँ की आप मुस्लिम मजहब की मानसिक संक्रिनता से बाहर आईये तथा पहले मुस्लिम मजहब की गलत बातों को सुधारिए.
मैं भी आपकी तरह धार्मिक अंध विश्वासों का कट्टर विरोधी हूँ तथा जो बातें गलत हैं उन्हें गलत ही मानता हूँ तथा सत्य का समर्थन भी करता हूँ जहाँ तक बहस की बात है बहस विषय के अनुसार कीजिये विषय से भटक कर अनर्गल प्रलाप न कीजिये.
हे ईश्वर हमारे अनवर जमाल को सदबुद्धि दो.
मदन शर्मा जी ! आपने कहा है कि
जिस विषय का ज्ञान न हो , आदमी को उसमें अपनी टाँग नहीं अड़ानी चाहिए
इसके बावजूद आप भाषा और व्याकरण में बिना जाने ही अपनी टाँग अड़ा रहे हैं ?
मान्यवर, संस्कृत एक समृद्ध भाषा है । इसमें जो भी शब्द मौजूद है , उसकी एक धातु भी अवश्य होती है। अगर आप यह बात जानते हैं तो कृप्या बताएँ कि 'भगवान' शब्द किस धातु से बना है ?
इसी बात से आप जान लेंगे कि आप भगवान शब्द का ग़लत अर्थ बता रहे हैं । इसी से आप यह भी महसूस कर सकते हैं कि जब आपको भगवान शब्द तक के बारे में जानकारी सही नहीं है तो फिर भगवान के बारे में कैसे हो सकती है ?
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