डाक्टर श्याम कुमार गुप्ता जी हमारे अर्द्धमित्रों में से एक हैं . उनसे हमारी चुहल चलती ही रहती है. उन्हें हमारे बिना चैन नहीं पड़ती और हमें उनके बिना . आज वह हमसे बहस कर रहे हैं 'खुशामद' पर. हमने शालिनी जी की थोड़ी सी तारीफ़ क्या कर दी कि उन्होंने हमें आड़े हाथों ले लिया . हमने उन्हें समझाया कि भाई साहब यह खुशामद नहीं है बल्कि तारीफ़ है, लेकिन वह श्याम गुप्ता जी हैं कोई साधारें आदमी नहीं जो सही बात तुरंत मान जाएँ . लिहाज़ा हम 'तारीफ़ और खुशामद में फ़र्क़' बताने के लिए यह आर्टिकल 'भास्कर. कॉम' से साभार पेश कर रहे हैं . आप भी समझिये और डाक्टर साहब को भी समझिए:
गोपालकृष्ण गांधी |
सिक्के की तरह सराहना के भी दो पहलू होते हैं। एक वह जो सराहता है। दूसरा वह जिसे सराहा जाता है। पहले सराहना करने वाले के बारे में विचार करते हैं। आभार, प्रशंसा, अनुमोदन या सराहना का प्रारंभिक और सबसे विशुद्ध स्वरूप वह होता है, जिसमें शब्दों या संकेतों की कोई भूमिका नहीं होती।- लेखक पूर्व प्रशासक, राजनयिक व राज्यपाल हैं।
यह मूक आभार किसी नवजात शिशु द्वारा उन हाथों के प्रति प्रदर्शित किया जाता है, जो उसे अपने कलेजे से सटाकर रखते हैं। अक्सर ये हाथ मां के होते हैं। आभार का इससे सच्चा स्वरूप कोई दूसरा नहीं है। सराहना के लिए एक शब्द का इस्तेमाल किया जाता है : शाबाश। इसमें प्रशंसा के साथ ही प्रोत्साहन का भी भाव होता है।
जब हम अभिनव बिंद्रा या विजेंदर सिंह, सचिन तेंदुलकर या साइना नेहवाल को शाबाशी देते हैं तो हम उनके खेल की सराहना करने के साथ ही उनकी हौसला अफजाई भी करते हैं। जब यही सराहना बड़े-बुजुर्गो द्वारा की जाती है तो उसे आशीष या मंगल कामना कहा जाता है।
बुजुर्गो की सराहना में प्रशंसा के साथ ही प्रार्थना का भी भाव होता है। प्रार्थना यह कि हम इसी तरह यश प्राप्त करते रहें। सराहना का एक और रूप वह है, जिसमें अनुमोदन होता है। जैसे : ‘बहुत खूब, लगे रहो’। इसमें श्रेय देने का भाव होता है। इस सराहना में हमारी उपलब्धियों के लिए हमारी पीठ थपथपाई जाती है। लेकिन कुछ लोग इस तरह सराहना करते हैं, जैसे उसके एवज में उन्हें भी कुछ चाहिए।
इशारों की दुनिया में शब्दों की कोई जरूरत नहीं होती, जैसे तालियां बजाना। आम तौर पर किसी व्यक्ति को सराहने के लिए तालियां बजाई जाती हैं। लेकिन तालियों में कुछ-कुछ ‘आरोहण’ जैसी बात होती है। जैसे कोई चीज हमें ऊपर उठा रही हो। यह ऐसा ही है, जैसे सराहना के ‘सा’ को मंद्रसप्तक से तारसप्तक में पहुंचा दिया गया हो।
विनम्रतापूर्वक आभार जताने के लिए हम धीमे-से तालियां बजाते हैं। सराहना में तालियों का स्वर थोड़ा ऊपर उठ जाता है। जबकि प्रशंसा में बजाई गई जोरदार तालियां वे होती हैं, जिनसे सभागार गूंजने लगता है। लेकिन शायद तालियों के माध्यम से सराहना की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति वह होती है, जब तालियां दिमाग से नहीं, दिल से बजाई जाती हैं।
सराहना में जब भावना शामिल हो जाती है, तब तालियां थमना नहीं चाहतीं। वे खुशी के मौके को हाथ से जाने नहीं देना चाहतीं। तालियां देर तक बजती हैं और अपने उल्लास को दूर तक पहुंचा देती हैं। प्रशंसा के इस स्वरूप में थोड़ा निस्वार्थ भाव भी है।
यह ऐसी प्रशंसा है, जो फुहारों की तरह पूरे हृदय से अपने अनुग्रह को व्यक्त करती है। इस प्रशंसा का कारण कुछ भी हो सकता है : कोई ऐसा गीत, जो दिल को छू गया हो। किसी बल्लेबाज द्वारा खेली गई कोई महान पारी या किसी एथलीट द्वारा किया गया शानदार प्रदर्शन। या नेक इरादों के साथ किया गया कोई काम, जिसके प्रति हमारे मन में सराहना फूट पड़ी हो।
मैंने करतल ध्वनि के साथ की गई इस तरह की सराहना देखी है। जब बांग्लादेश के पितृपुरुष शेख मुजीबुर्रहमान कैद से छूटकर दिल्ली पहुंचे और जब नेल्सन मंडेला बेड़ियों से मुक्त हुए, तब उनका स्वागत इसी तरह किया गया था। मैं कल्पना कर सकता हूं, नजरबंदी से मुक्त होने के बाद स्वतंत्रतापूर्वक अपने देश की यात्रा कर रहीं आंग सान सूची का भी इसी तरह स्वागत किया जाता होगा, क्योंकि म्यांमार के लोग उन्हें प्यार करते हैं।
इन सभी में सराहना करने वाले और सराहे जाने वाले समान हैं। दोनों एक-दूसरे के परिपूरक हैं। लेकिन सराहना का एक स्याह पहलू भी है। मैं इसे मनुष्य के स्वभाव की चालाकी ही कह सकता हूं, जिसके कारण सराहना अभिव्यक्ति के स्थान पर एक उपकरण बनकर रह गई है।
सही अनुपात में की जाने वाली सराहना वह है, जो किसी व्यक्ति की उपलब्धियों के अनुरूप होती है। लेकिन जब गुणगान के गणित के तहत अतिशयोक्ति के साथ सराहना की जाती है तो उसका स्वरूप विकृत हो जाता है। खुशामद के मकसद से की जाने वाली सराहना एक रोग की तरह होती है। यह संक्रामक रोग है। अतिशयोक्तियां बढ़ती जाती हैं, अंकगणित की गति से नहीं, बल्कि बीजगणित की चाल से।
लेकिन यह कोई नई बात नहीं। खुशामद या चाटुकारिता के मकसद से की जाने वाली सराहना उतनी ही पुरानी है, जितना कि हमारा महाकाव्यात्मक साहित्य। सराहना है ‘प्रशंसा’। खुशामद है ‘प्रशस्ति’। हमें आजकल के उन लोगों को दोषी नहीं ठहराना चाहिए, जिन्होंने सराहना की स्वाभाविक कला को खुशामद के विज्ञान का रूप दे दिया है।
वास्तव में वे एक लंबी और स्थापित परंपरा का अनुसरण कर रहे हैं। फर्क केवल इतना है कि उसमें उन्होंने कुछ और नई चीजें जोड़ दी हैं। लेकिन उन्हें दोषी नहीं ठहराने का यह मतलब नहीं कि हमें उनका अनुसरण करना चाहिए। खुशामद के भी दो पहलू होते हैं।
एक वह जो खुशामद करता है, दूसरा वह जिसकी खुशामद की जाती है। संस्कृत में खुशामद के लिए एक शब्द है : मुखस्तुति। यह एक शब्द ही सारी कहानी बयां कर देता है। किसी व्यक्ति के सामने उसकी प्रशंसा करने का अर्थ है मुखस्तुति। यह किसी व्यक्ति के पीछे उसकी निंदा करने जितना ही बुरा है। सराहना की ही तरह खुशामद के भी कई प्रकार होते हैं।
वार्षिक कार्यक्रम उत्सव का अवसर होते हैं, लेकिन वे खुशामद का मंच बनकर रह गए हैं। इतना ही नहीं, इस तरह के आयोजनों में खुशामद की होड़ भी लग जाती है। यदि कोई कहता है कि यह एक महान व्यक्ति की जयंती है, तो दूसरा कहता है यह महानतम व्यक्ति का जन्म दिवस है।
हम फैलाव और स्फीति के युग में जी रहे हैं। गद्य फैलकर लफ्फाजी बन जाता है। कविता फैलकर महाकाव्य बन जाती है। नाटक फैलकर अतिनाटक बन जाता है। जब मुखस्तुति का क्रम साल-दर-साल जारी रहता है तो जिनकी स्तुति की जा रही है, वे भी अंतत: यह महसूस करने लगते हैं कि वे वास्तव में विशिष्ट हैं।
लेकिन जो व्यक्ति प्रबुद्ध हैं, वे खुशामद करने वालों को टोक देते हैं। वे कहते हैं : ‘ठहरो, मुझे या अपने आपको भुलावे में न रखो। यदि मैं अच्छा काम कर रहा हूं, तो मुझे प्रोत्साहित करो, लेकिन मेरी खुशामद मत करो।’ लेकिन खुशामद की आदत बदस्तूर जारी रहती है।
जिन लोगों की खुशामद की जाती है, उनसे मैं एक बात कहना चाहूंगा। शायद उन्हें इस पर विश्वास न हो, लेकिन खुशामद वास्तव में घृणा का एक स्वरूप है। आपकी खुशामद करने वाला व्यक्ति वह है, जो आपसे डरता है या आपसे ईष्र्या करता है।
शायद वह आपसे इतना पीछे है कि वह खुशामद की हवा पर सवार होकर आप तक पहुंचना चाहता है। लेकिन खुशामद के खतरों के प्रति सजग होने के बावजूद हमें वास्तविक सराहना जारी रखनी चाहिए। ईमानदारी से की गई सराहना तोहफों की तरह होती है। तोहफों को सहेजकर नहीं रखा जाता।
न ही उन्हें व्यर्थ जाने दिया जाता है। उन्हें सही अवसर पर सहजता और ईमानदारी के साथ उपयुक्त व्यक्ति को दिया जाता है। तोहफे कभी भी पात्रता से कम या ज्यादा नहीं होते।
12 comments:
dr.sahab main aapki is prastuti se poori tarah sahmat hoon aur mera ye manna hai ki dr.shyam gupt ji ko tareef aur khushamad ka antar hi maloom nahi hai kyonki ye aamtaur par dekha jata hai ki log uski khushamad karte hain jo kuchh hota hai ya jisse koi kam nikalvana hota hai mere me n to koi aisee khoobi hai jiski vajah se anvar jamal ji meri khushamad karen aur n hi mujhse unka mujhse aisa koi kam hal ho sakta hai mainto is blog jagat se judi hi isliye hoon ki yahan buddhijivi varg se jud kar kuchh seekhoongi par main yahan kuchh aur hi dekh rahi hoon.tareef ko khushamad kahkar shyam ji anvar jamal ji ki sarahana ko galat mod de rahe hain un jaise varishth bloggar se aisee ummed nahi ki jati kripya ve apna drishtikon palten.
यहाँ मैं भी कुछ कहना चाहती हूँ कि ''खुशामद'' शब्द को इतनी नफरत से ना देखा जाये. अगर कोई मजबूर हो और कोई काम करने की अकल ना हो उसे तब वह किसी की खुशामद करे तो बुरा नहीं. तो उस ''खुशामद'' पर प्यार आता है. लेकिन अगर कोई बेईमानी से चालाक बनकर अपना काम निकालने के लिये किसी की खुशामद करता है तो वो ''खुशामद'' गलत बात है...खासतौर से किसी को रिश्बत आदि देकर...या किसी से गलत काम करवा लेना.
शालिनी जी एवं अनवर जी, यही पढ़कर तो मैं भी अचंभित हूँ..कि लेख लिखने के लिये लेखक ने ''तारीफ'' और ''खुशामद''शब्द के अर्थ को एक कर दिया. ये बात कहते हुये जरा झिझक रही थी...लेकिन शालिनी जी आपका कमेन्ट पढ़कर सहारा मिला तो अब कुछ हिम्मत हो गयी. श्याम जी ने तो इन शब्दों का अंतर ही गायब कर दिया है अपने लेख में. और देखिये, मैं भी बहुत मामूली इंसान हूँ जो घर के कामों में व्यस्त रहती हूँ पर कुछ समय निकाल कर कभी-कभार अपने शौक के लिये कुछ जरा सा लिख लेती हूँ. साहित्य जगत के महारथियों से टक्कर लेने की अपनी हिम्मत नहीं.
binaa kisis prtifal ke jo sch kahaa jaaye voh tarif hai or kisi laalach men jhunth hone par bhi tarif ki jaye to khushaamad hai bas tarif or khushaamad me yhi frq mere dost bhut achchaa lekh mubark ho. akhtar khan akela kota rajsthan
@ शालिनी जी ! ख़ूबी से ख़ाली कोई शै मालिक ने बनाई ही नहीं । कोई पशु हो या कोई पक्षी, हरेक ख़ूबियों से भरपूर है । इंसान सर्वोत्तम प्राणी है तो यह कैसे संभव है कि इसमें कोई ख़ूबी न हो ?
विद्या और सुभाषण , ये दोनों आला दर्जे की ख़ूबियाँ हैं और ये दोनों ही ख़ूबियाँ आपमें हैं । आपके कथन से आपके विनय का भी पता चल रहा है । आशा है कि डाक्टर साहब आपके कथन पर ग़ौर करेंगे और तारीफ़ और ख़ुशामद में जो फ़र्क़ मौजूद है , उसे वह समझेंगे।
शुक्रिया !
@ जनाब वकील साहब भाई अख़्तर ! आपने तारीफ और ख़ुशामद का फर्क खूब बताया । अब आप यह बताएँ कि आप भाभी की तारीफ करते हैं या ख़ुशामद या दोनों ?
सही कहा है आपने अख्तर जी. अगर स्वाभाविक रूप में किसी की प्रशंसा की जाये अपने लिये बिना किसी चीज की उम्मीद रखते हुये तो वह ''तारीफ'' कहलाती है और अगर मतलब निकालना हो किसी से तो उस बात को ''खुशामद''....
@ शन्नो जी ! गोपालकृष्ण गांधी जी एक प्रशासनिक अधिकारी रह चुके हैं और भारत सरकार के लिए वह ऊंचे पदों पर काम कर चुके हैं। उन्हें अक्सर खुशामदी लोगों से वास्ता पड़ता रहा है और इसीलिए उन्हें खुशामद करने वाले मतलबी लोगों से नफ़रत हो गई है। इस लेख उन्होंने अपने अनुभव को ही बयान किया है। लेकिन खुशामद के कुछ रूप और भी हैं जो कि उनकी नज़र से या तो चूक गए हैं या फिर इस लेख में नहीं आ पाए होंगे।
कोई बच्चा जब दूध पीने से इंकार कर देता है तो मां-बाप उसकी खुशामद करते हैं कि वह दूध पी ले। ज़ाहिर है कि यह ख़ालिस खुशामद होती है लेकिन इसमें अपने बच्चे से नफ़रत करना नहीं पाया जाता। कोई लड़की जब किसी के झूठे प्यार में गिरफ़्तार हो जाती है तो भी उसके मां-बाप उसकी खुशामद करते हैं कि वह उसे अपने दिल से निकाल दे। रूठकर मायके गई बीवी को वापस लाने के लिए उसकी कितनी खुशामद करनी पड़ती है, इसका मुझे तो पता नहीं है और हो सकता है कि डा. श्याम गुप्ता जी को भी इसका पता न हो। बैंक में अनपढ़ लोगों को अपने फ़ॉर्म भरवाने के लिए पढ़े-लिखे लोगों की खुशामद करते हरेक देख सकता है। शादी-विवाह में लंबे-लंबे मंत्र पढ़ने वाले पंडित जी को जल्दी से निपटाने के लिए खुशामद करते हुए भी देखा जा सकता है। ग़र्ज़ यह कि ऐसे बहुत से मौक़े होते हैं जहां खुशामद ज़रूरी होती है और वह कभी एक जायज़ अमल होती है और कभी पसंदीदा भी। खुशामद का मात्र वही रूप घृणित है जहां उसके पीछे सिर्फ़ और सिर्फ़ नाजायज़ लालच पोशीदा हो और खुशामद करने वाले का दिल ख़ैरख्वाही से ख़ाली हो।
आपकी टिप्पणी के लिए आपका शुक्रिया।
गोपाल कृष्ण गांधी को मैं पसंद करता हूं...वो शायद अकेले राज्यपाल होंगे जिन्होंने राजभवन में बिजली की खपत कम करने के लिए कदम उठाए...बाकी न सराहना, न तारीफ़, न खुशामद, जो अच्छा लगे उसे बस दिल से कह दो...दिल से कही बात हमेशा दिल से ही सुनी जाती है...
जय हिंद...
अनवर जी---लेखक एक प्रशासक, राजनयिक व राज्यपाल हैं--- कोई स्थापित साहित्य्कार , शास्त्रकार , विद्वान या मनोवैग्यानिक नही हैं---वैसे भी राजनयिक लोग प्रायः विग्य व विद्वान नही होते...काम चलाऊ होते हैं...उनके आलेख आदि उनके पद के कारण प्रकाशित होते हैं..
----दिये गये तथ्य गलत ही हैं.....
१--खुशामद करने वाला अपसे घ्रणा नहीं..हां ईष्या कर सकता है ,पर मूल में आपसे कुछ लाभ हासिल करने का भाव होता है,--जो आलेख पर दी गयी सभी टिप्पणियों से ज़ाहिर होता है.. खुशामद में प्रति-सराहना की इच्छा भी शामिल है, जो बिना किसी वस्तुकारक लाभ के भी होती है,।...प्रशंसा में अतिशयोक्ति पूर्ण कथन नहीं होता... यही प्रशंसा व खुशामद में अन्तर है...
२-"तोहफों को सहेजकर नहीं रखा जाता। "---क्या यह मूर्खतापूर्ण बयान नहीं है....तोहफ़े को तो सभी सहेज़ कर रखते है क्योकि वे इसीलिये होते हैं...अन्यथा तोहफ़े देने वाले की बेइज़्ज़ती होती है...
आपकी यह बात बेइंतहा पसंद आई:
"ग़र्ज़ यह कि ऐसे बहुत से मौक़े होते हैं जहां खुशामद ज़रूरी होती है और वह कभी एक जायज़ अमल होती है और कभी पसंदीदा भी। खुशामद का मात्र वही रूप घृणित है जहां उसके पीछे सिर्फ़ और सिर्फ़ नाजायज़ लालच पोशीदा हो और खुशामद करने वाले का दिल ख़ैरख्वाही से ख़ाली हो।"
डा. श्याम गुप्त के उपरोक्त कथन से भी सहमत हूँ!
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