क्रिकेट से खुन्नस रखने के पीछे मेरे निजी अनुभव हैं जो कि अच्छे नहीं हैं। जब मैं बच्चा था तो मुहल्ले भर के चाचा और तमाम तरह के दूर नज़्दीक के रिश्तेदार घर में क्रिकेट मैच देखने के लिए जमा हो जाया करते थे क्योंकि तब तक कम घरों में टी. वी. था। उनके घरों में पैसे की तंगी की वजह से टी. वी. नहीं था, ऐसी बात नहीं है। सभी लोग काफ़ी रिच हैं लेकिन तब तक घरों पर उन बड़े बूढ़ों का होल्ड था जो घर में टी. वी. आने की इजाज़त नहीं देते थे।
घर में जमावड़े से हमारे लिए कई तरह की दिक्क़तें खड़ी हो जाती थीं और घर का सारा दूध चाय बनाने में ही ख़र्च हो जाता था। हम सबको चाय सप्लाई करते रहते थे और बाज़ार से दूध और नाश्ते का सामान ही लाते रहते थे। ज़मींदार लोग थे, किसी को कोई काम अपने हाथ से करना नहीं था। नौकर खेतों पर काम करते रहते थे।
सबकी ऐश आ जाती थी और हमारी आफ़त। सबसे ज़्यादा दुख हमें अपनी वालिदा साहिबा को ढेर के ढेर कप धोते हुए देखकर होती थी। वालिद साहब के सामने कोई चूं भी नहीं कर सकता था। जिसने उन्हें न देखा हो वह सनम बेवफ़ा के डैनी या प्राण को देख ले। शलवार कमीज़ , सर पर पगड़ी और एक पठानी खंजर भी। अल्लाह का शुक्र है कि उस पर किसी का खून नहीं लगा। जिसका हमारे वालिद को आज तक मलाल है। कभी कभी सोचता हूं कि अगर सूरज इंसानी शक्ल में हमारे सामने आए तो उसे हमारे वालिद साहब का रूप रंग पूरी तरह मैच करेगा। चेहरा सुर्ख़ और आँखें अंगार, हर समय।
आम दिनों में जब वालिद साहब घर में होते थे तो हम इधर उधर टल जाया करते थे। क्रिकेट के दिनों में वालिद साहब की मौजूदगी का वक्त भी बढ़ जाता था और हम उनकी नज़र के सामने से हट भी नहीं सकते थे। चाय और पान की खि़दमत हमारे सुपुर्द जो हो जाया करती थी। इन सब बातों की वजह से हमें बचपन से ही क्रिकेट से नफ़रत हो गई थी। थोड़ा बड़े हुए तो पता चला कि कई बार इस क्रिकेट की वजह से देश में दंगे हो गए और बेवजह ही लोग मारे गए। इस खेल से हमारी नफ़रत में और ज़्यादा इज़ाफ़ा हो गया।
एम. ए. में पहुंचे तो हमें सोशियोलॉजी में बताया गया कि अपनी नाकामियों से ध्यान हटाने के लिए शासक लोग जनता को खेल और मनोरंजन में लगा देते हैं। इससे उनका ध्यान जीवन के अहम मुद्दों से हट जाता है। यूनानी शासक यही करते थे।
हमने पाया कि जैसे-जैसे देश और दुनिया में समस्याओं का अंबार लगता जा रहा है, वैसे वैसे खेल और मनोरंजन के साधन भी जनता को ज़्यादा से ज़्यादा उपलब्ध कराए जा रहे हैं।
मीडिया ने बताया कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां इन खेलों में प्रतिवर्ष खरबों रूपया ख़र्च करती हैं और उससे कई गुना ज़्यादा कमाती भी हैं। देश का पैसा खिंचकर विदेश में जाता है। पहले से ही कंगाल जनता कुछ और बदहाल हो जाती है और फिर यह भी सामने आ गया कि सट्टा किंग पहले से ही यह तक तय कर देते हैं कि जीतना किसे है ?
बहुत बड़ा गोरखधंधा है यह कप और विश्व कप। जो इसे समझता है, वह न किसी की हार से दुखी होता है और न ही किसी की जीत से खुश। जो नादान हैं वे समझते हैं कि हाय ! हम हार गए या हुर्रे ! हम जीत गए।
अफ़सोस होता है यह देखकर कि देश के 22 नौजवान 8 मई 2010 से सोमालियाई लुटेरों की क़ैद में हैं। जाने उनमें से कौन अब ज़िंदा होगा ?
हम एक एटमी पॉवर हैं और हमसे डरते नहीं हैं समुद्री लुटेरे भी। हमारे आदमी उन्होंने पकड़ लिए। इस बात पर अफ़सोस करने के लिए जो देश एक न हो सका, जो ब्लॉग जगत एक न हो सका और कोई सशक्त आंदोलन न चला सका। वह हिप हिप हुर्रे हुर्रे करके कह रहा है अहा, हम जीत गए।
क्या सचमुच हम जीत गए ?
यह सच है कि हमारी क्रिकेट टीम ने विश्व कप जीत लिया है । तमाम बातों के बावजूद इसे एक उपलब्धि भी माना जा सकता है लेकिन हरेक चीज़ अपनी उपयोगिता के कारण ही सार्थक या निरर्थक मानी जाती है। आखि़र देश की जनता के लिए इस कप का उपयोग क्या किया जा सकता है ?
जिन देशों की सिरे से ही कोई क्रिकेट टीम नहीं है, क्या वे बेकार देश हैं ?
जिस देश में आज भी लोग मलेरिया के हाथों लाखों की तादाद में मर जाते हैं। जहां करोड़ों माएं प्रसव के दौरान मर जाती हैं। जहां नशे के कारोबार को सरकारी आश्रय प्राप्त है और नशे की वजह से कितने ही रोड एक्सीडेंट रोज़ होते हैं या फिर कलह के कारण करोड़ों परिवारों का सुख चैन बर्बाद है सदा के लिए।
जहां गुरबत है और ऐसी गुरबत है कि मात्र एक रूपये में इस देश की औरत अपनी आबरू बेच रही है। मैं ऐसे फ़ौजियों से मिला हूं जिन्होंने यह सब खुद देखा है और उस इलाक़े का नाम मुझे बताया है। कश्मीर में भी मुझे यही पता चला। देश का कोई इलाक़ा शायद ऐसा न हो जहां ज़रूरतें इंसान की शर्म और ग़ैरत को न चाट रही हों। जहां ज़रूरतें और मजबूरियां नहीं हैं वहां भी यही सब हो रहा है। वहां वजह बन रही है दौलत की हवस। पति-पत्नी का रिश्ता एक पवित्र संबंध है लेकिन दौलत की हवस यहां भी पैर पसारे आपको मिल जाएगी और दहेज की इसी हवस में कहीं बहुएं जलाई जा रही हैं और कहीं लड़कियां या तो बेमेल ब्याही जा रही हैं या फिर कुंवारी ही बूढ़ी हो रही हैं या फिर गर्भ में ही मारी जा रही हैं। माएं आज बेसहारा हैं और विधवाएं तो हमेशा से हैं ही। जिन समस्याओं को हमें हल करना था, उन्हें हम हल नहीं कर पाए।
ग़रीबी और कुपोषण की वजह से बच्चे बचपन में ही या तो मर जाते हैं या फिर मज़दूरी करते हैं। किसान मज़दूर सूदख़ोर महाजन के ब्याज के फंदे में झूलकर आए दिन आत्महत्या करते हैं। कुछ बाबा और महात्मा ग़रीबों की सेवा पहले भी करते थे और आज भी करते हैं लेकिन इन्हीं का रूप बनाकर पहले भी ठग जनता को ठगते थे और आज भी ठग रहे हैं बल्कि मंत्री और मुख्यमंत्री तक बन चुके हैं। आशीर्वाद और योग को ये लोग कारोबार बना चुके हैं। भारत एक धर्म-अध्यात्म प्रधान देश है और आस्था इसकी पहचान है लेकिन आज देश की जनता के सामने केवल अधिक से अधिक सुविधा और ऐश बटोरना ही एक मात्र मक़सद है। कभी जनता हड़ताल करती है तो कभी वकील और कभी डाक्टर।
देश का क़ानून टूटता हो तो टूटे , कोई मरता हो तो मरे, इनकी बला से इनके अधिकार कम न हों, इनकी सैलरी बढ़ा दी जाए। ये बुद्धिहीन लोग बुद्धिजीवी कहलाते हैं, यह देश की त्रासदी है। बस केवल सांसद ही कभी हड़ताल नहीं करते। उन्हें जो कुछ सुविधाएं लेनी होती हैं, अपने लिए खुद ही मंजूर कर लेते हैं।
इस आंतरिक मज़बूत एकता के बावजूद ये नेता बाहर से खुद को बंटा हुआ दिखाते हैं ताकि जनता यह समझे कि यह वामपंथी है और वह दक्षिणपंथी, यह समाजवादी है और वह निर्दलीय। यह अमीरों का पिठ्ठू है और वह ग़रीबों का मसीहा है। ये गुट बनाकर आमने सामने डटे रहते हैं और जब भी कोई पार्टी जीतती है तो पब्लिक समझती है कि ‘अहा ! हम जीत गए।‘
लेकिन जब वह पार्टी काम काज संभालती है तो वह भी पुराने ढर्रे पर ही आगे बढ़ती है जिससे जनता की केवल मुसीबतें बढ़ती हैं और उनसे ध्यान बंटाने के लिए उसके लिए खेल और मनोरंजन के साधन बढ़ा दिए जाते हैं।
आज चैराहों पर ढोल बज रहे हैं, पटाख़े छोड़े जा रहे हैं, मिठाईयां बांटी जा रही हैं। हर तरफ़ एक जुनून है, एक खुशी की लहर छाई हुई है। राष्ट्रवादी लोग भी मगन हैं। जो सारा माजरा समझते हैं वे चुप हैं। वे जानते हैं कि दीवानेपन और जुनून की कैफ़ियत में उनकी सही बात सुनेगा ही कौन ?
लेकिन ऐसा नहीं है।
सुनने वाले लोग भी इन्हीं के दरम्यान हैं। सोचने-समझने वाले लोग भी इन्हीं के बीच मौजूद हैं। आप कहेंगे तो बात उन तक ज़रूर पहुँचेगी जिन्हें मार्ग और मंज़िल की तलाश है।
जिन खेलों से सीधे तौर पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाभ होता है या फिर हमारे पूंजीपतियों और निकम्मे हाकिमों को, उनका प्रभाव लाज़िमन हमारे राष्ट्र को कमज़ोर ही करता है।
समस्याओं से त्रस्त लोगों के बीच खड़े होकर कहना कि ‘हम जीत गए।‘
जो देख सकते हैं, वे हालात को सही एंगल से देखने का कष्ट करें मुल्क की भलाई की ख़ातिर, ऐसी हमारी विनती है।
बचपन में तो हम अपने वालिद साहब के सामने कह नहीं सकते थे लेकिन आप लोगों से तो हम कह ही सकते हैं कि क्रिकेट के नाम पर हमारा ध्यान असल समस्याओं से हटाया जा रहा है।
हरेक सोचे कि इस धरती पर उसके जन्म का उद्देश्य क्या है ?
घर में जमावड़े से हमारे लिए कई तरह की दिक्क़तें खड़ी हो जाती थीं और घर का सारा दूध चाय बनाने में ही ख़र्च हो जाता था। हम सबको चाय सप्लाई करते रहते थे और बाज़ार से दूध और नाश्ते का सामान ही लाते रहते थे। ज़मींदार लोग थे, किसी को कोई काम अपने हाथ से करना नहीं था। नौकर खेतों पर काम करते रहते थे।
सबकी ऐश आ जाती थी और हमारी आफ़त। सबसे ज़्यादा दुख हमें अपनी वालिदा साहिबा को ढेर के ढेर कप धोते हुए देखकर होती थी। वालिद साहब के सामने कोई चूं भी नहीं कर सकता था। जिसने उन्हें न देखा हो वह सनम बेवफ़ा के डैनी या प्राण को देख ले। शलवार कमीज़ , सर पर पगड़ी और एक पठानी खंजर भी। अल्लाह का शुक्र है कि उस पर किसी का खून नहीं लगा। जिसका हमारे वालिद को आज तक मलाल है। कभी कभी सोचता हूं कि अगर सूरज इंसानी शक्ल में हमारे सामने आए तो उसे हमारे वालिद साहब का रूप रंग पूरी तरह मैच करेगा। चेहरा सुर्ख़ और आँखें अंगार, हर समय।
आम दिनों में जब वालिद साहब घर में होते थे तो हम इधर उधर टल जाया करते थे। क्रिकेट के दिनों में वालिद साहब की मौजूदगी का वक्त भी बढ़ जाता था और हम उनकी नज़र के सामने से हट भी नहीं सकते थे। चाय और पान की खि़दमत हमारे सुपुर्द जो हो जाया करती थी। इन सब बातों की वजह से हमें बचपन से ही क्रिकेट से नफ़रत हो गई थी। थोड़ा बड़े हुए तो पता चला कि कई बार इस क्रिकेट की वजह से देश में दंगे हो गए और बेवजह ही लोग मारे गए। इस खेल से हमारी नफ़रत में और ज़्यादा इज़ाफ़ा हो गया।
एम. ए. में पहुंचे तो हमें सोशियोलॉजी में बताया गया कि अपनी नाकामियों से ध्यान हटाने के लिए शासक लोग जनता को खेल और मनोरंजन में लगा देते हैं। इससे उनका ध्यान जीवन के अहम मुद्दों से हट जाता है। यूनानी शासक यही करते थे।
हमने पाया कि जैसे-जैसे देश और दुनिया में समस्याओं का अंबार लगता जा रहा है, वैसे वैसे खेल और मनोरंजन के साधन भी जनता को ज़्यादा से ज़्यादा उपलब्ध कराए जा रहे हैं।
मीडिया ने बताया कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां इन खेलों में प्रतिवर्ष खरबों रूपया ख़र्च करती हैं और उससे कई गुना ज़्यादा कमाती भी हैं। देश का पैसा खिंचकर विदेश में जाता है। पहले से ही कंगाल जनता कुछ और बदहाल हो जाती है और फिर यह भी सामने आ गया कि सट्टा किंग पहले से ही यह तक तय कर देते हैं कि जीतना किसे है ?
बहुत बड़ा गोरखधंधा है यह कप और विश्व कप। जो इसे समझता है, वह न किसी की हार से दुखी होता है और न ही किसी की जीत से खुश। जो नादान हैं वे समझते हैं कि हाय ! हम हार गए या हुर्रे ! हम जीत गए।
अफ़सोस होता है यह देखकर कि देश के 22 नौजवान 8 मई 2010 से सोमालियाई लुटेरों की क़ैद में हैं। जाने उनमें से कौन अब ज़िंदा होगा ?
हम एक एटमी पॉवर हैं और हमसे डरते नहीं हैं समुद्री लुटेरे भी। हमारे आदमी उन्होंने पकड़ लिए। इस बात पर अफ़सोस करने के लिए जो देश एक न हो सका, जो ब्लॉग जगत एक न हो सका और कोई सशक्त आंदोलन न चला सका। वह हिप हिप हुर्रे हुर्रे करके कह रहा है अहा, हम जीत गए।
क्या सचमुच हम जीत गए ?
यह सच है कि हमारी क्रिकेट टीम ने विश्व कप जीत लिया है । तमाम बातों के बावजूद इसे एक उपलब्धि भी माना जा सकता है लेकिन हरेक चीज़ अपनी उपयोगिता के कारण ही सार्थक या निरर्थक मानी जाती है। आखि़र देश की जनता के लिए इस कप का उपयोग क्या किया जा सकता है ?
जिन देशों की सिरे से ही कोई क्रिकेट टीम नहीं है, क्या वे बेकार देश हैं ?
जिस देश में आज भी लोग मलेरिया के हाथों लाखों की तादाद में मर जाते हैं। जहां करोड़ों माएं प्रसव के दौरान मर जाती हैं। जहां नशे के कारोबार को सरकारी आश्रय प्राप्त है और नशे की वजह से कितने ही रोड एक्सीडेंट रोज़ होते हैं या फिर कलह के कारण करोड़ों परिवारों का सुख चैन बर्बाद है सदा के लिए।
जहां गुरबत है और ऐसी गुरबत है कि मात्र एक रूपये में इस देश की औरत अपनी आबरू बेच रही है। मैं ऐसे फ़ौजियों से मिला हूं जिन्होंने यह सब खुद देखा है और उस इलाक़े का नाम मुझे बताया है। कश्मीर में भी मुझे यही पता चला। देश का कोई इलाक़ा शायद ऐसा न हो जहां ज़रूरतें इंसान की शर्म और ग़ैरत को न चाट रही हों। जहां ज़रूरतें और मजबूरियां नहीं हैं वहां भी यही सब हो रहा है। वहां वजह बन रही है दौलत की हवस। पति-पत्नी का रिश्ता एक पवित्र संबंध है लेकिन दौलत की हवस यहां भी पैर पसारे आपको मिल जाएगी और दहेज की इसी हवस में कहीं बहुएं जलाई जा रही हैं और कहीं लड़कियां या तो बेमेल ब्याही जा रही हैं या फिर कुंवारी ही बूढ़ी हो रही हैं या फिर गर्भ में ही मारी जा रही हैं। माएं आज बेसहारा हैं और विधवाएं तो हमेशा से हैं ही। जिन समस्याओं को हमें हल करना था, उन्हें हम हल नहीं कर पाए।
ग़रीबी और कुपोषण की वजह से बच्चे बचपन में ही या तो मर जाते हैं या फिर मज़दूरी करते हैं। किसान मज़दूर सूदख़ोर महाजन के ब्याज के फंदे में झूलकर आए दिन आत्महत्या करते हैं। कुछ बाबा और महात्मा ग़रीबों की सेवा पहले भी करते थे और आज भी करते हैं लेकिन इन्हीं का रूप बनाकर पहले भी ठग जनता को ठगते थे और आज भी ठग रहे हैं बल्कि मंत्री और मुख्यमंत्री तक बन चुके हैं। आशीर्वाद और योग को ये लोग कारोबार बना चुके हैं। भारत एक धर्म-अध्यात्म प्रधान देश है और आस्था इसकी पहचान है लेकिन आज देश की जनता के सामने केवल अधिक से अधिक सुविधा और ऐश बटोरना ही एक मात्र मक़सद है। कभी जनता हड़ताल करती है तो कभी वकील और कभी डाक्टर।
देश का क़ानून टूटता हो तो टूटे , कोई मरता हो तो मरे, इनकी बला से इनके अधिकार कम न हों, इनकी सैलरी बढ़ा दी जाए। ये बुद्धिहीन लोग बुद्धिजीवी कहलाते हैं, यह देश की त्रासदी है। बस केवल सांसद ही कभी हड़ताल नहीं करते। उन्हें जो कुछ सुविधाएं लेनी होती हैं, अपने लिए खुद ही मंजूर कर लेते हैं।
इस आंतरिक मज़बूत एकता के बावजूद ये नेता बाहर से खुद को बंटा हुआ दिखाते हैं ताकि जनता यह समझे कि यह वामपंथी है और वह दक्षिणपंथी, यह समाजवादी है और वह निर्दलीय। यह अमीरों का पिठ्ठू है और वह ग़रीबों का मसीहा है। ये गुट बनाकर आमने सामने डटे रहते हैं और जब भी कोई पार्टी जीतती है तो पब्लिक समझती है कि ‘अहा ! हम जीत गए।‘
लेकिन जब वह पार्टी काम काज संभालती है तो वह भी पुराने ढर्रे पर ही आगे बढ़ती है जिससे जनता की केवल मुसीबतें बढ़ती हैं और उनसे ध्यान बंटाने के लिए उसके लिए खेल और मनोरंजन के साधन बढ़ा दिए जाते हैं।
आज चैराहों पर ढोल बज रहे हैं, पटाख़े छोड़े जा रहे हैं, मिठाईयां बांटी जा रही हैं। हर तरफ़ एक जुनून है, एक खुशी की लहर छाई हुई है। राष्ट्रवादी लोग भी मगन हैं। जो सारा माजरा समझते हैं वे चुप हैं। वे जानते हैं कि दीवानेपन और जुनून की कैफ़ियत में उनकी सही बात सुनेगा ही कौन ?
लेकिन ऐसा नहीं है।
सुनने वाले लोग भी इन्हीं के दरम्यान हैं। सोचने-समझने वाले लोग भी इन्हीं के बीच मौजूद हैं। आप कहेंगे तो बात उन तक ज़रूर पहुँचेगी जिन्हें मार्ग और मंज़िल की तलाश है।
जिन खेलों से सीधे तौर पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाभ होता है या फिर हमारे पूंजीपतियों और निकम्मे हाकिमों को, उनका प्रभाव लाज़िमन हमारे राष्ट्र को कमज़ोर ही करता है।
समस्याओं से त्रस्त लोगों के बीच खड़े होकर कहना कि ‘हम जीत गए।‘
सिर्फ़ यह बताता है कि उन्हें देशवासियों की समस्याओं से वास्तव में कुछ लेना-देना ही नहीं है। उनके लिए तो बस मनोरंजन ही प्रधान है। हमारे हाकिम भी यही चाहते हैं कि हमें होश न रहे। हरेक गली-नुक्कड़ पर नित नए खुलते हुए शराब के ठेके इसी बात की पुष्टि करते हैं। जिस देश में कभी गंगा शुद्ध बहती थी। उसी देश में आज शराब की नदियां बहाई जाएंगी और यह सब होगा राष्ट्रवाद के नाम पर। जो चीज़ राष्ट्र को खोखला करती है उसका इस्तेमाल राष्ट्रवादियों में आम क्यों है ?
महंगाई, मिलावट और नक्सलवाद से लेकर हरेक समस्या ले लीजिए, हम हर मोर्चे पर हार रहे हैं, ऐसे हालात में क्रिकेट के जुनून में दीवाना हो जाना मर्ज़ को और बढ़ा रहा है।जो देख सकते हैं, वे हालात को सही एंगल से देखने का कष्ट करें मुल्क की भलाई की ख़ातिर, ऐसी हमारी विनती है।
बचपन में तो हम अपने वालिद साहब के सामने कह नहीं सकते थे लेकिन आप लोगों से तो हम कह ही सकते हैं कि क्रिकेट के नाम पर हमारा ध्यान असल समस्याओं से हटाया जा रहा है।
हरेक सोचे कि इस धरती पर उसके जन्म का उद्देश्य क्या है ?
इसके लिए वह अपने गुरूओं और ग्रंथों की सहायता ले और फिर देखे कि क्रिकेट के ज़रिए वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है या कि उससे दूर होता जा रहा है ?
8 comments:
sarthak aalekh hetu hardik shubhkamnayen .
@ शिखा जी ! समर्थन के लिए शुक्रिया.
@ सवाई सिंह जी ! आप एक ही कमेन्ट को हरेक पोस्ट पर डालते चले गए और पढ़ा कुछ भी नहीं.
आपको लेख पढना भी चाहिए था. एक ताज़ा पोस्ट और भी है जो पठनीय है.
दमकते सौन्दर्य के लिए अचूक नुस्खा Jadi buti cure
Aankhen kholne waala article!
Nice Post.
Bahut hi Badhai! Sach meain manoranjan ke sadhan hamara dhyan bhatkane ke liye hain par vote dalte samaya agar hum dhyan rakhen to badlaw aa sakta hai! galti hamari hi hai
Vivek Jain vivj2000.blogspot.com
@ विवेक जैन जी ! देशवासियों ने सभी बड़ी पार्टियों को अवसर देकर देख लिया है लेकिन यही पाया है कि आंतरिक मज़बूत एकता के बावजूद ये नेता बाहर से खुद को बंटा हुआ दिखाते हैं ताकि जनता यह समझे कि यह वामपंथी है और वह दक्षिणपंथी, यह समाजवादी है और वह निर्दलीय। यह अमीरों का पिठ्ठू है और वह ग़रीबों का मसीहा है। ये गुट बनाकर आमने सामने डटे रहते हैं और जब भी कोई पार्टी जीतती है तो पब्लिक समझती है कि ‘अहा ! हम जीत गए।‘
लेकिन जब वह पार्टी काम काज संभालती है तो वह भी पुराने ढर्रे पर ही आगे बढ़ती है जिससे जनता की केवल मुसीबतें बढ़ती हैं और उनसे ध्यान बंटाने के लिए उसके लिए खेल और मनोरंजन के साधन बढ़ा दिए जाते हैं।
dr.sahab ,
hamara ek kam aapko karna hi hoga.aakash ek naye bloggar hain aur hamari vani se judna chahte hain magar nahi jante ki inhe kaise add kiya jata hai.kripya aap niche diye gaye url par jakar unhe ye kaise hota hai batayege to ham bhi aapke aabhari rahenge.
{http://www.akashkumar307.blogspot.com}
ek bar fir pahle hi aapka dhanyawad karte hain...
@ शिखा जी ! आकाश जी के बारे में जानकर अच्छा लगा . जो कोई हमारी वाणी का सदस्य बनना चाहे उसे पहले हमारी वाणी पर जाकर ऊपर कोने में सदस्य बनें पर क्लिक करके अपनी ईमेल आई डी और पास वर्ड लिख कर सदस्य बनना होता है . इसके बाद उसे एक ईमेल मिलेगी हमारी वाणी की तरफ से . उसके बाद उसे हमारी वाणी पर जाकर पेज के सबसे नीचे बाईं तरफ 'अपना ब्लॉग सुझाएँ' पर क्लिक करना होगा और फिर मांगी गई जानकारी भरकर जमा करनी होगी .
इसके बाद हमारी वाणी उसे मंजूरी देगी और उसे सदस्यता मिल जायेगी.
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