Friday, April 29, 2011

आज के दिन बस केवल प्यार, शुभकामना और बधाईयां by DR. ANWER JAMAL


आज का दिन, बहुत से हिंदी ब्लॉगर्स के लिए, ईनाम का दिन है, उनके लिए खुशी का दिन है। वे तमाम ब्लॉगर्स हमारा ही अंग हैं। जब यह दिन उनके लिए खुशी का दिन है तो यह हमारे लिए भी खुशी का दिन है। यह दिन एक परिकल्पना और एक सपने के साकार होने का दिन है। इस सपने को विशेष रूप से साकार किया है श्री रवीन्द्र प्रभात जी ने और श्री अविनाश वाचस्पति जी ने और बहुत से दीगर ब्लॉगर्स ने भी इस मुहिम में उनका साथ दिया है, इसके लिए ईनामयाफ़्ता ब्लॉगर्स के साथ हम भी उनके शुक्रगुज़ार हैं।
आज का सम्मेलन बिना किसी विघ्न के सकुशल संपन्न हो, ऐसी कामना हम कर ही चुके हैं लिहाज़ा आज हम केवल प्यार-मुहब्बत बढ़ाने वाली बातें ही करेंगे ताकि आयोजकों का उत्साह बना रहे। इसके अलावा किसी प्रकार का सहयोग यदि वे हमसे चाहें तो हम उसके लिए भी हाज़िर हैं।
किसी भी बड़े सम्मेलन का आयोजन आसान नहीं होता। यह बात भी नज़र में रहनी चाहिए। इसे एक स्वस्थ प्रतियोगिता के रूप में लिया जाए तो कई समस्याओं का सिर क़लम हो जाएगा।
ऐसा इसलिए कि हम जिसे प्यार करते हैं, जिसे सम्मान देते हैं, जो कोई उन्हें प्यार और सम्मान देता है, उसे भी प्यार और सम्मान ही दिया जाता है। इस सम्मेलन में ऐसी एक नहीं बल्कि कई हस्तियां ऐसी हैं जिन्हें प्यार और सम्मान देते हैं।
ऐसा करना इसलिए भी ज़रूरी है ताकि लोगों को पता चल सके कि हम सब एक हैं और कोई भी व्यक्तिगत राय सामूहिक प्रेम से ऊपर नहीं होनी चाहिए। हरेक बात की एक मर्यादा और एक समय निश्चित है और आज का समय केवल प्यार, शुभकामना और बधाईयों का है। लिहाज़ा हमारी ओर से सभी जनों को भरपूर प्यार, शुभकामना और ढेर सारी बधाईयां।
इस अवसर पर हिंदी ब्लॉगर्स की जो पुस्तकें आज ब्लॉग जगत के सुपुर्द की जाएंगी, वे लोगों के लिए मुफ़ीद हों, इसके लिए भी हम अपने मालिक से दुआ करते हैं।
ईनाम छोटा हो या बड़ा, देता मालिक ही है, चाहे हाथ किसी का भी हो। वह मालिक किसी की मेहनत को बेकार नहीं जाने देता। एक दिन वह भी आने वाला है जबकि वह मालिक खुद अपने बंदों को ईनाम देगा। उस दिन भी वे लोग अपने मालिक से ईनाम पाने वाले बनें जो कि आज ईनाम पा रहे हैं, ऐसी हमारी दुआ है। मालिक हर चीज़ से बड़ा है और उसका ईनाम भी सबसे बड़ा ईनाम है। छोटा ईनाम हमारे लिए बड़े ईनाम तक पहुंचने का ज़रिया बन जाए।
आमीन !
सुम्मा आमीन !!

Thursday, April 28, 2011

क्या आपने देखा सलीम खान का वह चर्चित इंटरव्यू जो लिया गया आज सुबह It's hot.

'तारीफ़ और खुशामद में फ़र्क़' Praise

डाक्टर श्याम कुमार गुप्ता जी हमारे अर्द्धमित्रों  में से एक हैं . उनसे हमारी चुहल चलती ही रहती है. उन्हें हमारे बिना चैन नहीं पड़ती और हमें उनके बिना . आज वह हमसे बहस कर रहे हैं 'खुशामद' पर. हमने शालिनी जी की थोड़ी सी तारीफ़ क्या कर दी कि उन्होंने हमें आड़े हाथों ले लिया . हमने उन्हें समझाया कि भाई साहब यह खुशामद नहीं है बल्कि तारीफ़ है, लेकिन वह श्याम गुप्ता जी हैं कोई साधारें आदमी नहीं जो सही बात तुरंत मान जाएँ . लिहाज़ा हम 'तारीफ़ और खुशामद में  फ़र्क़' बताने  के लिए यह आर्टिकल 'भास्कर. कॉम' से साभार पेश कर रहे हैं . आप भी समझिये और डाक्टर साहब को भी समझिए:
    
गोपालकृष्ण गांधी
सिक्के की तरह सराहना के भी दो पहलू होते हैं। एक वह जो सराहता है। दूसरा वह जिसे सराहा जाता है। पहले सराहना करने वाले के बारे में विचार करते हैं। आभार, प्रशंसा, अनुमोदन या सराहना का प्रारंभिक और सबसे विशुद्ध स्वरूप वह होता है, जिसमें शब्दों या संकेतों की कोई भूमिका नहीं होती। 
यह मूक आभार किसी नवजात शिशु द्वारा उन हाथों के प्रति प्रदर्शित किया जाता है, जो उसे अपने कलेजे से सटाकर रखते हैं। अक्सर ये हाथ मां के होते हैं। आभार का इससे सच्चा स्वरूप कोई दूसरा नहीं है। सराहना के लिए एक शब्द का इस्तेमाल किया जाता है : शाबाश। इसमें प्रशंसा के साथ ही प्रोत्साहन का भी भाव होता है। 
जब हम अभिनव बिंद्रा या विजेंदर सिंह, सचिन तेंदुलकर या साइना नेहवाल को शाबाशी देते हैं तो हम उनके खेल की सराहना करने के साथ ही उनकी हौसला अफजाई भी करते हैं। जब यही सराहना बड़े-बुजुर्गो द्वारा की जाती है तो उसे आशीष या मंगल कामना कहा जाता है। 
बुजुर्गो की सराहना में प्रशंसा के साथ ही प्रार्थना का भी भाव होता है। प्रार्थना यह कि हम इसी तरह यश प्राप्त करते रहें। सराहना का एक और रूप वह है, जिसमें अनुमोदन होता है। जैसे : ‘बहुत खूब, लगे रहो’। इसमें श्रेय देने का भाव होता है। इस सराहना में हमारी उपलब्धियों के लिए हमारी पीठ थपथपाई जाती है। लेकिन कुछ लोग इस तरह सराहना करते हैं, जैसे उसके एवज में उन्हें भी कुछ चाहिए।
इशारों की दुनिया में शब्दों की कोई जरूरत नहीं होती, जैसे तालियां बजाना। आम तौर पर किसी व्यक्ति को सराहने के लिए तालियां बजाई जाती हैं। लेकिन तालियों में कुछ-कुछ ‘आरोहण’ जैसी बात होती है। जैसे कोई चीज हमें ऊपर उठा रही हो। यह ऐसा ही है, जैसे सराहना के ‘सा’ को मंद्रसप्तक से तारसप्तक में पहुंचा दिया गया हो। 
विनम्रतापूर्वक आभार जताने के लिए हम धीमे-से तालियां बजाते हैं। सराहना में तालियों का स्वर थोड़ा ऊपर उठ जाता है। जबकि प्रशंसा में बजाई गई जोरदार तालियां वे होती हैं, जिनसे सभागार गूंजने लगता है। लेकिन शायद तालियों के माध्यम से सराहना की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति वह होती है, जब तालियां दिमाग से नहीं, दिल से बजाई जाती हैं। 
सराहना में जब भावना शामिल हो जाती है, तब तालियां थमना नहीं चाहतीं। वे खुशी के मौके को हाथ से जाने नहीं देना चाहतीं। तालियां देर तक बजती हैं और अपने उल्लास को दूर तक पहुंचा देती हैं। प्रशंसा के इस स्वरूप में थोड़ा निस्वार्थ भाव भी है। 
यह ऐसी प्रशंसा है, जो फुहारों की तरह पूरे हृदय से अपने अनुग्रह को व्यक्त करती है। इस प्रशंसा का कारण कुछ भी हो सकता है : कोई ऐसा गीत, जो दिल को छू गया हो। किसी बल्लेबाज द्वारा खेली गई कोई महान पारी या किसी एथलीट द्वारा किया गया शानदार प्रदर्शन। या नेक इरादों के साथ किया गया कोई काम, जिसके प्रति हमारे मन में सराहना फूट पड़ी हो। 
मैंने करतल ध्वनि के साथ की गई इस तरह की सराहना देखी है। जब बांग्लादेश के पितृपुरुष शेख मुजीबुर्रहमान कैद से छूटकर दिल्ली पहुंचे और जब नेल्सन मंडेला बेड़ियों से मुक्त हुए, तब उनका स्वागत इसी तरह किया गया था। मैं कल्पना कर सकता हूं, नजरबंदी से मुक्त होने के बाद स्वतंत्रतापूर्वक अपने देश की यात्रा कर रहीं आंग सान सूची का भी इसी तरह स्वागत किया जाता होगा, क्योंकि म्यांमार के लोग उन्हें प्यार करते हैं।
इन सभी में सराहना करने वाले और सराहे जाने वाले समान हैं। दोनों एक-दूसरे के परिपूरक हैं। लेकिन सराहना का एक स्याह पहलू भी है। मैं इसे मनुष्य के स्वभाव की चालाकी ही कह सकता हूं, जिसके कारण सराहना अभिव्यक्ति के स्थान पर एक उपकरण बनकर रह गई है। 
सही अनुपात में की जाने वाली सराहना वह है, जो किसी व्यक्ति की उपलब्धियों के अनुरूप होती है। लेकिन जब गुणगान के गणित के तहत अतिशयोक्ति के साथ सराहना की जाती है तो उसका स्वरूप विकृत हो जाता है। खुशामद के मकसद से की जाने वाली सराहना एक रोग की तरह होती है। यह संक्रामक रोग है। अतिशयोक्तियां बढ़ती जाती हैं, अंकगणित की गति से नहीं, बल्कि बीजगणित की चाल से।
लेकिन यह कोई नई बात नहीं। खुशामद या चाटुकारिता के मकसद से की जाने वाली सराहना उतनी ही पुरानी है, जितना कि हमारा महाकाव्यात्मक साहित्य। सराहना है ‘प्रशंसा’। खुशामद है ‘प्रशस्ति’। हमें आजकल के उन लोगों को दोषी नहीं ठहराना चाहिए, जिन्होंने सराहना की स्वाभाविक कला को खुशामद के विज्ञान का रूप दे दिया है। 
वास्तव में वे एक लंबी और स्थापित परंपरा का अनुसरण कर रहे हैं। फर्क केवल इतना है कि उसमें उन्होंने कुछ और नई चीजें जोड़ दी हैं। लेकिन उन्हें दोषी नहीं ठहराने का यह मतलब नहीं कि हमें उनका अनुसरण करना चाहिए। खुशामद के भी दो पहलू होते हैं। 
एक वह जो खुशामद करता है, दूसरा वह जिसकी खुशामद की जाती है। संस्कृत में खुशामद के लिए एक शब्द है : मुखस्तुति। यह एक शब्द ही सारी कहानी बयां कर देता है। किसी व्यक्ति के सामने उसकी प्रशंसा करने का अर्थ है मुखस्तुति। यह किसी व्यक्ति के पीछे उसकी निंदा करने जितना ही बुरा है। सराहना की ही तरह खुशामद के भी कई प्रकार होते हैं। 
वार्षिक कार्यक्रम उत्सव का अवसर होते हैं, लेकिन वे खुशामद का मंच बनकर रह गए हैं। इतना ही नहीं, इस तरह के आयोजनों में खुशामद की होड़ भी लग जाती है। यदि कोई कहता है कि यह एक महान व्यक्ति की जयंती है, तो दूसरा कहता है यह महानतम व्यक्ति का जन्म दिवस है। 
हम फैलाव और स्फीति के युग में जी रहे हैं। गद्य फैलकर लफ्फाजी बन जाता है। कविता फैलकर महाकाव्य बन जाती है। नाटक फैलकर अतिनाटक बन जाता है। जब मुखस्तुति का क्रम साल-दर-साल जारी रहता है तो जिनकी स्तुति की जा रही है, वे भी अंतत: यह महसूस करने लगते हैं कि वे वास्तव में विशिष्ट हैं। 
लेकिन जो व्यक्ति प्रबुद्ध हैं, वे खुशामद करने वालों को टोक देते हैं। वे कहते हैं : ‘ठहरो, मुझे या अपने आपको भुलावे में न रखो। यदि मैं अच्छा काम कर रहा हूं, तो मुझे प्रोत्साहित करो, लेकिन मेरी खुशामद मत करो।’ लेकिन खुशामद की आदत बदस्तूर जारी रहती है। 
जिन लोगों की खुशामद की जाती है, उनसे मैं एक बात कहना चाहूंगा। शायद उन्हें इस पर विश्वास न हो, लेकिन खुशामद वास्तव में घृणा का एक स्वरूप है। आपकी खुशामद करने वाला व्यक्ति वह है, जो आपसे डरता है या आपसे ईष्र्या करता है। 
शायद वह आपसे इतना पीछे है कि वह खुशामद की हवा पर सवार होकर आप तक पहुंचना चाहता है। लेकिन खुशामद के खतरों के प्रति सजग होने के बावजूद हमें वास्तविक सराहना जारी रखनी चाहिए। ईमानदारी से की गई सराहना तोहफों की तरह होती है। तोहफों को सहेजकर नहीं रखा जाता। 
न ही उन्हें व्यर्थ जाने दिया जाता है। उन्हें सही अवसर पर सहजता और ईमानदारी के साथ उपयुक्त व्यक्ति को दिया जाता है। तोहफे कभी भी पात्रता से कम या ज्यादा नहीं होते।
                                                - लेखक पूर्व प्रशासक, राजनयिक व राज्यपाल हैं। 

Tuesday, April 26, 2011

एक खुला न्यौता सबके लिए Invitation

आप सादर  आमंत्रित हैं मेरे दो ब्लॉग का सदस्य बनने के लिए 
किसी भी विचारधारा का ब्लॉगर इसका सदस्य बन सकता है .


Monday, April 25, 2011

29 अप्रैल दिन जुमेरात को एक इंटरव्यू पेश करने की कोशिश की जाएगी , ब्लॉगर बहनें टकटकी न बाँधे , बल्कि अपने ज़रूरी काम करती रहें Postless post

यह अंदर की बात है, लिहाज़ा इसे अंदर ही रखना Blog Fixing


‘लालच इंसान को गिरा देता है और गुटबंदी में पड़कर आदमी इंसाफ़ से हट जाता है।‘ यही बात एक एग्रीगेटर को एग्रीकटर में तब्दील कर देती है। जब यह सब हो तो कुछ ऐसे सवाल ज़रूर सिर उठाते हैं, जिन्हें आप निम्न लिंक पर जाकर न ही देखें तो अच्छा है।
आखि़र क्या फ़ायदा है सच जानने का ?, जबकि सच का साथ देना ही नहीं है।
http://blogkikhabren.blogspot.com/2011/04/blog-fixing_25.html
और यह भी :

कैसा होता है एक बड़े ब्लॉगर का वैवाहिक जीवन ? Family Life



Sunday, April 24, 2011

हादसे आपकी पोस्ट को यादगार बना देते हैं But Thanks To Blogprahari


कल देर रात एक पोस्ट पब्लिश की तो सौभाग्य से वह ‘हमारी वाणी‘ पर भाई खुशदीप जी के एकदम ऊपर नज़र आई। यह एक यादगार नज़ारा था। सुबह उठकर हमने फिर इस नज़ारे पर नज़र डालनी चाही तो वह मंज़र दोबारा फिर नज़र नहीं आया। जाने किसकी नज़र उसे लग गई ?
इस तरह यह एक यादगार पोस्ट बन गई। ब्लॉगप्रहरी इस यादगार मंज़र को अभी तक संजोए हुए है।
और शायद यह पोस्ट भी यादगार बन जाए क्योंकि इस ब्लॉग पर मैंने इतनी मुख्तसर पोस्ट आज तक नहीं लिखी।
यह रहा यादगार पोस्ट का लिंक
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/04/blog-fixing.html
और क्यों ऐसा हुआ इस विषय पर एक खोजपूर्ण रिपोर्ट जल्द ही आप पढ़ेंगे ‘ब्लॉग की ख़बरें‘ पर .




किसने हिंदी ब्लॉग जगत को पहली बार बताया कि ‘छिपकलियां छिनाल नहीं होतीं‘ ? Blog Fixing


आप देख ही रहे हैं कि कैसे बिना तहलका डॉट कॉम की मदद के ही जे. जे. जासूस के स्टाइल में 'ब्लॉग फिक्सिंग और ईनाम घोटाले' के मुल्ज़िमान को बेनक़ाब किया जा रहा है निहायत सलीक़े से, बड़े खूबसूरत तरीक़े और पूछा जा रहा है कि जो आदमी औरत के नंगे फ़ोटो लगाकर मनोरंजन करने-कराने का इतिहास रखता हो, क्या वह सम्मान पाने का पात्र हो सकता है ?
क्या ऐसा ब्लॉगर किसी को सम्मानित करने का कोई हक़ वास्तव में रखता है ?
कौन है वह आदमी जिसने हिंदी ब्लॉग जगत को पहली बार बताया कि ‘छिपकलियां छिनाल नहीं होतीं‘ ?
ऐसी बहुत सी जानकारियां आपको मिलेंगी निम्न लिंक पर 
और आपके मनोरंजन के लिए 

Thursday, April 21, 2011

21 वीं सदी के अंत तक यूरोप का इस्लामीकरण : एक संभावना - Harikrishan Nigam


पश्चिम में यदि द्रुतगति से फैलने वाली आज की यदि कोई आस्था है तो वह है इस्लाम और इसीलिए उन्होंने इस चौंकाने वाली संभावना को रेखांकित किया है कि इस सदी के अंत तक यूरोप इस्लामी रंग को अपना सकता है, चाहे संगठित चर्च संप्रदायों के साथ-साथ उग्रवाद के संबंध में कितनी ही वैचारिक उठापठक की जाए। जनगणनाओं के विश्लेषणों, या जनसांख्यिकी दबाव भी यही सिद्ध करते हैं कि जिन पर तर्कों के जाल में यदि चाहें तो हम लोगों को भ्रमित करते रह सकते हैं। सहसा विश्वास नहीं होता है कि चर्च की यूरोप जैसी अभेद्य हृदयस्थली को, इस्लाम के विरूद्ध प्रचार के बावजूद, बर्नार्ड लिविस जैसे विश्वप्रसिद्ध विचारक भी मानते हैं, इस सदी के अंत तक, मुस्लिम आस्था नियंत्रित कर सकेगी। कभी-कभी ऐसा लगता है कि बर्नार्ड लिविस का यह प्रश्न उठाना आज के विकास क्रम के लिए श्रेयस्कर है क्योंकि इसके द्वारा विश्व राजनीति का मानचित्र फिर बदला सकता है। हाल में फ्रांसीसी समाचार एजेन्सी एएफपी और एसोसिएटेड प्रेस द्वारा प्रसारित ‘द फोरम आन रिलिजन एंड पब्लिक लाइफ’ के एक तीन वर्षीय अध्ययन से यह तथ्य उजागर हुआ है कि आज विश्वभर में हर चार में से एक व्यक्ति इस्लामी आस्था को मानता है। दुनिया की सबसे बड़ी मुस्लिम जनसंख्या वाले 90 देशों में भारत का स्थान आज तीसरा है। हमारे देश के ऊपर मात्र इण्डोनेशिया और पाकिस्तान ही हैं। चाहे बांग्लादेश हो या मिस्र, ईरान, तुर्की और अल्जीरिया या मोरक्को हो वहां मुसलमानों की संख्या भारत से कम है। हमारे देश में उनकी संख्या 16 करोड़ है। इसी अध्ययन में यह तथ्य भी उजागर हुआ है कि जर्मनी में लेबनान से अधिक मुस्लिम नागरिक हैं, चीन में इस्लाम धर्म में विश्वास करने वाले सीरिया से अधिक हैं और रूस, जार्डन और लीबिया की कुल मिलाकर मुस्लिम जनसंसख्या अधिक है। आज यह अवधारणा कि इसलाम धर्मावलंबी अरब मूल में है ध्वस्त हो चुकी है और यह पूरी तरह से एक वैश्विक समुदाय है।  - हरिकृष्ण निगम
इस लेख को पूरा पढ़ना बहुत से राज़ सामने ले आता है . लिंक यह है :

Sunday, April 17, 2011

पूरी दुनिया की मातृभाषा Mother tounge


वैज्ञानिक मानते हैं कि मनुष्य जाति का उद्गम अफ्रीका में हुआ और वहां से मनुष्य सारी दुनिया में फैले। अब एक वैज्ञानिक शोध बताता है कि दुनिया की सभी भाषाओं की उत्पत्ति भी अफ्रीका की एक मूल भाषा से हुई है। अब तक यह माना जाता रहा है कि शायद तमाम भाषाएं मनुष्य के दुनिया में फैलने के बाद अलग-अलग विकसित हुईं, क्योंकि सभी भाषाओं में किसी प्राचीन समानता का पता नहीं चलता।
वैज्ञानिक ज्यादा से ज्यादा 9,000 वर्ष पहले एक भारतीय और यूरोपीय भाषाओं के समान उद्गम तक पहुंचे हैं, जिन्हें इंडो-यूरोपियन या भारोपीय भाषा परिवार कहा जाता है। इससे पीछे किसी भाषा का वंशवृक्ष तलाशना अब तक संभव नहीं हुआ था, लेकिन न्यूजीलैंड के एक जीवशास्त्री क्विंटन डी एटकिंसन ने एक नए तरीके से भाषाओं का वंशवृक्ष बनाने की कोशिश की।
उन्होंने शब्दों के उद्गम के बजाय कुछ बुनियादी ध्वनियों पर ध्यान दिया और यह तलाशने की कोशिश की कि इन ध्वनियों का विस्तार कहां-कहां कैसा है। उन्होंने दुनिया की 500 से ज्यादा भाषाओं में ये ध्वनियां पाईं। उन्होंने पाया कि कुछ अफ्रीकी भाषाओं में ये सौ से ज्यादा ध्वनियां हैं, लेकिन जैसे-जैसे हम अफ्रीका से दूर होते जाते हैं, ये ध्वनियां कम होती जाती हैं।
अंग्रेजी में लगभग 45 ध्वनियां हैं, जबकि हवाई की भाषा में सिर्फ 13 ध्वनियां हैं। यह काफी रोचक और विश्वसनीय शोध है और इसके जरिये शायद हम भाषाओं के इतिहास या प्रागैतिहास में 50,000 वर्ष या उससे पीछे जा पाएं। जाहिर है, अफ्रीका के मूल निवासी अपने ही इलाके में रह गए, इसलिए उनकी भाषा में प्राचीन तत्व ज्यादा रह गए।
दूसरे लोग जो दूरदराज जाकर बसते गए, उनकी भाषा में नए वातावरण, नई जरूरतों के हिसाब से ध्वनियां और वाक्प्रचार आते रहे और प्राचीन भाषा के तत्व और कम हो गए। जो लोग दूरदराज जाकर वहां अलग-थलग पड़ गए, उनकी भी भाषा में मूल तत्व ज्यादा रह गए होंगे, जैसे दुनिया के विभिन्न इलाकों के आदिवासी। लेकिन जिन समाजों और संस्कृतियों में घुलना-मिलना ज्यादा रहा, उन्होंने नए तत्व दूसरे समाजों और संस्कृतियों से भी हासिल किए और इसलिए उनमें ज्यादा बदलाव आए।
किसी भी समाज के विकास के लिए उसका दूसरे समाजों से घुलना- मिलना बहुत जरूरी है। जो समाज भौगोलिक या ऐतिहासिक वजहों से अलग-थलग पड़ जाते हैं, वे अक्सर किसी जगह थम जाते हैं। अगर हम भारतीय भाषाएं ही नहीं, भारतीय समाज के विकास को देखें, तो हम पाएंगे कि हजारों वर्षो से हमारे पुरखे सिर्फ एशिया ही नहीं, यूरोप के लोगों से भी व्यापारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संबंध बनाते रहे हैं, जबकि उस जमाने में यात्राएं कितनी मुश्किल थीं, यह हम आसानी से समझ सकते हैं।
यह जानना जितना रोमांचक है कि पचास हजार या उससे भी पुरानी पहली आदिम मानवीय भाषा की कुछ ध्वनियां हमारी बोलचाल में आज तक मौजूद हैं। उतना ही रोमांचक यह भी है कि तब से अब तक मानव समाज ने कितनी तरक्की की। जिस तरह अफ्रीका के अतीत की  किसी एक औरत से पूरी दुनिया के डीएनए के सूत्र जुड़ते हैं, वैसे ही किसी एक मातृभाषा से भी हम जुड़े हैं। पर उसके बाद का सफर, कम से कम आज से नौ-दस हजार बरस तक का अब भी धुंधला है।
इसे जानना रोमांचक होगा। जो तकनीक एटकिंसन ने अपनाई है, अगर उसकी अन्य वैज्ञानिक तरीकों से तसदीक हो सके, तो भाषा के इतिहास पर नई रोशनी पड़ सकती है। संभव है जैसे डीएनए के नक्शे ने इंसान का इतिहास खोजने में हमारी मदद की, वैसे ही भाषा के ये डीएनए हमारे लिए भाषाओं का इतिहास खोजने में मददगार हों।
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यह लेख आज हिन्दुस्तान दैनिक का सम्पादकीय है, जिसे आप ऑनलाइन भी देख सकते हैं, इस पोस्ट में दिया गया चित्र गूगल से साभार है :

Saturday, April 16, 2011

नीलकंठी ब्रजः वृंदावन की विधवाओं की दुनिया -राजेन्द्र सहगल


इस तथ्य से भला कौन इंकार कर सकता है कि तथाकथित प्रगतिशीलता और उत्तर आधुनिकता के इस दौर में भी भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा धर्म, संस्कृति, परम्परा और मर्यादा के नाम पर स्त्रियों का, विशेषतया विधवाओं का निरंतर दमन एवं शोषण कर रहा है।
रूढ़िवादी समाज की क्रूरताओं और बेड़ियों में छटपटाती विधवाओं के जीवन को आधार बनाकर असमिया की लब्ध प्रतिष्ठित रचनाकार इन्दिरा गोस्वामी का उपन्यास ‘नीलकंठी ब्रज’ विधवाओं के जीवन को दारुण वास्तविकताओं के चित्रण के साथ-साथ पुरुष वर्चस्व की घृणित परिणतियों के शोषण चक्र के रूपाकार की भी निर्मम व्याख्या करता है।
डाक्टर राय चौधरी की कच्ची उम्र में विधवा हुई बेटी सौदामिनी के ईसाई युवक के प्रति आकर्षित होने से कट्टर सनातनी धर्मभीरू पिता का पत्नी अनुपमा सहित ब्रजवास आगमन केउपरांत राधेश्यामियों के बीच जीवन की उद्दाम तरंगों की गला घोंटने की कारूणिकता पाठक को भिगो देती है। ब्रजमंडल की लीलाभूमि में शशिप्रभा का पुजारी आलमगढ़ी द्वारा यौन शोषण तथा रूढ़ियों-बेड़ियों में जकड़ी ‘राधेश्यामी’ विधवाओं के नारकीय जीवन की भयावहता सहज ही झिंझोड़ देती है।
अपनी नैसर्गिक इच्छाओं पर निरंतर दमन से इन ब्रजवासी विधवाओं के कंकाल जैसी देहों पर लिपटी मैली कुचैली धोतियों में लिपटे उनके मनोविज्ञान को उभारते हुए लेखिका का कहना है, ‘एक बार फिर वे प्रेतात्माएं हंस पड़ी। उनकी हंसी इस तरह कर्कशा थी, मानो अस्थियों का खड़ताल बज उठा हो।’
इन्हीं कठोर निर्मम बेड़ियों की जकड़न का ही नतीजा है कि जब महाप्रभु रंगनाथ की परिक्रमा या विलास विनोद की आम्रकुंजके लिए शोभा यात्रा निकलती है तो अपनी जीर्ण शीर्ण टूटी फूटी कोठरियों से ये अनायास निकल पड़ती है और इनके दुबले पतले हाथ पैरों में खून के दौरे से उन्माद सा उतर आता है। लेखिका ने संसार के सार और जगत के कर्म स्थान ब्रज में पंडो-दलालों के दुष्कृत्यों व मरी हुई बुढ़िया के क्रिया कर्म तक में छीनाझपटी व जूतम पैजार की बखिया उधेड़ी है।
शरीर और दिमाग के उत्ताप को जीने की लालसा में सांस लेते इन पात्रों की मनोव्यथा के जरिए लेखिका धर्म, संस्कृति और परम्परा के नाम पर भारतीय समाज में विशेषतया विधवा जीवन के रस को सोखने वाली चालों-कुचालों, एकाकीपन एवं परावलंबन के भीषण यथार्थ को संजीदा अभिव्यक्ति प्रदान करती है।
लेखिकाः इंदिरा गोस्वामी, अनुवादकः दिनेश द्विवेदी, प्रकाशकः भारतीय ज्ञानपीठ, मूल्यः 140 रुपये
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आज 'हिन्दुस्तान' में इस पुस्तक की समीक्षा छपी है . इसे आप ऑनलाइन भी देख सकते हैं :

Monday, April 11, 2011

हमारे पूर्वज हमें ईश्वर से जोड़ते हैं जो कि कल्याणकारी है The Lord Shiva and First Man Shiv ji

शिव का अर्थ है कल्याण करने वाला. यह नाम उस ईश्वर का भी है जिसने इस सृष्टि को पैदा किया है और यही नाम उस प्रथम पुरुष का भी है जिससे यह अनुपम मानव-सृष्टि चली है . यह नाम उनके बाद भी बहुत से लोगों का हुआ है और यह नाम आज भी बहुत से लोगों का है . शिव नाम पवित्र है . ईश्वर भी पवित्र है और प्रथम ऋषि शिव भी पवित्र है . सदाचार और पवित्रता ही उनकी शिक्षा थी . जो बात भी सदाचार और पवित्रता के विरुद्ध पाई जाये , उसे उनके बारे में सत्य न माना जाये तो धर्म का सत्य स्वरुप सामने आ जाता है . अपने शोध में मैंने यही पाया है . 

नाम की समानता के बावजूद हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ईश्वर का नाम भी शिव है और प्रथम ऋषि का भी लेकिन इसके बावजूद ईश्वर उपासनीय है और ऋषि उपासक है. शिव जी हमारे आदि पिता हैं और वे सदैव  परमेश्वर शिव का ध्यान किया करते थे. वे आहार में पवित्र चीज़ें लेते थे और पवित्र कर्म करते थे. मुसलमान स्रष्टा ईश्वर को अरबी में अल्लाह और आदि पिता शिव जी को 'आदम' कहते हैं . शिव जी की पत्नी ही हमारी आदि माता हैं , हिन्दू भाई उन्हें माता पार्वती और मुसलमान  उन्हें अम्मा हव्वा कहते हैं . भविष्य पुराण में उनका एक नाम 'हव्यवती' भी आया है. 

हमारे पूर्वज हमें ईश्वर से जोड़ते हैं. अगर हम अपने पूर्वजों के सत्यस्वरुप को वास्तव में जान लें तो हम बिना किसी अतिरिक्त साधना के सहज भाव से ही ईश्वर से जुड़ जाते है .हम आपस में भी वास्तव में तभी जुड़ सकते हैं जबकि हम पहले अपने पूर्वजों से सही तौर पर जुड़ जाएँ . उनके बारे में फैलाई गयी गलत बातों का खंडन करने  के बाद ही हमारे लिए उनका अनुकरण कर पाना संभव हो पाता है . 

इसी उद्देश्य से मैंने  कुछ लेख लिखे हैं . उनमें से कुछ को मैं यहाँ पाठकों की सुविधा के लिए एक साथ पेश कर रहा हूँ . इसमें अगर किसी  भाई को कोई तथ्य गलत लगता है तो उसे गलत पाए जाने पर तुरंत हटा दिया जायेगा .

क्या काबा सनातन शिव मंदिर है ? Is kaba an ancient sacred hindu temple?

क्या वाक़ई हज्रे अस्वद शिवलिंग है ? Black stone : A sign of ancient spiritual history.

 शिवलिंग की हक़ीक़त क्या है ? The universe is a sign of Lord Shiva . 

 शिव वंश के मरते मिटते सदस्यों को कौन यह बोध कराएगा कि वास्तव में वे आपस में सगे सम्बंधी और एक परिवार हैं ? Holy Family of Aadi Shiva

हे परमेश्वर शिव ! अपने भक्त भोले शिव के नादान बच्चों को क्षमा कर दे क्योंकि वे नहीं जानते कि वे आपके प्रति क्या अपराध कर रहे हैं ? Prayer

'ऋषियों को नाहक़ इल्ज़ाम न दो' Part 3 ; Shiva : The Innocent Father

हमें पंडे पुरोहित और धर्म के ठेकेदार नहीं चाहिए - स्वामी विवेकानंद Hunger's cry

श्रद्धा के पात्रों को अपनी व्यंग्य विधा का पात्र न बनायें Honourable Personalities

 

Saturday, April 9, 2011

भगवान जो करता है भले के लिए करता है , देखने के लिए बस गहरी नज़र चाहिए Destiny

हे भगवान ! तेरा लाख-लाख शुक्रिया हैं- - स्वेट मार्डन

एक युवक-युवती आपस में एक-दूसरे को बेहद चाहते थे पर युवती को न जाने क्या सूझा कि उसने किसी दूसरे व्यक्ति से शादी कर ली। यह देखकर वह युवक सदमें मे चला गया। उसका खाना-पीना छूट गया। उस पर नशे का भूत सवार हो गया. मात्र दो सालों में वह सूखकर कंकाल हो गया। एक दिन समाचार पत्र में उसने देखा-एक युवक ने फाँसी खाकर आत्महत्या कर ली। वह यह देखकर चौंक उठा क्योंकि वह युवक और कोई नहीं उसकी प्रेमिका का पति था। उसने लिखा था- मैंने जिससे शादी की वह औरत इतनी गुस्सैल थी कि मैं उससे तंग आकर आत्महत्या कर रहा हूँ। यह पढ़ते ही उसने दोनों हाथ ऊपर उठाए और भगवान से कहा- हे भगवान ! तेरा लाख-लाख शुक्रिया हैं। अगर मेरी शादी उससे हो जाती तो आज अखबार में उसका नहीं मेरा फोटो छपा होता।
क्या आप जानते हैं, वही व्यक्ति आगे चलकर दुनियाँ का महान लेखक स्वेट मार्डन के नाम से मशहूर हुआ. उक्त घटनाक्रम से उनका जीवन का क्रम ह़ी बदल गया.
(साभार खबर इंडिया, सकारात्मक सोच को बढ़ावा देने के लिए)

Thursday, April 7, 2011

दो ब्लॉग पर एक ही पोस्ट , अजय जी के साहस को हमारा सलाम मय 11 तोप के गोलों के साथ इसलिए कि शायद सोने वाले जाग जाएं भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ Corruption

अजय कुमार झा जी एक रूतबे वाले पत्रकार हैं और हमारी वाणी के मार्गदर्शक मंडल के प्रमुख से लेकर सामान्य तक हरेक सदस्य से उनकी जान पहचान भी अच्छी है । जो भी हो ग़लत आख़िर ग़लत है ।
अजय जी ने एक ही पोस्ट दो ब्लॉग पर डाल दी है और शीर्षक भी ज्यादा नहीं बदला ।
जगह जगह मौक़ा बेमौक़ा नियमावली बाँचने वाले द्विवेदी जी की पोस्ट भी उनके ऊपर नज़र आ रही है लेकिन ऐसे मौक़ों पर ये लोग धृतराष्ट्र का रोल प्ले करने लगते हैं ।
देखते हैं कि हमारी वाणी धर्म और अजय जी का रूतबा दरकिनार करके उनके दोनों ब्लॉग्स को आज निलंबित करती है या कल ?

Sunday, April 3, 2011

क्रिकेट के नाम पर हमारा ध्यान असल समस्याओं से हटाया जा रहा है World Cup 2011

क्रिकेट से खुन्नस रखने के पीछे मेरे निजी अनुभव हैं जो कि अच्छे नहीं हैं। जब मैं बच्चा था तो मुहल्ले भर के चाचा और तमाम तरह के दूर नज़्दीक के रिश्तेदार घर में क्रिकेट मैच देखने के लिए जमा हो जाया करते थे क्योंकि तब तक कम घरों में टी. वी. था। उनके घरों में पैसे की तंगी की वजह से टी. वी. नहीं था, ऐसी बात नहीं है। सभी लोग काफ़ी रिच हैं लेकिन तब तक घरों पर उन बड़े बूढ़ों का होल्ड था जो घर में टी. वी. आने की इजाज़त नहीं देते थे।
घर में जमावड़े से हमारे लिए कई तरह की दिक्क़तें खड़ी हो जाती थीं और घर का सारा दूध चाय बनाने में ही ख़र्च हो जाता था। हम सबको चाय सप्लाई करते रहते थे और बाज़ार से दूध और नाश्ते का सामान ही लाते रहते थे। ज़मींदार लोग थे, किसी को कोई काम अपने हाथ से करना नहीं था। नौकर खेतों पर काम करते रहते थे।
सबकी ऐश आ जाती थी और हमारी आफ़त। सबसे ज़्यादा दुख हमें अपनी वालिदा साहिबा को ढेर के ढेर कप धोते हुए देखकर होती थी। वालिद साहब के सामने कोई चूं भी नहीं कर सकता था। जिसने उन्हें न देखा हो वह सनम बेवफ़ा के डैनी या प्राण को देख ले। शलवार कमीज़ , सर पर पगड़ी और एक पठानी खंजर भी। अल्लाह का शुक्र है कि उस पर किसी का खून नहीं लगा। जिसका हमारे वालिद को आज तक मलाल है। कभी कभी सोचता हूं कि अगर सूरज इंसानी शक्ल में हमारे सामने आए तो उसे हमारे वालिद साहब का रूप रंग पूरी तरह मैच करेगा। चेहरा सुर्ख़ और आँखें अंगार, हर समय।
आम दिनों में जब वालिद साहब घर में होते थे तो हम इधर उधर टल जाया करते थे। क्रिकेट के दिनों में वालिद साहब की मौजूदगी का वक्त भी बढ़ जाता था और हम उनकी नज़र के सामने से हट भी नहीं सकते थे। चाय और पान की खि़दमत हमारे सुपुर्द जो हो जाया करती थी। इन सब बातों की वजह से हमें बचपन से ही क्रिकेट से नफ़रत हो गई थी। थोड़ा बड़े हुए तो पता चला कि कई बार इस क्रिकेट की वजह से देश में दंगे हो गए और बेवजह ही लोग मारे गए। इस खेल से हमारी नफ़रत में और ज़्यादा इज़ाफ़ा हो गया।
एम. ए. में पहुंचे तो हमें सोशियोलॉजी में बताया गया कि अपनी नाकामियों से ध्यान हटाने के लिए शासक लोग जनता को खेल और मनोरंजन में लगा देते हैं। इससे उनका ध्यान जीवन के अहम मुद्दों से हट जाता है। यूनानी शासक यही करते थे।
हमने पाया कि जैसे-जैसे देश और दुनिया में समस्याओं का अंबार लगता जा रहा है, वैसे वैसे खेल और मनोरंजन के साधन भी जनता को ज़्यादा से ज़्यादा उपलब्ध कराए जा रहे हैं।
मीडिया ने बताया कि बहुराष्ट्रीय कंपनियां इन खेलों में प्रतिवर्ष खरबों रूपया ख़र्च करती हैं और उससे कई गुना ज़्यादा कमाती भी हैं। देश का पैसा खिंचकर विदेश में जाता है। पहले से ही कंगाल जनता कुछ और बदहाल हो जाती है और फिर यह भी सामने आ गया कि सट्टा किंग पहले से ही यह तक तय कर देते हैं कि जीतना किसे है ?
बहुत बड़ा गोरखधंधा है यह कप और विश्व कप। जो इसे समझता है, वह न किसी की हार से दुखी होता है और न ही किसी की जीत से खुश। जो नादान हैं वे समझते हैं कि हाय ! हम हार गए या हुर्रे ! हम जीत गए।
अफ़सोस होता है यह देखकर कि देश के 22 नौजवान 8 मई 2010 से सोमालियाई लुटेरों की क़ैद में हैं। जाने उनमें से कौन अब ज़िंदा होगा ?
हम एक एटमी पॉवर हैं और हमसे डरते नहीं हैं समुद्री लुटेरे भी। हमारे आदमी उन्होंने पकड़ लिए। इस बात पर अफ़सोस करने के लिए जो देश एक न हो सका, जो ब्लॉग जगत एक न हो सका और कोई सशक्त आंदोलन न चला सका। वह हिप हिप हुर्रे हुर्रे करके कह रहा है अहा, हम जीत गए।
क्या सचमुच हम जीत गए ?
यह सच है कि हमारी क्रिकेट टीम ने विश्व कप जीत लिया है । तमाम बातों के बावजूद इसे एक उपलब्धि भी माना जा सकता है लेकिन हरेक चीज़ अपनी उपयोगिता के कारण ही सार्थक या निरर्थक मानी जाती है। आखि़र देश की जनता के लिए इस कप का उपयोग क्या किया जा सकता है ?
जिन देशों की सिरे से ही कोई क्रिकेट टीम नहीं है, क्या वे बेकार देश हैं ?
जिस देश में आज भी लोग मलेरिया के हाथों लाखों की तादाद में मर जाते हैं। जहां करोड़ों माएं प्रसव के दौरान मर जाती हैं। जहां नशे के कारोबार को सरकारी आश्रय प्राप्त है और नशे की वजह से कितने ही रोड एक्सीडेंट रोज़ होते हैं या फिर कलह के कारण करोड़ों परिवारों का सुख चैन बर्बाद है सदा के लिए।
जहां गुरबत है और ऐसी गुरबत है कि मात्र एक रूपये में इस देश की औरत अपनी आबरू बेच रही है। मैं ऐसे फ़ौजियों से मिला हूं जिन्होंने यह सब खुद देखा है और उस इलाक़े का नाम मुझे बताया है। कश्मीर में भी मुझे यही पता चला। देश का कोई इलाक़ा शायद ऐसा न हो जहां ज़रूरतें इंसान की शर्म और ग़ैरत को न चाट रही हों। जहां ज़रूरतें और मजबूरियां नहीं हैं वहां भी यही सब हो रहा है। वहां वजह बन रही है दौलत की हवस। पति-पत्नी का रिश्ता एक पवित्र संबंध है लेकिन दौलत की हवस यहां भी पैर पसारे आपको मिल जाएगी और दहेज की इसी हवस में कहीं बहुएं जलाई जा रही हैं और कहीं लड़कियां या तो बेमेल ब्याही जा रही हैं या फिर कुंवारी ही बूढ़ी हो रही हैं या फिर गर्भ में ही मारी जा रही हैं। माएं आज बेसहारा हैं और विधवाएं तो हमेशा से हैं ही। जिन समस्याओं को हमें हल करना था, उन्हें हम हल नहीं कर पाए।
ग़रीबी और कुपोषण की वजह से बच्चे बचपन में ही या तो मर जाते हैं या फिर मज़दूरी करते हैं। किसान मज़दूर सूदख़ोर महाजन के ब्याज के फंदे में झूलकर आए दिन आत्महत्या करते हैं। कुछ बाबा और महात्मा ग़रीबों की सेवा पहले भी करते थे और आज भी करते हैं लेकिन इन्हीं का रूप बनाकर पहले भी ठग जनता को ठगते थे और आज भी ठग रहे हैं बल्कि मंत्री और मुख्यमंत्री तक बन चुके हैं। आशीर्वाद और योग को ये लोग कारोबार बना चुके हैं। भारत एक धर्म-अध्यात्म प्रधान देश है और आस्था इसकी पहचान है लेकिन आज देश की जनता के सामने केवल अधिक से अधिक सुविधा और ऐश बटोरना ही एक मात्र मक़सद है। कभी जनता हड़ताल करती है तो कभी वकील और कभी डाक्टर।
देश का क़ानून टूटता हो तो टूटे , कोई मरता हो तो मरे, इनकी बला से इनके अधिकार कम न हों, इनकी सैलरी बढ़ा दी जाए। ये बुद्धिहीन लोग बुद्धिजीवी कहलाते हैं, यह देश की त्रासदी है। बस केवल सांसद ही कभी हड़ताल नहीं करते। उन्हें जो कुछ सुविधाएं लेनी होती हैं, अपने लिए खुद ही मंजूर कर लेते हैं।
इस आंतरिक मज़बूत एकता के बावजूद ये नेता बाहर से खुद को बंटा हुआ दिखाते हैं ताकि जनता यह समझे कि यह वामपंथी है और वह दक्षिणपंथी, यह समाजवादी है और वह निर्दलीय। यह अमीरों का पिठ्ठू है और वह ग़रीबों का मसीहा है। ये गुट बनाकर आमने सामने डटे रहते हैं और जब भी कोई पार्टी जीतती है तो पब्लिक समझती है कि ‘अहा ! हम जीत गए।‘
लेकिन जब वह पार्टी काम काज संभालती है तो वह भी पुराने ढर्रे पर ही आगे बढ़ती है जिससे जनता की केवल मुसीबतें बढ़ती हैं और उनसे ध्यान बंटाने के लिए उसके लिए खेल और मनोरंजन के साधन बढ़ा दिए जाते हैं।
आज चैराहों पर ढोल बज रहे हैं, पटाख़े छोड़े जा रहे हैं, मिठाईयां बांटी जा रही हैं। हर तरफ़ एक जुनून है, एक खुशी की लहर छाई हुई है। राष्ट्रवादी लोग भी मगन हैं। जो सारा माजरा समझते हैं वे चुप हैं। वे जानते हैं कि दीवानेपन और जुनून की कैफ़ियत में उनकी सही बात सुनेगा ही कौन ?
लेकिन ऐसा नहीं है।
सुनने वाले लोग भी इन्हीं के दरम्यान हैं। सोचने-समझने वाले लोग भी इन्हीं के बीच मौजूद हैं। आप कहेंगे तो बात उन तक ज़रूर पहुँचेगी जिन्हें मार्ग और मंज़िल की तलाश है।
जिन खेलों से सीधे तौर पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाभ होता है या फिर हमारे पूंजीपतियों और निकम्मे हाकिमों को, उनका प्रभाव लाज़िमन हमारे राष्ट्र को कमज़ोर ही करता है।
समस्याओं से त्रस्त लोगों के बीच खड़े होकर कहना कि ‘हम जीत गए।‘
सिर्फ़ यह बताता है कि उन्हें देशवासियों की समस्याओं से वास्तव में कुछ लेना-देना ही नहीं है। उनके लिए तो बस मनोरंजन ही प्रधान है। हमारे हाकिम भी यही चाहते हैं कि हमें होश न रहे। हरेक गली-नुक्कड़ पर नित नए खुलते हुए शराब के ठेके इसी बात की पुष्टि करते हैं। जिस देश में कभी गंगा शुद्ध बहती थी। उसी देश में आज शराब की नदियां बहाई जाएंगी और यह सब होगा राष्ट्रवाद के नाम पर। जो चीज़ राष्ट्र को खोखला करती है उसका इस्तेमाल राष्ट्रवादियों में आम क्यों है ?
महंगाई, मिलावट और नक्सलवाद से लेकर हरेक समस्या ले लीजिए, हम हर मोर्चे पर हार रहे हैं, ऐसे हालात में क्रिकेट के जुनून में दीवाना हो जाना मर्ज़ को और बढ़ा रहा है।
जो देख सकते हैं, वे हालात को सही एंगल से देखने का कष्ट करें मुल्क की भलाई की ख़ातिर, ऐसी हमारी विनती है।
बचपन में तो हम अपने वालिद साहब के सामने कह नहीं सकते थे लेकिन आप लोगों से तो हम कह ही सकते हैं कि क्रिकेट के नाम पर हमारा ध्यान असल समस्याओं से हटाया जा रहा है।
हरेक सोचे कि इस धरती पर उसके जन्म का उद्देश्य क्या है ?
इसके लिए वह अपने गुरूओं और ग्रंथों की सहायता ले और फिर देखे कि क्रिकेट के ज़रिए वह अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है या कि उससे दूर होता जा रहा है ?