Thursday, December 30, 2010

नफ़रत से भरे मीडियाकर्मियों का एक सांकेतिक मनोविश्लेषण Media, my business part 1

प्यारी बहन दिव्या जी ! आपका नाम भी सुंदर है और उपनाम भी और आप ख़ुद भी । ऐसा मैंने हमेशा ही कहा है । सुंदरता के साथ आपमें बुद्धिमत्ता भी है और उत्साह भी और इन सबके साथ है आपमें अपने देश और समाज के लिए कुछ करने का जज़्बा भी है और इस रास्ते में आने वाली मुश्किलों का सामना करने के लिए फ़ौलादी हौसला भी। इसीलिए मैंने आपको 'अमन के पैग़ाम' ब्लाग पर ब्लाग संसार की पहली लौहकन्या का खिताब भी अता किया है जिस पर आपके किसी Follower तक ने भी आपको मुबारकबाद नहीं दी , यहाँ तक कि मेरे भाई अमित जी तक ने भी नहीं ।
आपमें ख़ूबियां केवल इतनी ही नहीं बल्कि इनसे कहीं ज़्यादा हैं । आपको 'सजेशन ट्रिक' के जरिए अपने रूट से डायवर्ट नहीं किया जा सकता और न ही आप मतभिन्नता ज़ाती रंजिश और बायकॉट तक ही ले जाती हैं । जबकि इस विषय में काफ़ी उम्रदराज़ बुज़ुर्ग तक ग़च्चा खा चुके हैं , ख़ासकर मेरे बारे में । लेकिन आपने मेरी बात का कभी बुरा नहीं माना और न ही मेरे ब्लाग पर ही आना छोड़ा। इसका मतलब है कि हमारे संबध सामान्य हैं ।

आज भी मैंने हमेशा की तरह आपका ब्लाग देखा और आपकी ताजा पोस्ट में एक अंतर्विरोध देखा है । उसी पोस्ट के बारे में मैं आपसे चंद सवाल पूछना चाहता हूँ । सवाल सामान्य हैं लेकिन एक डर है कि कहीं आपको बुरा न लग जाए । हरेक के बुरा मानने की तो मैं खुद परवाह नहीं करता लेकिन जिन्हें मैं सराहता हूं , उनके जज़्बात का खयाल रखने की कोशिश मैं जरूर करता हूँ ।
अगर आप नाराज़ न होने का आश्वासन दें तो मैं अपने सवाल आपके सामने पेश करूं वर्ना तो जाने दूंगा क्योंकि सवाल बहुत अहम नहीं हैं ।

कल मैंने अपनी पोस्ट में बहन दिव्या जी से यह निवेदन किया था । चूंकि उन्होंने मेरे निवेदन का अभी तक कोई उत्तर नहीं दिया है इसलिए मैं उनसे अभी कोई सवाल भी नहीं करूंगा ।
इस पोस्ट में कोई सवाल नहीं किया गया है । आप देख सकते हैं यह पूरी पोस्ट बहन दिव्या जी की तारीफ से भरी हुई है । बेशक इसे एक अच्छी पोस्ट कहा जाना चाहिए लेकिन जिन लोगों के दिलों में दुश्मनी और नफरत हो , ऐसे अच्छे लेख पर भी उनसे कोई सराहना नहीं मिल सकती क्योंकि अगर उन्होंने स्वीकार कर लिया कि सवाल पूछने से पहले इजाजत लेना , तारीफ करना अनवर जमाल का सद्गुण है तो उनका तो वह सारा मिशन ही चौपट हो जाएगा जो कि मुसलमानों की छवि बिगाड़ने के लिए वे बरसों से चलाते आ रहे हैं ।
जनाब रोहित साहब (बोले तो बिंदास वाले) बहन दिव्या जी के ब्लाग पर कह रहे हैं कि मैं अनवर जमाल की पोस्ट पढ़कर आ रहा हूं। उनकी पोस्ट में अंतर्विरोध है।
मैं उनकी बात पर मुस्कुराकर रह गया ।
बहन दिव्या जी ने भी उनसे न पूछा कि भाई उस पोस्ट में तो उन्होंने न कोई मुद्दा उठाया है और न ही कोई सवाल किया है । उसमें तो किसी का विरोध तक नहीं है फिर अंतविरोध कहां से आ गया ?
चापलूसी और नफ़रत की भी हद है ।
मेरे एक पुराने परिचित बंधु हैं । मेरी टिप्पणी को आधार बनाकर वे भी दिव्या जी के कान भरते हुए देखे जा सकते हैं , उन्हें आपत्ति है कि मैंने दिव्या जी को मेनका जैसा सुंदर क्यों कह दिया ?
चलिए , उन्होंने कहा सो कहा । वे तो वेद पुराणों तक की बात को बकवास मानते हैं। फिर मेरी बात पे आपत्ति करने का उनका फ़र्ज़ भी है क्योंकि वे 'राष्ट्रवादी' हैं और आजकल मुसलमानों को किए बिना राष्ट्रवादी सा दिखना मुमकिन नहीं है । ये बंधु मेरे विरोधी हैं लेकिन चापलूस क़िस्म के नहीं हैं

चापलूस तो शायद रोहित जी भी न हों लेकिन उन्होंने मराठी बंधु को पछाड़ने के लिए पहले तो उन्होंने दिव्या जी दंडवत आदि करके लुभाया और फिर ख़ुद को बहन दिव्या जी की नज़र में उनका बहुत बड़ा हमदर्द साबित करने के लिए मुझसे भिड़ गए ।
(हिंदी फिल्मों का घिसा पिटा फ़ॉर्मूला , मनोविज्ञान की समझ रखने वाली दिव्या जी भी इनके सर्कस देखकर ज़रूर हंसती होंगी । ये लाइनें लिखते हुए खुद मेरे ही पेट में बल पड़े जा रहे हैं ।)

बहरहाल (हंसी रोककर) , रोहित जी ने कहा कि 'जो बहन की सुंदरता की उपमा मेनका से दे उसे भारतीय सभ्यता और संस्कार का क्या पता ? इनकी और इन जैसों की सोच पर लानत ।'
ऐसे ऐसे लोग मीडिया में आ गए हैं , पत्रकार बनकर बैठ गए हैं बल्कि रोहित जी तो अभिमन्यु की तरह गर्भ में भी पत्रकारिता का ही ज्ञान अर्जित करते होंगे क्योंकि वे ख़ुद बताते हैं कि अपने पिता जी के पत्रकार होने के कारण आंख खुलते ही पत्रकारिता का माहौल देखा । इतने लंबे समय के शिक्षण लेने और हिंदुओं के दरम्यान रहने के बावजूद बल्कि ख़ुद हिंदू होने के बावजूद भी उन्हें यह तक नहीं पता कि मेनका किसी वेश्या का नहीं बल्कि स्वर्ग की एक अप्सरा का नाम है । सुंदरता की उपमा देने के लिए मेनका का नाम लिया जाता है क्योंकि स्वर्ग की अप्सराओं की ख़ूबसूरती अतुलनीय मानी जाती है और मेनका को सभी अप्सराओं में प्रमुख माना जाता है । यही वजह है कि हिंदू अपनी बेटियों का नाम बेहिचक रखते हैं और प्राय: ये नाम पंडित जी की सलाह के बाद या उनके सुझाव पर ही रखे जाते हैं क्योंकि पंडित जी ही नवजात कन्या की कुंडली बनाते हैं, उनकी राशि और नक्षत्र देखकर उसके नाम का प्रथम अक्षर ज्ञात करके उसके नाम का निर्धारण करते हैं । अगर मेनका या मेनका का नाम घृणित होता तो कोई पंडित सवर्ण समाज को यह नाम रखने की सलाह हरगिज़ न देता और न ही ऐसी घृणित सलाह के बदले में उसके यजमान उसे दक्षिणा , भेंट और उपहार ही देते । हिंदू समाज में मेनका नाम का सामान्य प्रचलन यह सिद्ध करता है कि अपनी बेटी का नाम मेनका रखना एक पुनीत कार्य है क्योंकि नामकरण संस्कार हिंदुओं के सोलह पवित्र संस्कारों में से एक है । इस अवसर पर बहुत से रिश्तेदार और परिचित भी इकठ्ठा होते हैं । नाम में कुछ भी बुराई होती तो कोई तो ऐतराज़ करता ।
रोहित जी का ऐसे पुनीत नाम पर ऐतराज़ करना या तो हिंदू साहित्य और संस्कारों सिर्फ़ उनकी अज्ञानता को दर्शाता है या फिर मुसलमानों के प्रति या सिर्फ़ मेरे प्रति उनके विद्वेष को। मीडिया में ऐसे लोग हैं यह चिँता का विषय है।
[...जारी]

Wednesday, December 29, 2010

एक निवेदन ब्लाग जगत की लौहकन्या बहन दिव्या जी से A friendly request

प्यारी बहन दिव्या जी ! आपका नाम भी सुंदर है और उपनाम भी और आप ख़ुद भी । ऐसा मैंने हमेशा ही कहा है । सुंदरता के साथ आपमें बुद्धिमत्ता भी है और उत्साह भी और इन सबके साथ है आपमें अपने देश और समाज के लिए कुछ करने का जज़्बा और इस रास्ते में आने वाली मुश्किलों का सामना करने के लिए फ़ौलादी हौसला भी। इसीलिए मैंने आपको 'अमन के पैग़ाम' ब्लाग पर ब्लाग संसार की पहली लौहकन्या का खिताब भी अता किया है जिस पर आपके किसी Follower तक ने भी आपको मुबारकबाद नहीं दी , यहाँ तक कि मेरे भाई अमित जी तक ने भी नहीं ।
आपमें ख़ूबियां केवल इतनी ही नहीं बल्कि इनसे कहीं ज़्यादा हैं । आपको 'सजेशन ट्रिक' के जरिए अपने रूट से डायवर्ट नहीं किया जा सकता और न ही आप मतभिन्नता को ज़ाती रंजिश और बायकॉट तक ही ले जाती हैं । जबकि इस विषय में काफ़ी उम्रदराज़ बुज़ुर्ग तक ग़च्चा खा चुके हैं , ख़ासकर मेरे बारे में । लेकिन आपने मेरी बात का कभी बुरा नहीं माना और न ही मेरे ब्लाग पर ही आना छोड़ा। इसका मतलब है कि हमारे संबध सामान्य हैं ।

आज भी मैंने हमेशा की तरह आपका ब्लाग देखा और कांग्रेस के विरोध में प्रकाशित आपकी ताज़ा पोस्ट को पढ़ा तो मैंने उसमें एक अंतर्विरोध देखा । उसी पोस्ट के बारे में आपसे मैं चंद सवाल पूछना चाहता हूँ । सवाल सामान्य हैं लेकिन एक डर है कि कहीं आपको बुरा न लग जाए । हरेक के बुरा मानने की तो मैं खुद परवाह नहीं करता लेकिन जिन्हें मैं सराहता हूं , उनके जज़्बात का खयाल रखने की कोशिश मैं ज़रूर करता हूँ ।
अगर आप नाराज़ न होने का आश्वासन दें तो मैं अपने सवाल दरयाफ़्त कर लूंगा वर्ना जाने दूंगा क्योंकि सवाल बहुत अहम नहीं हैं ।

Monday, December 27, 2010

गाना गाओ इमेज बनाओ Image engineering

आदमी शरीर नहीं है बल्कि आदमी विचार है । खुद आदमी के पास भी विचार है । विचार दौलत भी है और विचार हथियार भी है। टिप्पणियाँ भी लोगों का विचार हैं । जिसके पास जितनी ज्यादा टिप्पणियाँ हैं वह उतना ही समृद्ध है और जिसके पास टिप्पणियाँ कम हैं वह उतना ही बेचारा सा लगता है समृद्ध को । ब्लागिंग में बौर्ज़ुआ कल्चर भी है और माफ़ियागिरी भी । लुटियाचोर और लड़कियों के फ़ॉलोअर से लेकर संत नेता और कलाकार सभी तो हैं ब्लाग जगत में । सांप्रदायिकता भी है और साज़िशें भी । यहाँ धमकियां भी हैं और एंटरटेनमेंट भी। लोग यहाँ हमदर्द बनकर आते हैं बड़े सलीक़े से हैंडल करने की कोशिश करते हैं। अगर आप समझदार हैं और आप कम टिप्पणियों के बावजूद ज़्यादा टिप्पणियों वाले ब्लागर को अपना गॉड फ़ादर नहीं बनाते तो वह अपने गुट के लोगों में आपको नफ़रत फैलाने वाला और देश व समाज के लिए घातक कहेगा , जिन लोगों को उसकी टिप्पणियां चाहियें वे खुद को उससे सहमत जाहिर करेंगे लेकिन अगर आपने उसके आरोप झूठे साबित करके यह दिखा दिया कि ख़ुद को चौधरी बनाने के चक्कर में यह आदमी शुरू से ही मेरी छवि पर लगातार वार करता आ रहा है और मैं इनके बड़ेपन की वजह से टालता आ रहा हूं तो भी उसे परवाह नहीं होगी क्योंकि उसे पता है कि लोगों को संत की तलाश कम है और नाचने गाने वालों की ज़्यादा ।
वह आप पर इल्ज़ाम लगाएगा । आप सफ़ाई देंगे और उससे सवाल करेंगे अगर उसके पास जवाब हुआ तो वह जवाब देगा और अगर उससे जवाब न बन पड़ा तो वह गाना सुनाने लगेगा , नया न बन पड़ा तो पुराना ही सुना देगा।
आप मुंह ताकते रहेंगे उसका कि भाई मुद्दे पर बात चल रही थी हमारी । हमने आपकी पोस्ट पर आपको जवाब दिया है और अब अपने ब्लाग पर हम आपसे कुछ पूछ रहे हैं । आइये ज़रा बताइये कि नफ़रत हम फैला रहे हैं या आप ?
लेकिन वे गाते रहेंगे ।
सुनने वाले समझेंगे कि देखो कितने व्याकुल हैं ?
कितनी पीड़ा के साथ गा रहे हैं ?
उन बेचारों को क्या पता कि पीड़ा तो ये उसे पहुंचाकर आये हैं जो बेचारा गाना भी नहीं जानता ।
अगर आप गाना नहीं जानते तो ब्लाग जगत में आपकी अच्छी इमेज बनना मुश्किल है।
अच्छी इमेज बनाना भी एक हुनर है इसे मैं 'इमेज इंजीनियरिंग' का नाम देता हूं ।
इसका पहला उसूल है कि

'गाना गाओ इमेज बनाओ'
क्योंकि हमारे समाज में आम धारणा यह है कि जो आदमी गाना गाता है वह नफ़रत नहीं फैलाता ।
जबकि यह आदमी अपने विचार के हथियार से आये दिन छवि पर वार करने का ऐलानिया दोषी है।
लेकिन कम टिप्पणी वाले ब्लागर की यहां चलती कब है ?
ख़ैर गाना चलेगा कब तक ?
जल्दी ही छवि पर पुनः प्रहार किया जाएगा । गाना तो मात्र ताज़गी के लिए है वर्ना उनका काम ही ये है कि जिसे मज़बूत देखा उसे सराह लिया और जिसे कमज़ोर देखा उसे 'ग़लत आदमी' ठहरा दिया ।
एक ज़बर्दस्त त्रासदी है यह।

Sunday, December 26, 2010

बंदर क्यों डरते हैं लंगूर से ? One nail drives out another

जनाब सतीश सक्सेना जी मेरे बड़े हैं और मैं उनका आदर करता हूँ और सम्मान भी थोड़ा नहीं करता बल्कि इस ब्लाग जगत में मेरी तरफ से यह अधिकार केवल उन्हीं के लिए रिजर्व है कि वे मुझे जो चाहे कह सकते हैं । अव्वल दिन से मैंने तय कर रखा है कि उनके कहे के बदले में मैं उन्हें कुछ न कहूंगा ।
यानि ऐसा कुछ भी न कहूंगा जो कि एक बुज़ुर्ग को नहीं कहा जाना चाहिए । हां , अगर कहीं उस सच्चे बादशाह की शान में कोई बदतमीज़ी की जाएगी जो कि एक है और सबका मालिक है तो फिर जरूर उन्हें टोका जाएगा लेकिन अदब के साथ या फिर वे किसी समस्या का ग़लत आकलन करके उसका समाधान भी ग़लत पेश करने लगें तो भी मजबूरन बताना ही पड़ेगा कि हुजूर आप बड़े हैं लेकिन आपसे यहाँ चूक हो रही है लेकिन अदब के साथ । न तो एक बड़े को आदर देने का मतलब यह है कि जिस देश और परिवेश में हम रहते हैं उसकी समस्याओं पर ध्यान न दिया जाए , उन्हें दूर करने पर विचार ही न किया जाए और न ही आदर देने का मतलब यह है कि बड़े को उसकी ग़लती भी न बताई जाए । उनके आदर में कमी लाए बिना उनके दावे और आरोप की ग़लती बताई जा सकती है। यह तब और भी ज़रूरी हो जाता है जबकि विषय देशवासियों के कल्याण से जुड़ा हो और मंच भी सार्वजनिक हो । ऐसे में लोगों को ग़लतफ़हमी का शिकार होकर ग़लती कर बैठने से बचाना एक अनिवार्य कर्तव्य बन जाता है ।
A- अपनी ताजा पोस्ट 'काँटे बबूल के' में , जनाब सतीश साहब , आपने मुझे संबोधित करते हुए कहा है कि मुझे दूसरों के धर्म में कमियां नहीं निकालनी चाहियें ऐसा करके मैं एक ग़लत परिपाटी डाल रहा हूं ।
जनाब सतीश जी, आपका यह भी दावा है कि आप ईमानदार हैं ।
अगर वाक़ई आप ईमानदार हैं तो आप बताएं कि क्या दूसरे के धर्म में कमियां निकालने की परिपाटी मैं डाल रहा हूं या मैं पहले से चली आ रही परिपाटी पर प्रहार करके उसे नष्ट कर रहा हूं ?
अगर वाक़ई आप ईमानदार हैं तो बताएं कि जब श्री अरविंद मिश्रा जी हिंदू धर्म की इसलाम से तुलना करके बताते हैं कि हिंदू धर्म में शराब तक पीने की इजाजत है और इसलाम में इस तरह की छूट नहीं है इसलिए इसलाम की तुलना में हिंदू धर्म अत्यंत महान है और इसलाम को सुधारा जाना चाहिए तब आपने मिश्रा जी को धार्मिक लंगूर कहने का साहस क्यों न किया ?
जो कि आपने मुझे बेहिचक कह दिया । क्या सिर्फ इसलिए कि वे बहरहाल एक हिंदू हैं और मैं एक मुस्लिम ?
या फिर इसलिए कि मुझे टिप्पणी देने वाले कम हैं और उन्हें ज्यादा ?
उन्हें नाराज करके आप टिप्पणीकारों को खुद से विमुख नहीं करना चाहते थे ?
मुझे तो आप कई बार कानून की धमकी भी दे चुके हैं लेकिन आपने मिश्रा जी को एक बार भी कानून की धमकी न दी , क्यों भला ?
एक ही जुर्म को करने वाले दो लोगों के साथ आपका बर्ताव अलग अलग क्यों है ?
क्या इसलिए कि दोनों का धर्म अलग है या इसलिए कि आपको दोनों की अमीरी के लेवल में अंतर दिखाई दे रहा है ?
और 'अपेक्षाकृत कमजोर आदमी' को आप आसानी से 'ग़लत' घोषित कर ही देते हैं क्योंकि आपको इसमें अपना कोई नुक़्सान दिखाई नहीं देता । क्या इसी का नाम ईमानदारी है ?
पुराने ब्लागर मिश्रा जी हैं या मैं ?
दूसरे के धर्म में कमी निकालने की परिपाटी मैं शुरू कर रहा हूँ या मुझसे पुराने ब्लागर पहले से ही दूसरों के धर्म में कमियां निकालते आ रहे हैं ?
और आप न सिर्फ चुपचाप देखते आ रहे हैं बल्कि उन्हें टिप्पणियाँ देकर पुष्ट भी करते आ रहे हैं ।
आप बताईये कि इसलाम में कमियां निकालने वालों के ब्लाग पर जाकर आपने कितनी बार अपनी नाराज़गी दिखाई ?
कितनी बार उन्हें क़ानून की धमकी दी और क्या फिर आपने उन्हें टिप्पणी देना बंद किया जैसा कि आप मेरे साथ करते आ रहे हैं ?
अगर आपने नहीं किया है तो फिर या तो आप कुछ लापरवाह और मूडी हैं या आप मुसलमान को जिस पैमाने से नापते हैं , हिंदुओं को भी उसी पैमाने से नापना ज़रूरी नहीं समझते ?
B- 'अमन के पैग़ाम' ब्लाग को उचित समर्थन नहीं मिल रहा है और खुद आपको भी उस ब्लाग पर 20 से भी कम टिप्पणियाँ मिलीं हैं ।
इसका ठीकरा भी आपने मेरे सिर पर फोड़ डाला कि मैं अमन के पैग़ाम पर टिप्पणी करता हूँ इसलिए अमन के पैग़ाम पर अच्छे लेखक को भी लोग उचित सम्मान नहीं दे पाए ।
क्या खूब विश्लेषण किया है ?
टिप्पणी तो मैं आपके और बहन दिव्या जी के ब्लाग पर भी करता हूँ और दोनों ही जगह मॉडरेशन भी लगा है। इसके बावजूद दोनों ही जगह अप्रूवल के बाद मेरी टिप्पणी प्रकाशित भी की जाती है । जिसका मतलब है कि ब्लाग स्वामी को मेरी टिप्पणी में कोई बात काबिले ऐतराज नज़र नहीं आई । मेरी टिप्पणियाँ दोनों ही ब्लाग पर छपीं और इसके बाद भी दोनों ही ब्लाग के लेखकों को लोगों ने बदस्तूर उचित सम्मान देना जारी रखा ।
अत: स्पष्ट है कि अगर लोग किसी लेखक को उचित सम्मान देना चाहें तो मेरी टिप्पणी उनके लिए बाधक नहीं बनती ।

D- इतिहास उन लोगों माफ नहीं करेगा जिन्होंने दोहरे पैमाने अपनाकर सच को सामने आने से रोका होगा और सच यह है कि सबका मालिक एक है । हर चीज उसी के हुक्म की पाबंद है और हरेक इंसान को भी उसके हुक्म की पाबंदी करनी चाहिए ।
देश और समाज का व्यापक हित इसी में है और जो न मानना चाहे और शराब पीकर नई रश्मियों के शबाब के नज़्ज़ारे करना चाहे या और आगे बढ़कर 'गे' बनना चाहे तो बने लेकिन इसलाम में कमी तो न निकाले कि किसी अनवर जमाल को बोलना पड़े ।
लंगूर कभी ख़ुद से नहीं आता । उसे वे लोग लेकर आते हैं जो बंदरों के आतंक से त्रस्त होते हैं और उनसे मुक्ति चाहते हैं । लंगूर जहां होता है । बंदर वहां से पलायन कर जाते हैं जैसा कि ब्लाग जगत में भी अब बंदरों की उछलकूद काफ़ी कम हो चुकी है ।
बंदर को पहचानना हो तो लंगूर को उसके सामने ले आओ, अगर डर कर भाग जाएं तो समझ लीजिए कि वह बंदर था।
एक लंगूर से हज़ारों बंदर डरते हैं ।
क्यों डरते हैं ?
कौन बताएगा ?

('हमारी वाणी' एग्रीगेटर का शुक्रिया कि उसने लोगों की टिप्पणियों की लालसा को कम कर दिया है। अब चिठ्ठाजगत नहीं है, यहाँ
कमेन्ट न करके कुछ और अच्छा पढ़कर अपने वक़्त का सही इस्तेमाल कर लें.)
जनाब सतीश जी का लेख जिसका जवाब मैंने यहाँ दिया है .

Sunday 26 December 2010


कांटे बबूल के -सतीश सक्सेना 

डॉ अनवर जमाल

आपके इस लेख में उठाये प्रश्न और मुझे लिखे पत्र  
"...मेरी नई पोस्ट देखेंऔर बताएं कि जनाब अरविन्द मिश्र की राय से आप कितना
सहमत हैं और इस पोस्ट में आप मुझे जिस रूप रंग में देख रहे हैं , क्या यह
बंद ज़हन की अलामत है ?"

के जवाब में अपना स्पष्टीकरण दे रहा हूँ ....
- आप से नाराजी की, मेरी वजह केवल एक मुद्दे को लेकर है, आपको हिन्दू धर्म के ऊपर अपनी राय और व्याख्या नहीं देनी चाहिए उससे हिन्दू आस्थावान पाठकों को बेहद तकलीफ होती है ! सम्मान पूर्वक भी, हमारी मान्यताओं की व्याख्या करते समय, यह नहीं भूलना चाहिए कि आप हिन्दू धर्म के प्रति आस्थावान नहीं है ! 
ऐसा करके आप मेरे विचार से गलत परिपाटी डाल रहे हैं, जिसका परिणाम यही होगा जिसकी आप शिकायत कर रहे हैं !
-डॉ अनवर जमाल का एक विशेष स्वरूप, हिंदी ब्लॉगजगत में स्थापित हो चूका है ! एस .एम. मासूम  के लेख पर जाकर आप की टिप्पणी का अर्थ, भी लोग अपने हिसाब से लगायेंगे और परिणाम उनके ब्लॉग पर बेहतरीन लेखकों के बावजूद, उस अच्छे काम को उचित सम्मान नहीं मिल पायेगा ! 
इसके अतिरिक्त हर पाठक के दिल में, लेखक का एक प्रभामंडल बन जाता है, टिप्पणियों को क्वालिटी और संख्या , अधिकतर इसी सम्मान पर निर्भर है !    
-आपने मुझ पर शक करके अपनी शक्की मानसिकता का परिचय दिया था उससे मैं बहुत घायल हुआ...यकीन करें मेरी कथनी करनी में फर्क नहीं है और मैं कोई काम किसी को प्रभावित करने के लिए कभी नहीं करता ! मेरे पास बेहतर लेखनी और ईमानदारी है , मैं चाहता तो उस वक्त ही स्पष्ट जवाब दे सकता था मगर मैंने यह उचित नहीं समझा और आपको एक वर्ग विशेष का प्रचारक मानते हुए अपने आपको उस लाइन से ही दूर हटा लिया ! 
-एक बात और, तीर छूटने के बाद, घायल से कोई नहीं कहता कि उसने बेवकूफी में  तीर चलाया ! मर्म बिंध जाने का असर आप मेरे लेखों में ढून्ढ सकते हैं, शायद आपको उस सतीश सक्सेना की जरूरत ही नहीं थी ! खैर , मुझे उसकी कोई शिकायत नहीं ...आपके अपने उद्देश्य हैं जिन्हें आप बेहतर जानते हैं !
  स्थापित लेखक और विद्वान् होने के कारण मैं आपसे तो बिलकुल ही उम्मीद नहीं करता कि आप मान जायेंगे ...बहरहाल लगी चोट,  घायल ही बेहतर जानता है, अनवर भाई ! हमें प्यार की समझ होनी चाहिए !
अगर कभी मेरी बात कभी सच लगे, तो अपने आप को व्यापक देश हित में, बदलने की कोशिश करें लोग आपको वही  प्यार और सम्मान देंगे जिसके लायक आप अपने को मानते हैं  !
योगेन्द्र मौदगिल की दो लाइने मुझे बहुत पसंद हैं ...
" मस्जिद की मीनारें बोलीं, मंदिर के कंगूरों से  !
मुमकिन हो तो देश बचा लो मज़हब के लंगूरों से " 
सादर 
(कृपया इस लेख पर टिप्पणिया न दें  ...अपने सम्मानित पाठकों से क्षमायाचना सहित )

कुछ कमेंट्स जो इस लेख पर आये . 
DR. ANWER JAMAL said...
जब योगेन्द्र मौद्गिल जैसे लोगों को मज़हब में लंगूर नज़र आते हैं और आप जैसे लोगों को उनके विचार पसंद भी आने लगते हैं तो फिर अनवर जमाल को बताना पड़ता है कि लंगूर और बंदर मज़हब को मानने वालों में नहीं होते बल्कि उनमें होते हैं जो कि मज़हब को नहीं मानते । हां , उनके पास से भटक कर मज़हब वालों के पास भी लंगूर आ जाएं या बंदरों के आतंक से मुक्ति पाने और उन्हें डराने के लिए वे लंगूर पाल लें , ऐसा ज़रूर हो सकता है। आप ख़ुद भी देख सकते हैं कि बंदर और लंगूर मस्जिद की मीनारों पर नहीँ होते बल्कि मंदिर के फ़र्श से लेकर कलश तक पर, हर जगह होते हैं। झूठ मैं बोलता नहीं और सच लोगों को हज़्म होता नहीं। जो कोई भी जो कुछ लिखता है उसे केवल ब्लागर्स ही नहीं पढ़ते बल्कि वह मालिक स्वयं भी पढ़ता है । उस न्यायकारी अविनाशी परमेश्वर को साक्षी मानकर आदमी सन्मार्ग पर ख़ुद भी चले और दूसरों को भी सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे , मनुष्य का धर्म यही है और इसी को हिंदू धर्म कहा जाता है । मेरा विचार तो यही है । इसी में मेरी आस्था है और इसी के अनुसार मेरा कर्म भी है। यदि इसके अलावा हिंदू होने के लिए प्राचीन हिंदू ऋषियों की रीति कुछ और हो तो आप बताएं मैं उसे भी पूरा करूंगा, इंशा अल्लाह !
सतीश सक्सेना said...
@ डॉ अनवर जमाल , अफ़सोस है कि आपने मेरा लेख ध्यान से नहीं पढ़ा , मज़हब के लँगूर उन लोगों को कहा जाता है जो लोगों में नफरत फ़ैलाने का काम करते हैं !जो लोग अपने धर्म को छोड़ दूसरे धर्मों की कमियां, विनम्रता से भी बताएं मेरे विचार से वे इस देश के समाज के दोषी हैं ! खैर ... मैं समाज सुधारक नहीं हूँ न धार्मिक नेता अतः मैं यह बहस यहाँ नहीं छेड़ सकता , आप जो कर रहे हैं आप उसके जिम्मेवार खुद हैं ! आपने मेरी चर्चा की अतः यह जवाब देने को मजबूर था !
DR. ANWER JAMAL said...
जनाबे आली ! आप एक कवि हैं और कवि कुछ भी सोचने के लिए आजाद होता है । आपको मैं अपना बड़ा भी मानता हूँ और एक बड़ा अपने छोटे को कुछ भी कहने का पूरा राइट रखता है हमारे क़स्बाई समाज में। आप दूसरे धर्म में नम्रतापूर्वक कमियां निकालने वाले को लंगूर मानते हैं तब तो धृष्टतापूर्वक कमियां निकालने वालों को आप निश्चित ही भेड़िया मानते होंगे ? नाम मैं लूंगा नहीं क्योंकि ... ख़ैर , पूरा दिन गुज़र गया और ले देकर 4 टिप्पणियां ही नज़र आ रही हैं । उनमें भी 3 तो हम बड़े मियां छोटे मियां की ही हैं । ये हुआ तो क्या हुआ ? 'अमन के पैग़ाम' पर भी आपके साथ ऐसा न हुआ जो कि अब आपके निजी ब्लाग पर होता हुआ हर कोई देख रहा है । अब आपको कुछ नए विषय तलाशने होंगे ! अंत में आप मेरे निज अस्तित्व पर कितनी भी चोट करें मैं आपको कभी पलटकर जवाब न दूंगा । बड़ों की डांट डपट और गालियां छोटों को दुआएं बनकर लगते हुए मैं आए दिन देखता हूं । इसीलिए मेरे शब्दों में या मेरे लहजे में आपके लिए सिर्फ़ और सिर्फ़ सम्मान है , प्रेम है और कुछ भी नहीं । जीवन जा रहा है और मौत क़रीब से क़रीबतर आती जा रही है । जब हम मरकर उस लोक में इकठ्ठा होंगे जहां आप मेरी आत्मा के भाव को प्रकट देख सकेंगे तब आप यक़ीनन जान लेंगे कि दुनिया में आपसे मेरा प्रेम सच्चा था । एक संवेदनशील आदमी से इतनी आर्द्र विनती पर्याप्त मानी जानी चाहिए । एक यादगार और अनुपम पोस्ट ! कई कोण से !!
सतीश सक्सेना said...
अनवर भाई ... कृपया उपरोक्त पोस्ट दुबारा पढ़ें , वहां सबसे नीचे यह अनुरोध है कि इस पोस्ट पर टिप्पणियां न करें, अगर यह अनुरोध नहीं होता तो आज टिप्पणिया ५० से अधिक होतीं मगर मुझे एक दूसरे को भला बुरा कहने वाली टिप्पणियां यहाँ नहीं चाहिए और न अपनी वाहवाही बाली पोस्ट ! आपकी टिप्पणी प्रकाशित इसीलिए कर रहा हूँ कि विषय आप से ही सम्बंधित है ! मैं हर उस आदमी को बुरा मानता हूँ जो दूसरों की आस्था का मूल्यांकन करे, आपकी आलोचना और आपसे मेरी दूरी का कारण सिर्फ यही है ........ अगर वास्तव मझे अग्रज का दर्जा दे रहे हैं तो आज से हिन्दू धर्म के ऊपर कुछ भी न लिखें न अच्छा न आलोचनात्मक ...यह आपका विषय नहीं है ! जो इस्लाम में कमियां निकालने का प्रयत्न करे उसकी टिप्पणी अपने ब्लॉग पर प्रकाशित कर, यह अहसास कराने का कार्य न करे कि आप जुल्म का शिकार हैं ! कोई सच्चा और सही व्यक्ति दूसरे का मज़ाक नहीं उडाएगा यह कार्य वही करते हैं जो खुद दूषित हैं ! चाहे वह काम किसी भी धर्म के खलाफ क्यों न किया जाए ... आपके प्रेम पर शक नहीं है ! चिंता है आपके सोच की जिसको बदलने में मैं अपने आपको नाकाम मान रहा हूँ ! यह एक महान देश है अनवर भाई हम दोनों इसी जमीन में पैदा हुए और यही मिटटी में मिल जायेंगे ..इस मिटटी और यहाँ के नमक का ख़याल रखते हुए जो दायित्व हैं उन्हें हम दोनों को पूरा करना होगा ! क्षणिक कडवाहट भुलाने वाले और समाज हित में काम करने वालों को देश याद रखता है ! हर हालत में साथ रहकर जीना सीखना पड़ेगा ...अन्यथा इतिहास हरगिज़ माफ़ नहीं करेगा ...
एस.एम.मासूम said...
यहाँ जो बहस हो रही; है उसका कोई मतलब मुझे समझ मैं नहीं आता?आप ज़रा उनलोगों को देखें जिन्होंने लेख़ या कविता; भेजी; है "अमन का पैग़ाम" पे; वोह बड़े और समझदार ब्लोगेर्स हैं. और हकीकत मैं काबिल ए इज्ज़त और काबिल ए फख्र हैं और आप बहुत ध्यान दे देखें उसको पढने वाले और तारीफ करने वाले वोह भी हैं , जिन्होंने कुछ दिन पहले ही ब्लॉगजगत के धर्म युद्ध मैं बड़े बड़े किरदार अदा किये हैं. आज जब वही लोग; अमन और शांति का सन्देश देते हैं, तो किसी को; यह अमन के पैग़ाम की कामयाबी; नहीं लगती . क्यों?कोई तो कारण होगा की आज कुछ लोग अलग अलग बहाने से "अमन का पैग़ाम" के खिलाफ बोल रहे हैं. क्यों? शायद इसका जवाब मैं खुद तलाश रहा हूँ?क्यों की यह तो सत्य है की शांती सन्देश देना कम से कम किसी धर्म के खिलाफ बोलने से तो अच्छा ही है.जबकि यहाँ की बहस; यह बता रही है की दूसरे के धर्म पे व्यंग करना अमन के पैग़ाम देने बेहतर काम है.. मेरे नाम से संबोधित करके बात कही जा रही थी  इसी कारण मेरे लिए कुछ कहना आवश्यक हो गया... ज़रा यह पोस्ट पढ़ लें; शायद आप समझ जाएं..ग़लत कहा हो रहा है.. सतीश जी, किसी ब्लॉग पे टिप्पणी करने वालों की टिप्पणी का असर उस ब्लॉग पे भी; पड सकता है. मैं इस बात से सहमत नहीं. लेकिन इस बात की ख़ुशी; अवश्य हुई की आप ने; हकीकत बयान कर दी और यह बात भी साफ़ हो गयी की अमन के पैग़ाम पे बेहतरीन; लेख़ , कविताओं और ब्लोगेर्स के सहयोह के बाद भी, लोग क्यों नहीं आ रहे?सतीश जी मज़हब के लँगूर उन लोगों को कहा जाता है जो लोगों में नफरत फ़ैलाने का काम करते हैं यह बात सही हैं., लेकिन यह लंगूर सभी धर्म मैं मौजूद हैं. शायद आप इस बात से सहमत होंगे..अमन का पैग़ाम ऐसे ही लंगूरों के को इंसान बनाने के लिए आया है..और ऐसे ही लंगूरों की साजिशों का शिकार भी हो रहा है..सतीश जी यदि मैं ऐसा ब्लोगर भी दिखा सकता हूँ; जिसने दूसरे धर्म का मज़ाक उदय; है अपने ब्लॉग से लेकिन आप की ही नज़र मैं नहीं आ पाया और आप उसकी हिमायत कर गए तो? यह इस लिए कह रहा हूँ क्यों की आप की नज़र मैं आ जाता तो आज आप उसके खिलाफ भी कुछ कह रहे होते ऐसी मुझे आशा है.वैसे एक बात कहता चलूँ कोई व्यक्ति; ज़िंदगी के हर दौर मैं एक जैसा; नहीं रहता. इस लिए जब कोई शांति की बात करे तो उसका साथ दो और जब वही नफरत की बात करे तो उसके खिलाफ बोलो.. क्यों की नफरत व्यक्ति से नहीं उसकी बुराईयों; से की जाती है.. मैं हमेशा कहता हूँ यह ना देखो कौन कर रहा है बल्कि यह देखो क्या कह रहा है..यह लेख़ भी पढ़ लें जो बहुत कुछ कह रहा है..और वहां यह भी बता दें आप के क्या विचार हैं...
सतीश सक्सेना said...
मुझे जो कहना था इस लेख में स्पष्ट कर चुका हूँ ... इसका अर्थ सामान्य है और कोई भी व्यक्ति समझ सकता है बार बार स्पष्टीकरण देना मैं उचित नहीं समझता ! जो समझना ही न चाहें उन्हें समझाने की कोशिश सिर्फ बेवकूफी ही होगी ! आप दोनों को आदर सहित !

Saturday, December 25, 2010

अनवर जमाल एक और रूप अनेक Shades of the sun

जनाब अरविंद मिश्रा जी ब्लाग जगत के बिग ब्लागर्स में से एक हैं, बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं, गुणी हैं और बहुत थोड़ा सा वक्त मैंने उनके साथ गुज़ारा है लेकिन जितना भी गुज़ारा है या ख़ुद ब ख़ुद गुज़रा है, यादगार गुज़रा है। न मैं उन्हें कभी भुला पाऊंगा और शायद न ही वे मुझे। एक लंबे अर्से के बाद आज वे फिर मुझसे मुख़ातिब हुए हैं और मुझे उर्दू और हिंदी दोनों ज़ुबानों में ‘मित्र और दोस्त‘ भी कहा है तो यह हवा के एक ऐसे ख़ुशगवार झोंके की मानिंद है जो किसी चमेली और रात की रानी को छूकर आ रहा हो। बड़े वे हैं ही तो उनके कुछ कहने का अर्थ भी बड़ा ही होना चाहिए। जनाब मिश्रा जी फ़िरक़ापरस्तों को मुंह पर ही फ़िरक़ापरस्त कहने का हौसला रखते हैं। मैंने लखनऊ ब्लागर्स एसोसिएशन के कम्यूनिटी ब्लाग पर यह सवाल पूछा था कि जब ‘अपने महबूब की हर शै से प्यार होता है तो फिर ऐसा क्यों है कि सीता माता से प्यार है लेकिन उनकी ज़मीन से और उस पर आबाद लोगों से प्यार नहीं है। उन्हें ग़रीबी की वजह से अपने से हल्का और तुच्छ क्यों माना जाता है ?
और यही बर्ताव मुसलमानों के साथ क्यों है कि मुस्लिम पीरों के मज़ारों का तो सम्मान किया जा रहा है और उन्हीं मज़ारों का सम्मान करने वाले मुसलमानों की उपेक्षा की जा रही है। पीरों से अपने कामों में मदद मांगने वाले ख़ुद मुसलमानों की मदद करने के लिए क्यों तैयार नहीं हैं ?
क्या इसे ‘वर्चुअल कम्युनलिज़्म‘ कहा जा सकता है ?
इस लेख पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने अपनी पसंद और नापसंद का ज़िक्र किया है और कहा है कि-
हमारे साथ मुश्किल यह है कि हम हिन्दू मुसलमान ,ईमान और कुरआन ,अल्लाह और भगवान् के ऊपर जा ही नहीं पा रहे हैं -दिन रात यही सब...मैं तो तंग और क्लांत हो चला हूँ ,जैसे दुनिया में और कोई मुद्दे,मसायल नहीं हैं ! कुएं से बाहर निकलिए मित्र -ज़रा खिडकियों को खोलिए ,ताजे हवा के झोके और नयी रश्मियों का भी नजारा तो कीजिये -खुदा कसम बड़ा मजा आयेगा!ये दिन रात के स्वच्छ संदेशों और पैगामों की चिल्ल पों बंद कीजिये दोस्त -

ज़ाहिर है कि उन्होंने हम कहकर संबोधित को मेरे साथ ख़ुद को भी संबोधित किया है लेकिन दरअस्ल यह बड़े लोगों का एक स्टाइल होता है दूसरों को समझाने का। वे ख़ुद तो इन सब बातों से ऊपर उठ ही चुके होंगे और उनके दिमाग़ की खिड़कियां भी खुली ही होंगी। अब रही मेरी बात तो आप अगर मुझे ‘हज के बारे में‘ बताते हुए देखेंगे तो कहीं ‘यज्ञ करने वालों के दरम्यान‘ बैठा पाएंगे। आप मुझे एक जगह ‘चर्च में केक काटते हुए‘ देखेंगे तो दूसरी जगह ‘देश अखंडता के लिए जान देने वालों के साथ‘ खड़ा हुआ पाएंगे।
क्या मेरे व्यक्तित्व में   इतने डिफ़रेंट शेड्स और इतनी उदारता देखने के बावजूद भी यह कहना ज़्यादती नहीं है कि मेरे दिमाग़ की खिड़कियां बंद हैं या मैं दूसरे मसायल से नावाक़िफ़ हूं ?
या मेरे बारे में भी यह राय महज़ इसलिए बना ली जाती है कि मैं एक मुसलमान हूं ?
क्या अपने ज़हन के खुलेपन को दिखाने के लिए मैं फ़िल्मी कलाकारों में शामिल हो जाऊं ?
लेकिन अगर मैं ऐसा कर लूं तो क्या तब आप लोग यह मान लेंगे कि अनवर जमाल के ज़हन की खिड़कियां खुली हुई हैं ?
कहीं ऐसा तो नहीं है कि अनवर जमाल के दिमाग़ की खिड़कियां भी खुली हों और आपके लिए उसके दिल के दरवाज़े भी लेकिन ख़ुद आपकी ही खिड़कियां दरवाज़े बंद हों ? (माफ़ी के साथ अर्ज़ है)
...तो लीजिए हम अब आपकी मान्यता पाने की ख़ातिर यह भी करेंगे।
... और लीजिए, देखिए अनवर जमाल को एक टी.वी. और फ़िल्मी कलाकार के रूप में-
यह सीरियल कारपेट मेकर्स की समस्याओं को दिखाता है कि कैसे बिचैलिए दलाल उनका एक्सप्लायटेशन करते हैं। नासिर हुसैन एक बूढ़े कारोबारी हैं और नूर उनकी पोती है। सुलेमान एक दलाल है और ...
यानि कि एक पूरी कहानी है जिसे फिर कभी सुनाया जाएगा। फ़िलहाल तो महज़ यह दिखाना था कि अनवर जमाल के व्यक्तित्व का एक रंग यह भी है कि वह ग्लैमर वल्र्ड का भी हिस्सा है।
अनवर जमाल बहुआयामी प्रतिभा का धनी होने के बावजूद अपने मुसलमान होने की क़ीमत अदा कर रहा है। उसे मिलने वाली टिप्पणियों को देखकर यह जाना जा सकता है।
वर्तमान पोस्ट पर आपकी टिप्पणियों सादर आमंत्रित हैं।
यह पोस्ट जनाब अरविंद मिश्रा के विचारार्थ सार्वजनिक की जाती है।
आपका भाई अनवर जमाल, एक कलाकार के रूप में मेकअप कराते हुए
मुहूर्त शाट के समय प्रोड्यूसर संजेश आहूजा
डी.डी. कश्मीर के लिए बने सीरियल 
‘द कारपेट मेकर‘ के उद्घाटन के अवसर पर 
यूनिट के सदस्य
शूटिंग करते हुए कलाकार
आपका भाई अनवर जमाल
सीमा और अंजलि मां बेटी के रोल में
नासिर हुसैन के रोल में श्रीपाल चौधरी

एक ज़ख्मी के रूप में नूर बनी हुई अंजलि

सीरियल के डायरेक्टर
रंजन शाह विलेन सुलेमान के रोल में

Friday, December 24, 2010

मेरे प्यारे मसीह, खुदा के प्यारे मसीह Jesus The Christ

‘हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने दुनिया को प्रेम की शिक्षा दी है।‘

उन्होंने बताया कि ‘बच्चों की तरह भोले और निष्कपट बनो।‘
कार्यक्रम पेश करते हुए बच्चे
कार्यक्रम देखते हुए

पादरी राकेश चार्ली साहब संबोधित करते हुए
केक काटते हुए आपका भाई अनवर जमाल

आज दुनिया भर के चर्चेज़ में इन्हीं बातों को दोहराया जा रहा है क्योंकि भारतीय समय के हिसाब से आज आने वाली रात में हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की पैदाइश की खुशी मनाई जाएगी। हमारे शहर के चर्च में भी आज उनकी याद में केक काटा गया और इस अहम धार्मिक रस्म की अदायगी के वक़्त मुझे ख़ास तौर पर बुलाया मेरे परिचित पादरी मिस्टर राकेश चार्ली और मुकेश लॉरेंस ने। प्यार से बुलाया तो मैं तमाम काम आगे पीछे करके चर्च में पहुंचा। उस समय बच्चे एक बहुत प्यारा सा प्रोग्राम पेश कर रहे थे। अच्छे साउंड सिस्टम के आॅकेस्ट्रा भी था और इस मैथोडिस्ट चर्च के पदाधिकारियों के अलावा सीएनआई वग़ैरह दूसरे चर्च के पदाधिकारी भी मौजूद थे। नगर के सम्मानित व्यक्ति भी थे। मैंने पहुंचने से पहले ही अपने वक़्त की तंगी की वजह बता दी थी सो पादरी साहब ने कार्यक्रम के समापन के बाद केक काटने के बजाय सिर्फ़ मुझे जल्द फ्ऱी करने की ग़र्ज़ से कार्यक्रम के बीच में ही केक काटे जाने की रस्म पूरी की। उन्होंने मुझे केक के साथ ‘नया नियम‘ और ईसाई साहित्य और कैलेंडर आदि भेंटस्वरूप दिए और कल 25 दिसंबर की विशेष प्रार्थना सभा में सपरिवार शामिल होने की रिक्वेस्ट भी की।
ईश्वर और धर्म में विश्वास रखने वाले सभी लोगों को मुझसे प्रेरणा लेनी चाहिए और पादरी राकेश चार्ली साहब से भी कि कैसे एक दूसरे से भिन्न मान्यताएं रखने के बावजूद भी हम एक दूसरे के साथ प्रेम और शांति के साथ रह सकते हैं ?
मैं एक चीज़ को सही मानता हूं और राकेश चार्ली साहब उसी चीज़ को ग़लत। मैंने उन्हें बताया कि अपने अनुसंधान में मैंने क्या सही पाया ?
उन्होंने धैर्यपूर्वक सुना और फिर अपना नज़रिया भी बताया। कुछ बातों मे सहमति जताने के साथ ही उन्होंने बताया कि वे जिस ईमान पर हैं उससे नहीं हटेंगे। हम दोनों में जो भी संवाद हुआ था, उसे मैंने अपने पाठकों के लिए ब्लॉग पर भी पेश किया था। हमने संवाद किया था न कि विवाद और विवाद होना भी नहीं चाहिए। विवाद से शांति भंग होती है, प्रेम और सद्भाव को आघात पहुंचता है। विवाद किये बिना भी हम लोग अपने नज़रिए से एक दूसरे को वाक़िफ़ करा सकते हैं। यह हमारा परम कर्तव्य है। हमें एक दूसरे के बारे में जितनी ज़्यादा जानकारी होती जाएगी, हमारी ग़लतफहमियां उतनी ही ज़्यादा बेबुनियाद साबित होती चली जाएंगी और नफ़रत की सारी बेबुनियाद दीवारें ढह जाएंगी। नफ़रत की दीवारें ढहाने वाला ही प्रेम करना जानता है और जो प्रेम करना जानता है वह दुनिया के दिलों पर राज करता है। वास्तव में वह संसार को जीत लेता है।

इसीलिए हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने दुनिया से रूख्सत होने से पहले कहा था कि ‘मैंने संसार को जीत लिया है।‘
उन्होंने बिल्कुल सही कहा था। आज भी दुनिया के दिलों पर वे हुकूमत कर रहे हैं। दरअस्ल दुनिया वालों के दिलों में अपने पैदा करने वाले मालिक का नाम नक्श है और जो भी उसका नाम लेता है। उसके लिए उनके दिल में आदर ज़रूर पैदा होता है। यह एक ऐसा प्रेम और आदर है जो उनके प्रति चेतन से भी प्रकट होता है और अवचेतन से भी। चेतना के स्तर पर मसीह को सताने वालों ने भी उनकी पीठ पीछे उनकी महानता को स्वीकार किया है।
आज मसीह हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनका पैग़ाम आज भी हमारे बीच है। दुनिया से जाने से पहले उन्होंने कहा था- ‘इन बातों की आज्ञा मैं तुमको इसलिए देता हूं कि तुम एक दूसरे से प्रेम रखो। यदि संसार तुम से बैर रखता है तो तुम जानते हो कि उसने तुम से पहिले मुझसे भी बैर रखा। यदि तुम संसार के होते , तो संसार अपनों से प्रीति रखता, परंतु इस कारण कि तुम संसार के नहीं, वरन मैंने तुम्हें संसार में से चुन लिया है इसीलिए संसार तुमसे बैर रखता है।‘ (यूहन्ना, 15, 17 व 18)
‘ये बातें मैंने तुम से इसलिए कहीं कि तुम ठोकर न खाओ।‘ (यूहन्ना, 16, 1)
परमेश्वर नहीं चाहता कि हम ठोकर खाएं इसीलिए उसने ईसा अलैहिस्सलाम को हमारे दरम्यान भेजा। उनके जाने के बाद भी उसने उनकी शिक्षा को हमारे दरम्यान आज तक क़ायम रखा ताकि हम ठोकर न खाएं। फिर आखि़र हम ठोकरें क्यों खा रहे हैं ?

कौन सा मत ऐसा है और कौन सी बानी ऐसी है जिसमें प्रेम की तालीम न हो। इसके बावजूद भी आज इस धरती के वासियों में प्रेम की कमी दिखाई देती है। अगर हममें प्रेम हो तो फिर हमारे नज़रियों का अलग होना भी हमारे लिए केवल संवाद का विषय बनेगा न कि विवाद का।

सत्य का पालन करना हरेक पर अनिवार्य है। हरेक आदमी निष्पक्ष रूप से अध्ययन-मनन के बाद जिस बात को सत्य मानता है, उस पर चले और उसका प्रचार करे और दूसरों के विचार और संस्कार को जानने की कोशिश करे। इस प्रकार हमारे समाज को हरेक सदस्य बौद्धिक रूप से समृद्ध भी होता जाएगा और समाज के हित में अपनी सेवाएं भी दे सकेगा।

हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने सेवा की भी शिक्षा दी है। एक बार जब उनके शिष्यों में यह वाद-विवाद हुआ कि उनमें बड़ा कौन है तो उन्होंने अपने बारहों शिष्यों को खड़ा किया और उनके पैर धोए और तब कहा कि तुम में बड़ा वह है जो सब की सेवा करे।

आज दुनिया की तबाही के पीछे एक कारण यह भी है कि व्यक्ति, समुदाय और देश अपना बड़प्पन चाहते हैं और अपना बड़प्पन वे कमज़ोरों को दबाने में समझते हैं। यह तरीक़ा ग़लत है। अगर मसीह का अनुसरण किया जाए तो कमज़ोरों का भी विकास होगा और उनके दिलों में कभी भी अपने बड़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत का या उन्हें मिटा डालने का जज़्बा पैदा नहीं होगा। चाहे हमारे देश का नक्सलवाद हो या फिर विश्व स्तर पर मुस्लिम आक्रोश हो, हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के तरीक़े का अनुसरण करके इसे निर्मूल किया जा सकता है।

आज दुनिया मसीह की महानता के गीत गा रही है लेकिन अब हमें गीत गाने से आगे बढ़ना होगा। तरह तरह की आपदाएं और तबाहियां हमें घेरे हुए हैं और जो अभी नहीं आई हैं वे जल्दी ही आने वाली हैं। ऐसा वैज्ञानिक बताते हैं। इन सब तबाहियों की ख़बर भी मसीह पहले ही दे चुके हैं। पूर्ण विनाश से पहले हमें खुद को सुधारना होगा। उद्धार का उपाय बस अब यही है। मसीह यही बताने आए थे, इसीलिए उन्हें उद्धारकर्ता माना जाता है। अंधेरे में आशा की ज्योति हैं मेरे प्यारे मसीह, खुदा के प्यारे मसीह।

इस ज़मीन पर उनका आना हम सबके लिए मुबारक हो।

Wednesday, December 22, 2010

Snowfall in Srinagar श्रीनगर में बर्फ़बारी

श्रीनगर में बर्फ़बारी हो रही है। डल झील का पानी तक जम चुका है। यहां इतनी बर्फ़ पड़ती है लेकिन क्यों पड़ती है ?


बर्फ़ के दरम्यान अपने साथियों के साथ बादामी बाग़ में
भारत के नक्शे में कश्मीर को देखा जाए तो ऐसा लगता है कि जैसे गोया वह भारत का मस्तक हो। खोपड़ी में दिमाग़ होता है और दिमाग़ तभी सही फ़ैसला कर पाता है जबकि वह ठंडा हो। शायद ख़ुदा नेचर के ज़रिए इशारे की ज़ुबान में यही तालीम देना चाहता है। यहां केसर भी पैदा होता है और ज़ैतून भी। यहां सेब भी पैदा होता है और बादाम-अख़रोट भी। पानी की कुदरती दौलत भी यहां बेशुमार है। जिससे कि बिजली बनाई जाती है और देशभर को सप्लाई की जाती है। दिमाग़ शरीर से जुड़ा रहे तो ज़िंदगी बाक़ी रहती है और उससे अलग हो जाए तो मौत वाक़ै हो जाती है। कश्मीर के नेता कश्मीर को देश से अलग करना चाहते हैं। यह एक तरह की आत्महत्या है। कोई आदमी आत्महत्या करना चाहे तो देखने वाले उसे रोकते हैं, समझाते हैं। कश्मीरी नेताओं की अलगाववादी सोच को बदलने के लिए उन्हें देशभर के लोग एक लंबे अर्से से समझाते आ रहे हैं। अपने देश की अखंडता की रक्षा के लिए मैं भी अपने साथियों के साथ श्रीनगर पहुंचा और वहां पहुंचते ही हम सभी आतंकवादियों के निशाने पर आ गए। किसी भी पल जान जा सकती थी लेकिन भारतीय सैनिक और जेकेपी के सिपाही हमें हर दम घेरे हुए थे कि आपकी जान जाने से पहले अमन के दुश्मनों को हमसे मुक़ाबला करना पड़ेगा। नतीजा यह हुआ कि हमारी मुहिम सफल रही और हम जो करने गए थे उसे कामयाबी के साथ अंजाम दिया , लेकिन काम अभी जारी है।
कश्मीरी नेता कश्मीरी अवाम को गुमराह कर रहे हैं। मैं कश्मीरी अवाम को यह समझा रहा हूं और मेरी दलीलों की रौशनी में वे मेरी बात मानते भी हैं।
पीछे नज़र आ रही है शंकराचार्य हिल


बहरहाल ठंड पड़ रही है और मैं ख़ुदा से यही दुआ कर रहा हूं कि कश्मीरियों का दिमाग़ भी ठंडा हो और उनकी आंखें भी। ठंडे दिमाग़ से सोचें और अपनी ज़िंदगी की बेहतरी के लिए सोच समझकर सही फ़ैसला लें।


दो ख़ास बातें दो ख़ास लोगों से

(1)- क्यों Alpha male प्रिय प्रवीण जी ! पहचाना Gamma male को ?

(2)- मासूम साहब ! इस फ़ोटो में मेरे साथ Q. Naqvi भी मेरी बाईं जानिब खड़े हैं यानि कि एक ऐसी हस्ती, जिसे जाफ़री युवा ख़ूब पहचानते हैं।

Tuesday, December 21, 2010

Spiritualism धर्म और अध्यात्म

बहन निर्मला जी एक सीनियर ब्लागर हैं , लेखिका हैं और समाज में उनकी प्रतिष्ठा भी है । दूसरे बहुत से अमनपसंदों की तरह वे भी यह महसूस करती हैं कि धर्म को कुछ लोगों ने बंधक बना लिया है और उसके नाम पर पहले भी बहुत ख़ून बहाया गया है और आज भी बहाया जा रहा है । धर्म का नाम इन लोगों ने इतना बदनाम कर दिया है कि पढ़े लिखे लोग यह कहने पर मजबूर होने लगे हैं कि 'खुद को आध्यात्मिक बनाओ न कि धार्मिक ।'
बहन निर्मला जी इन हालात पर दुखी हैं और चाहती हैं कि धर्म को आजाद कराया जाए ताकि किसी को धर्म के नाम पर शोषण करने का मौका न मिल सके ।
लेकिन क्योंकि धर्म पर क़ब्ज़ा जमाने वाले लोगों के ख़िलाफ़ खड़े होने में ख़तरे ही ख़तरे हैं , इसलिए वे ख़ुद तो धर्म जाति और महिला-पुरुष आदि विषयों पर टिप्पणी करने से भी बचती हैं लेकिन फिर भी वे चाहती हैं कि दूसरे लोग खतरा उठाएं , अपनी प्रतिष्ठा गवाएं और धर्म को आजाद कराएं। दूसरे लोग भी उन्हीं की बुद्धि रखते हैं वे भी यही सोचते हैं कि धर्म को आजाद कराने के लिए बलि कोई और चढ़े। जो लोग ऐसा सोचते हैं वे लोग कभी आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर सकते क्योंकि जिन लोगों के बारे में यह माना जाता है कि वे आध्यात्मिक गुरु हैं , उन्होंने कहा है कि 'जो घर बालै आपणा चलै हमारे साथ' । इन लोगों में अपने घर में आग लगाने की , अपना सब कुछ कुर्बान करने की हिम्मत ही नहीं है । ये लोग अपना सब कुछ भला कैसे लुटा सकते हैं ? जबकि इनके जीवन का मकसद ही ऐशो आराम के ज़्यादा से ज़्यादा साधन जुटाना भर है। इसीलिए ये लोग धर्म को बंधक बनाए जाते हुए खामोश देखते रहते हैं । ठेकेदार ग्रुप धर्म को बंधक बनाने का हौसला ही तब करता है जबकि वह देख लेता है कि बुद्धिजीवी लोग अपने नुक़्सान के डर से कुछ नहीं बोलेंगे । धर्म को बंधक बनाए जाने के पाप में ये बुद्धिजीवी भी बराबर के भागी हैं । जब अपने घर जलाने की जरूरत होती है तब ये लोग रूम हीटर जलाकर या ए. सी. चलाकर गाना गाते हैं , कहानियाँ सुनाते हैं , नए बिम्ब और अलंकार ढूंढते हैं । इसका नाम इन्होंने रचनात्मक कार्य रख छोड़ा है और जो काम वास्तव में रचनात्मक है उसे ये कभी करते नहीं हैं । उसकी प्रेरणा ये दूसरों को देते हैं और अगर कोई दूसरा धर्म के लिए कुछ कर रहा होता है तो ये लोग उसके समर्थन में दो शब्द तक बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते ।

ये लोग समझते हैं कि धार्मिक हुए बिना आध्यात्मिक बना जा सकता है । दरअस्ल ये लोग पूजा पाठ आदि कर्मकांड को , उपासना के तरीक़ों को धर्म समझते हैं और मानवीय गुणों की प्राप्ति को आध्यात्मिकता। इसी वजह से ये लोग आध्यात्मिकता को धर्म से अलग समझ लेते हैं।
'अध्यात्म' शब्द 'अधि' और 'आत्म' दो शब्दों से मिलकर बना है । अधि का अर्थ है ऊपर और आत्म का अर्थ है ख़ुद । इस प्रकार अध्यात्म का अर्थ है ख़ुद को ऊपर उठाना । ख़ुद को ऊपर उठाना ही मनुष्य का कर्तव्य है। ख़ुद को ऊपर उठाने के लिए प्रत्येक मनुष्य को कुछ गुण धारण करना अनिवार्य है जैसे कि सत्य, विद्या, अक्रोध, धैर्य, क्षमा और इंद्रिय निग्रह आदि । जो धारणीय है वही धर्म है । कर्तव्य को भी धर्म कहा जाता है। जब कोई राजा शुभ गुणों से युक्त होकर अपने कर्तव्य का पालन करता तभी वह ऊपर उठ पाता है । इसे राजधर्म कह दिया जाता है । पिता के कर्तव्य पालन को पितृधर्म की संज्ञा दे दी जाती है और पुत्र द्वारा कर्तव्य पालन को पुत्रधर्म कहा जाता है। पत्नी का धर्म, पति का धर्म, भाई का धर्म, बहिन का धर्म, चिकित्सक का धर्म आदि सैकड़ों नाम बन जाते हैं । ये सभी नाम नर नारियों की स्थिति और ज़िम्मेदारियों को विस्तार से व्यक्त करने के उद्देश्य से दिए गए हैं। सैकड़ों नामों का मतलब यह नहीं है कि धर्म भी सैकड़ों हैं । सबका धर्म एक ही है 'शुभ गुणों से युक्त होकर अपने स्वाभाविक कर्तव्य का पालन करना'। सबका धर्म एक ही है और सदा से है । धर्म की इसी सनातन प्रकृति को व्यक्त करने के लिए धर्म को सनातन भी कहा गया है लेकिन इसका यह मतलब हरगिज़ नहीं है कि यह धर्म केवल संस्कृत जानने वालों के लिए या भारत में रहने वालों के लिए ही सदा से चला आ रहा है । सारी धरती के मनुष्यों का सदा से यही एक धर्म है कि वे अपने लिंग , पद और स्थिति के अनुसार शुभ गुणों से युक्त होकर अपने कर्तव्यों का पालन करके खुद को ऊपर उठाएं । इसी एक धर्म को संसार की हजारों भाषाओं में हजारों नामों से व्यक्त किया गया है । हजारों नामों के कारण न तो धर्म हजारों हो जाते हैं और न ही एक धर्म हजारों टुकड़ों में खंडित हो सकता है। हजारों नामों से तो धर्म की महिमा और उसकी अनिवार्यता का पता चलता है ।
जो मर जाए वह ईश्वर नहीं होता और जिसे कोई बाँध ले वह धर्म नहीं होता । धर्म को कोई कैसे बाँध सकता है वह तो खुद दूसरों को माया के बंधन से मुक्त करता है, पतन के गर्त से ऊपर उठाता है । हाँ , इसके नाम पर लोग जरूर कब्जा जमा सकते हैं । भाषा को बाँधना संभव है इसलिए कुछ लोग धर्म के नाम को जरूर बंधक बना सकते हैं । कुछ लोग धर्म के एक नाम को बंधक बना लेते हैं तो कुछ लोग दूसरे नाम को । कुछ लोग मानवता और शांति जैसे नामों को बंधक बना लेते हैं जो कि वास्तव में धर्म के ही प्रभाव और परिणाम हैं ।
अपना सब कुछ मनुष्य को अंततः त्यागना ही पड़ता है कुछ लोग धर्म के लिए अपनी इच्छा से त्यागते हैं और जो अपनी इच्छा से नहीं त्यागते, उन्हें अनिच्छापूर्वक त्यागना पड़ता है अपनी मौत के समय। उठे हुए व्यक्ति में और गिरे हुए व्यक्ति में यही अंतर है ।
ऐसा मैं समझता हूँ लेकिन जरूरी नहीं है कि मेरी समझ बिल्कुल सही हो । अगर किसी और को मेरी बात ग़लत लगती है तो वह मुझे बताए ताकि मैं उसकी बात मानते हुए अपनी गलती सुधार लूं ।
बहन निर्मला जी से विशेष रूप से सादर कातर विनती है कि वे ग़लती ज़रूर सुधारें। मेरी गलती पाएँ तो मेरी सुधार दें और अगर अपनी पाएँ तो अपनी सुधार लें । आप बड़ी हैं । आप जो भी करेंगी उससे दूसरों को भी प्रेरणा मिलेगी।
मेरे लेख का उद्देश्य यही है ।

Thursday, December 16, 2010

शहादते कर्बला का मक़सद और पैग़ाम Karbala part 3

इंसान वह है जो सच्चा हो और सच का गवाह हो या कम से कम सच की तलाश में हो। जो तलाश करता है वह पा भी लेता है और जो पा लेता है फिर वह देता भी है। जिसने जो कुछ पाया है उसे सिर्फ़ ख़ुद तक रख ले, यह मुमकिन ही नहीं है। अगर इंसान सच का पाने वाला नहीं बनता तो फिर उसके पास सिवाय झूठ के कुछ नहीं होता।
जहाँ सच होता है वहाँ हरेक ख़ैर व ख़ूबी ख़ुद ब ख़ुद आ जाती है और जहाँ झूठ होता है वहाँ से तमाम ख़ैर व ख़ूबियाँ रूख़्सत हो जाती हैं और वहाँ सिवाय ज़ुल्म ज़्यादती और लूट खसोट के कुछ नहीं होता।
इस ज़मीन पर जितने भी आदमी हैं, वे सब इन्हीँ दो क़िस्मों के हैं। सच और झूठ इंसान के अंदर होता है लेकिन वह इसे बाहर भी ले आता है। सच और झूठ दोनों ही ग़ैर मुजस्सम हैँ, अमूर्त हैं लेकिन इन्हें आदमियों के कर्मों के रूप में देखना मुमकिन है।
रौशनी की ग़ैर मौजूदगी के अहसास का नाम अंधेरा है अंधेरे में चीज़ें नज़र नहीं आतीं और ख़ुद अंधेरा भी नज़र की पकड़ से बाहर की चीज़ है और यही हाल रौशनी का है। रौशनी को भी आज तक कोई आँख देख नहीं पाई है और न ही देख सकती है आँख देखती है चीज़ों को जब रौशनी उन पर पड़ती है।
चीज़ें देखकर इंसान को रौशनी का यक़ीन इस दर्जे में हो जाता है कि वह कहता है उसने रौशनी को देखा है। एक कहता है और दुनिया मानती है। सारी दुनिया भी ऐसे ही देखती और बोलती है। विज्ञान के युग से पहले भी इंसान ऐसे ही बोलता था और आज विज्ञान के युग में भी इंसान ऐसे ही बोलता है। इंसान बोलता है कि 'उसने रौशनी देखी' और दुनिया उसे सच मानती है। दुनिया ही नहीं बल्कि दुनिया की तमाम अदालतें उसके बयान को मानती हैं।

चीजों का देखना रौशनी का देखना मान लिया जाता है क्योंकि रौशनी न होती तो चीज़ें भी नज़र न आतीं।
ईश्वर, ख़ुदा, गॉड, यहोवा, अल्लाह या पालनहार भी प्रकाशस्वरूप है, लाइट, नूर और रौशनी है। रौशनी को रौशन करने वाला वही है। वह न होता तो कोई चीज़ किसी को नज़र न आती बल्कि ख़ुद देखने वाला भी न होता। चीज़ों का यक़ीन रखने वाला इंसान उस हस्ती का यकीन नहीं रखता जिसकी वजह से उसे चीज़ें नज़र आ रही हैं। रौशनी को आँख से देखे बिना रौशनी का यक़ीन करने वाला इंसान कहता है कि ईश्वर की ज्योति और खुदा के नूर को मैं तब मानूंगा जबकि उसे मैं अपनी आँख से देख लूंगा।
क्या रौशनी को देखने के लिए इंसान ने कभी ऐसी शर्त कभी रखी है ?
किसी अंधे ने कभी रखी हो तो रखी हो लेकिन किसी आँख वाले ने, किसी अक़्ल वाले ने तो कभी नहीं रखी।
अक़्ल वाले हमेशा चीज़ें देखकर रौशनी का अहसास करते आए हैं और रौशनी का अहसास ईश्वर की पावन ज्योति और ख़ुदा के मुक़द्दस नूर के दर्शन में जिसके लिए बदल जाए तो समझिये कि इसकी आँख ही नहीं बल्कि इसकी अक़्ल भी सही काम कर रही है और इसका दिल भी और दिल का अहसास भी।
हरेक चीज़ ख़ुदा का तआर्रूफ़ है, ईश्वर का परिचय है क्योंकि रचनाकार का सही परिचय उसकी रचनाओं से मिलता है। रौशनी ख़ुदा का सबसे बड़ा परिचय है, सबसे बड़ी निशानी है। यह इतना बड़ा परिचय है कि दुनिया की हरेक ज़बान में प्रकाश और नूर के लिए जो लफ़्ज़ बोला जाता है उसे खुदा का एक नाम करार दिया गया है।
संस्कृत जैसी कुछ ज़बानों में तो रौशनी को ही नहीं बल्कि रौशनी देने वाली चीजों को अग्नि और सूर्य को भी खुदा का ही एक नाम माना गया है। उसकी वजह भी यही है कि सनातन काल से लोग रौशनी को खुदा का परिचय मानते आए हैं। खुदा के सम्मान की वजह से रौशनी को और उसके स्रोत को भी सम्मान देते आए हैं। समय के साथ कुछ अति और असंतुलन भले ही हो गया हो या फिर अलंकार को समझते में कुछ भूल हो गई हो लेकिन दुनिया खुदा का नाम आज भी नहीं भूली है।
ऐसा बहुत बार हुआ कि एक आदमी खुदा के हुक्म को भूल गया हो और उसने चाहा हो कि ज़माने वाले भी खुदा के हुक्म को भुलाकर उसके हुक्म के गुलाम बन जाएं लेकिन नाम को वह भी नहीं भुला पाया। जिस दिन उसके नाम को भुला दिया जाएगा उस दिन यह दुनिया भी मिट जाएगी और जब उसके हुक्म को भुला दिया जाता है तब इंसाफ़ मिट जाता है और जब इंसाफ़ मिट जाता है तो फिर कमअक़्ल लोग जुल्म की चक्की में पिसकर सही फैसला करने की ताकत भी खो बैठते हैं और अपने जीवन का उद्देश्य और मार्ग भी, जो कि इंसान की अस्ल पूँजी और इंसानियत की बुनियाद है। खुदा का यकीन गँवाने के बाद फिर न तो इंसानियत बचती है और न ही इंसान । इंसान के नाम पर फ़क़त एक वुजूद बचा रह जाता है । फिर उसमें और जानवर में कोई अंतर नहीं रह जाता। खाना पीना और बच्चे पैदा करना ही बस उनका काम रह जाता है बल्कि वे जानवरों है भी बदतर बन जाते हैं । वे जमीन में युद्ध और फ़साद करते हैं , वे जुल्म करते हैं और उससे भी बड़ा जुल्म यह करते हैं कि ऐसा वे खुदा के नाम पर करते हैं ।
सच्चा बादशाह सिर्फ खुदा है और दुनिया में बादशाह होने का हक भी सिर्फ उसी को है जो सच्चा हो । जो सच्चा होगा वही लोगों को सच्चा रास्ता बता सकता है सच के राहियों को उनकी मंजिल तक भी वही पहुँचा सकता है।
जान-माल, इज़्ज़त, शोहरत और हुकूमत के लालची लोग दूसरों की जानें लिया करते हैं और सच्चे बंदे दूसरों की भलाई के लिए अपनी जानें दिया करते हैं। यह एक कसौटी है सच्चे को पहचानने की जिस पर झूठा कभी खरा नहीं उतरता। दुनिया इस कसौटी को पहचानती है इसीलिए वह इमाम हुसैन को सच्चा मानती है।
'सच्चे की गवाही भी सच्ची होती है।' इसे भी दुनिया मानती है । इमाम हुसैन रज़ि. की ज़िंदगी बंदगी की ज़िंदगी है और उनकी मौत एक शहीद की मौत है।
अरबी में शहीद का अर्थ 'गवाह' होता है। 'खुदा मौजूद है और उसका हुक्म भी और किसी भी ज़ालिम को खुदा की जमीन पर नाहक़ ख़ून बहाने और फ़साद करने का हक नहीं है' यही कहने के लिए इमाम हुसैन अपने परिवार और दोस्तों के साथ घर से निकले थे। उन्होंने कहा और ऐसे कहा कि फिर ज़माने के लिए उसे भुलाना मुमकिन न रहा। उनकी सच्ची गवाही के बाद भी अगर किसी को खुदा के वुजूद का यकीन न आए तो इसका मतलब यही है कि उसने ध्यान देने का हक पूरा अदा नहीं किया जो कि मतलूब है।
हक़ीक़त तक पहुंचना है तो हक़ अदा करना ही होगा।

हक़ अदा कीजिए।

मानव धर्म Karbala part 2

इंसान और जानवर में बुनियादी फ़र्क़ यह है कि जानवर जो भी करता वह उसके पीछे उसका स्वभाव होता है , उसे सही ग़लत की तमीज़ या तो होती नहीं है या बहुत कम होती है। जबकि इंसान जो कुछ करता है उसके पीछे उसका फैसला होता है जो वह अपने विवेक से यह देखकर लेता है कि सही क्या है ?
इंसान हमेशा सही करता है , जानबूझ कर कभी ग़लत नहीं करता और कभी ग़लत जानकारी की बुनियाद पर भ्रम में पड़कर कुछ ग़लत कर बैठता है तो जब भी उसे अपनी ग़लती का अहसास होता है वह उसे सुधार कर सही कर लेता है।
इंसान का ज़मीर उसे ग़लत पर क़ायम नहीं रहने देता।
इंसान का यही काम इंसानियत कहलाता है और इंसान के इसी परम कर्तव्य को मानव धर्म कहा जाता है। लेकिन इस कर्तव्य को निबाहने की शक्ति आदमी को तब ही मिल पाती है जबकि उसे 'सत्य का ज्ञान' हो जाता है ।
सत्य का ज्ञान यह है कि आदमी यह जान ले कि वह मात्र शरीर ही नहीं जो कि आंख से दिखाई देता है बल्कि अस्ल में वह एक आत्मा है जो कि आंख से दिखाई नहीं देती। शरीर बढ़ता भी है , घटता भी है और नष्ट भी हो जाता है लेकिन शरीर के नष्ट होने से आत्मा नहीं होती। यह आत्मा अनाथ नहीं है बल्कि इसका मालिक वही है, जिसने इसे अपनी सामर्थ्य से रचा है। जैसे आत्मा नज़र नहीं आती वैसे ही इसका रचनाकार भी नज़र नहीं आता क्योंकि उसने आत्मा को अपने स्वरूप पर रचा है। हरेक नज़र आने वाली चीज़ के पीछे बेशुमार चीज़ें ऐसी होती हैं जो कि आंख से नज़र नहीं आतीं। जो चीज़ें आंख से नज़र नहीं आतीं , इंसान उन तक अपनी अक़्ल से पहुंच जाता है और जो जहां तक इंसान अपनी अक़्ल के बल पर भी न पहुंच सके उन हक़ीक़तों को भी इंसान पा लेता अपनी तड़प और लगन के बल पर , प्रार्थना के बल पर। जब आदमी किसी सच्चाई को पाने में ख़ुद को बेबस महसूस करता है तो उस बेबसी और दीनता की हालत में प्रार्थना के जो भाव इंसान के दिल में उठते हैं उसके ज़रिये उस पर ऐसी गहरी हक़ीक़तें खुलती हैं जिन तक किसी की अक़्ल कभी नहीं पहुंच सकती। रूहानी सच्चाईयों को जानने वाले हमेशा यही लोग हुआ करते हैं। ये लोग दुनिया को भी जानते हैं और जो दुनिया के बाद है उसे भी जानते हैं। ये लोग ज़िंदगी के उस हिस्से को भी जानते है जो मौत की सरहद के इस पार है और उस हिस्से को भी जानते हैं जो कि उस पार है । इनके ज्ञान की सच्चाई इनके कर्म से हरेक कमी और कमजोरी को दूर कर देती है । जो इनके रब का हुक्म होता है वही इनकी ख्वाहिश होती है । ज़माना जैसे सोचता है ये वैसे नहीं सोचते बल्कि ये वैसे सोचते हैं जैसे कि एक आदर्श इंसान को सोचना चाहिए । ये लोग अपने मालिक के हुक्म की बुनियाद पर सोचते हैं जबकि ज़माने वाले अपने जान माल के नफ़े नुक़्सान की बुनियाद पर फ़ैसला करते हैं । यही वजह है कि ज़ालिमों के सामने जब दुनिया वालों की हिम्मतें पस्त हो जाती हैं , 'सत्य का ज्ञान' रखने वाले तब भी उनका मुकाबला करते हैं और उन्हें शिकस्त देते हैं । उनकी यही बात उन्हें आदर्श सिद्ध करती है ।
हज़रत इमाम हुसैन एक ऐसे ही आदर्श हैं ।

शहादते हुसैन का फ़ैज़ सिर्फ़ किसी एक मत या नस्ल या किसी एक इलाक़े के लोगों को ही नहीं पहुंचा बल्कि सारी दुनिया को पहुंचा और रहती दुनिया तक पहुंचता रहेगा ।
नालायक़ और ज़ालिम हाकिम आज भी दुनिया के अक्सर देशों पर बिना हक़ क़ाबिज़ हैं और इसकी वजह यही है कि आम लोगों शहीदों के प्रति श्रद्धा तो रखते हैं लेकिन उनके आदर्श का अनुसरण नहीं करते । मौत यज़ीद की हुई है लेकिन ज़ुल्म का सिलसिला आज भी जारी है। नफ़रतें और अदावत बड़े पैमाने पर आतंकवाद की शक्ल ले चुका है और लालच भ्रष्टाचार की । यही नफ़रतेँ, अदावतें और भ्रष्टाचार आज हर परिवार में घर कर चुका है । अक्सर आदमियों ने परलोक के स्वर्ग नर्क और ईश्वर को मन का वहम समझ लिया है । जिसके नतीजे में वे अमर और अनंत ऐश्वर्यशाली जीवन की आशा खोकर दुनिया की ऐश के लिए जी रहे हैं। जो लोग ऐश के लिए जीते हैं वे कुर्बानी देने और कष्ट उठाने से हमेशा घबराया करते हैं। आज समाज में जितने भी जुर्म पाप और ख़राबियां हैं उनके पीछे कोई एक आदमी नहीं है बल्कि पूरे समाज की ग़लत सोच ज़िम्मेदार है । 10 मौहर्रम का दिन एक बोध दिवस है। इस अवसर पर आदमी अपने ज़िंदगी के मक़सद और उसे पाने के मार्ग को जान सकता है।
आदमी जानवर नहीं है कि बस खाये पिये , बच्चे पैदा करे और मर जाए बल्कि वह एक इंसान है और उसे हमेशा वही करना चाहिए जो कि सही है ।
सही क्या है ?
इसे जानने के लिए आदर्श व्यक्ति का अनुसरण करना चाहिए । जो इंसान होते हैं वे यही करते हैं और इसी को इंसानियत कहा जाता है ।

Tuesday, December 14, 2010

भारत के प्रति इमाम हुसैन का विश्वास Karbala part 1

बुज़ुर्गाने दारूल उलूम देवबंद बसीरत व तहक़ीक़ की रौशनी में हज़रत सय्यदना हुसैन रज़ियल्लाहु तआला अन्हु के नज़रिये को बरहक़ और यज़ीदियों के मौक़फ़ को नफ़्सानियत पर मब्नी समझते हैं ।
-मौलाना मुहम्मद सालिम क़ासमी , शहीदे कर्बला और यज़ीद नामक उर्दू किताब की भूमिका में , लेखक : मौलाना क़ारी तय्यब साहब रह. मोहतमिम दारूल उलूम देवबंद उ.प्र.

इसलिए अक़ाएद अहले सुन्नत व अलजमाअत के मुताबिक़ उनका अदब व अहतराम , उनसे मुहब्बत व अक़ीदत रखना , उनके बारे में बदगोई , बदज़नी बदकलामी और बदएतमादी से बचना फ़रीज़ा ए शरई है और उनके हक़ में बदगोई और बदएतमादी रखने वाला फ़ासिक़ व फ़ाजिर है ।
-(शहीदे कर्बला और यज़ीद ; पृष्ठ 148)

पूरी किताब को पेश कर देना तो फ़िलहाल मेरे लिए मुमकिन नहीं है और न ही कोई एक किताब हज़रत इमाम हुसैन रज़ियल्लाहु अन्हु की तालीमात, उनके किरदार या उनकी क़ुर्बानियों को बयान करने के लिए काफ़ी है लेकिन किताब में जो कहा गया है कि इमाम हुसैन का नज़रिया और मार्ग हक़ था वह हरेक फ़िरक़ापरस्ती, गुमराही और आतंकवाद के ख़ात्मे के लिए काफ़ी है ।
शहादते हुसैन सिर्फ़ किसी एक मत या नस्ल या किसी एक इलाक़े के लोगों के लिए वाक़ै नहीं हुई बल्कि यह शहादत सत्य, न्याय और पूरी दुनिया के मानवाधिकार की रक्षा के लिए वाक़ै हुई है। जो लोग दुनिया छोड़कर जंगलों में जा बसे या तो उन्हें पता नहीं था कि दुनिया वालों को क्या रास्ता दिखाएं या फिर उन्होंने ख़ुद को ज़ालिम हुक्मरानों के सामने बेबस पाया। आज उनमें से किसी का तरीक़ा भी ऐसा नहीं है कि उस पर चलकर आज का इंसान सामूहिक रूप से अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियों को अदा करने के लायक़ बन सके लेकिन इमाम हुसैन का मार्ग ही वास्तव में एकमात्र ऐसा मार्ग है जिसका अनुसरण किसी भी देश का आदमी आज भी कर सकता है। इमाम हुसैन का मार्ग पलायन और निराशा का मार्ग नहीं है। उनका मार्ग आशा और संघर्ष का मार्ग है। उनका मार्ग अपनी और अपने परिवार की जाँबख़शी के लिए ज़मीर का सौदा करने वालों का मार्ग नहीं है और न ही ऐसे ख़ुदग़र्ज़ कभी उनके मार्ग को अपना मार्ग बनाते हैं ।
इंसान अपनी जान व माल और ताक़त का मालिक ख़ुद नहीं है बल्कि इनका मालिक उसे पैदा करने वाला पालनहार है। बंदा अपने हर अमल में उसके हुक्म का पाबंद है और उसके प्रति जवाबदेह है। अपने रब पर यही मुकम्मल ईमान इंसान को मौत के ख़ौफ़ और दुनिया के लालच से मुक्ति देता है। जब तक इस तरह का किरदार लोग अपने अंदर पैदा नहीं करते तब तक समाज में न तो शांति आएगी और न ही किसी को हक़ और इंसाफ़ ही मिलेगा।
वाक़या कर्बला यही बताता है ।
आज की समस्या ज्ञान की कमी की समस्या नहीं है बल्कि आज मानवता के सामने आदर्श का संकट है ।
वास्तव में आदर्श कौन है ?
अधिकतर लोग तो आज भी यह नहीं जानते और जो जानते हैं वे भी प्राय: उस आदर्श पर नहीं चलते।
इमाम हुसैन ने अपने दोस्तों और अपने परिवार समेत अपनी शहादत देकर मानवता को आदर्श के संकट से हमेशा के लिए मुक्त कर दिया है , ज़रूरत है अपनी तंगनज़री से ऊपर उठकर इमाम हुसैन के नज़रिये और सीरत को समझने की।
आज आदमी ज़ुल्म-ज़्यादती की शिकायतें करता है , कहता है कि उसे सताया जा रहा है , उसका हक़ मारा जा रहा है। कभी वह अपने नेताओं को अपनी बदहाली के लिए जिम्मेदार ठहराता है और कभी अफसरों को लेकिन अपनी बदहाली के लिए दरअस्ल वह खुद जिम्मेदार है क्योंकि वह खुद ज़ालिम है । न तो उसने अपने पैदा करने वाले का हक़ अदा किया और न ही उसूलों की खातिर कुर्बानियाँ देने वालों का ।
इमाम हुसैन से पहले भी हर ज़माने में उसूलों की ख़ातिर महापुरूषों ने कुर्बानियाँ दी हैं लेकिन लोगों ने अक्सर उन्हें भुला दिया और उनके मार्ग को भी और अगर याददाश्त में कुछ वाक़यात बचे भी रहे तो उनमें इतनी कल्पनाएं मिला दीं कि उनकी ऐताहासिकता को ही संदिग्ध बना दिया। लोग उनकी क़ुर्बानियों से सीख तो क्या लेते उल्टे उनके चरित्र पर ही उंगलियां उठाने लगे। ऐसे हालात में इमाम हुसैन ने लोगों के सामने अपनी ज़िंदगी में भी आदर्श पेश किया और अपनी मौत में भी। दुनिया का हर शख़्स उनकी ज़िंदगी को ही नहीं बल्कि उनकी मौत को भी ख़ूब अच्छी तरह परख कर देख सकता है कि वास्तव में वे आदर्श थे कि नहीं ?
और जब वह यह जान ले कि वास्तव में वे आदर्श थे तो उस पर उनका यह हक़ वाजिब हो जाता है कि उनका अनुसरण किया जाए। जो आदमी उनका अनुसरण नहीं करता वह उनका हक़ मारता है , उन पर ज़ुल्म करता है। जो ज़ुल्म करेगा , वह अपने ज़ुल्म की सज़ा ज़रूर पाएगा, यह एक अटल सच्चाई है । आज हर आदमी जो कष्ट भोग रहा है अपने ही ज़ुल्म के नतीजे में भोग रहा है । मानवता के आदर्श का अनुसरण न करने का अंजाम भुगत रहा है । ख़ुदा मुंसिफ़ है , जिसके साथ जो हो रहा है आज भी ऐन इंसाफ़ हो रहा है लेकिन उस रब के इंसाफ़ को हरेक आंख नहीं देख सकती । उसके इंसाफ़ को देखने के लिए भी हुसैनी नज़र और हुसैनी नज़रिया दरकार है ।
इमाम हुसैन पर यज़ीद ने ज़ुल्म किया। उसने इमाम हुसैन का अनुसरण न करके उन्हें शहीद कर दिया । बाद में यज़ीद खुद भी मर गया । यज़ीद तो मर गया लेकिन इमाम हुसैन पर जुल्म का सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है । न तो यज़ीद उनका अनुसरण करने के लिए कल तैयार था और न ही दुनिया की अक्सरियत उनके अनुसरण के लिए आज तैयार है।
यज़ीद ने जो ज़ुल्म किया उसे हम न रोक पाए क्योंकि तब हमारा वुजूद नहीं था लेकिन आज हम उनका हक़ अदा करके उन पर होने वाले ज़ुल्म को रोक सकते हैं। यह हम पर हमारे पालनहार ने अनिवार्य ठहराया है।
महापुरूषों को देश और भाषा की बुनियाद पर अपना पराया ठहराना सरासर ज़ुल्म है, अज्ञान है, पाप है। भारत भूमि ज्ञान और पुण्य की भूमि है, यहां तो कम से कम महापुरूषों पर ज़ुल्म के हर प्रकार का उन्मूलन तुरंत ही कर देना चाहिए। केवल यही मार्ग है जिसमें सबका कल्याण है। इसी पर चलकर हम सब एक हो सकते हैं और भारत के गौरव की वापसी भी केवल इसी तरह संभव है।
ख़ुद इमाम हुसैन को भी आशा ही बल्कि पूरा विश्वास था कि भारत में उन पर ज़ुल्म न किया जाएगा । हमें उनके विश्वास पर खरा उतरना ही होगा।

ALPHA MALE दोषी इंसान है , भगवान नहीं ।

इंसान ने जीने का मकसद सिर्फ मौज मस्ती बना लिया है । मज़े के लिए सेक्स और नशे की बाढ़ समाज में आ चुकी है । सेक्स और नशे का कारोबार दुनिया में हर साल खरबों-खरब डॉलर का होता है। जो संभोग में समाधि के गुर सिखाते हैं ऐसे गुरू मार्ग दिखाते हैं। नशा सौ बुराईयों की जड़ है लेकिन समाज को सुधारने का , उसकी सर्जरी का बीड़ा वे 'जवान' उठाते हैं जो खुद नशेड़ी हैं।
अनैतिक खुद हैं लेकिन ये भगवान को अनैतिक बताते हैं , जैसे ख़ुद हैं भगवान को भी वैसा ही मान बैठते हैं , लेकिन अभी भगवान के ऐसे भक्त ज़िंदा हैं जो नशा नहीं करते और नैतिक नियमों का पालन करते हैं । ऐसे सभी भक्तों को भगवान नैतिकता का स्रोत और आदर्श नज़र आता है ।
जो खुद को ही न पहचान पाया हो वह खुदा को क्या पहचानेगा ?
भगवान ने तो तुम्हें रूप बल बुद्धि सब कुछ दिया। तुम्हें शिक्षण और प्रशिक्षण दिया। तुम्हें रक्षक, पालक और न्यायपालक जैसे वे सम्मानित पद दिए जिन पर वह खुद आसीन है। अब तुम ही योग्यता अर्जित न करो, अपने फ़र्ज़ अदा न करो और दुनिया को तबाह कर डालो तो इसमें दोषी भगवान है या इंसान ?
अफ़सोस, निर्दोष भगवान को बुरा कहा जा रहा है और लोग चुप हैं जबकि इन्हें बुरा कह दिया जाए तो ये आपा खो देते हैं । एक ब्लागर भगवान को अनैतिक कह रहा है लेकिन ये लोग उसे जाकर टिप्पणी देते हैं उसे सम्मानजनक संबोधन देते हैं या फिर चुप रहते हैं लेकिन मेरी मुख़ालिफ़त करते हैं जबकि मैं कह रहा हूं कि भगवान पवित्र है ।
मेरे साथ ये नाइंसाफ़ी का बर्ताव क्यों ?
तुम लोग शक्लें और नाम देखकर विरोध करते हो और मैं केवल यह देखता हूं कि अगर बात ग़लत है तो उसका विरोध किया जाना चाहिए । अपनी इसी बात की वजह से मैंने अपने हिमायतियों को भी अपना दुश्मन बना लिया ।
बन जाएं , परवाह नहीं बस ईश्वर का नाम पवित्र माना जाए ।
जहां मैं रहूंगा
वहां ईश्वर की महिमा के प्रतिकूल कहकर कोई बच नहीं सकता , सच सुनने से । ऐसा सच जिससे उसे पता चलेगा कि कलंकित वास्तव में वही है ।
मैं जिस पर चाहता हूं अपने वचन सुमन बरसाता हूं और जिस पर चाहता हूं उस पर ऐसे कर्णभेदी शब्द बाण भी चला देता हूँ कि वे किसी कांटे की तरह उसके दिल में ऐसे चुभ जाते हैं कि उसे मेरे कहे शब्दों की याद सदा बनी रहती है ।
न मेरी नर्म और शीरीं गुफ़्तगू को कोई भुला सकता है और न ही मेरी चुभती बातों को ।
मुझे किसी से कोई रंजिश नहीं बल्कि सबसे केवल प्यार ही है ।
जो मेरा प्यारा है , उसके सामने सच आ जाए और ऐसे आ जाए कि कि वह चाहे तो भी उसे भुला न पाए , मेरी कोशिश बस यही रहती है ।
आम आदमी चुनाव में वोट उसे डालता है जो उसे अच्छी तरह खिलाता ही नहीं बल्कि शराब भी पिलाता है। यही आम आदमी तो करप्ट है तभी तो वह अच्छे प्रतिनिधियों के बजाय गुंडे मवालियों को बेईमानों को चुनता है। यही आम आदमी जज़्बात में आपा खोकर आये दिन राष्ट्रीय संपत्ति में आग लगाता रहता है। कुली ट्रेन के जनरल कोच की बर्थ पर क़ब्ज़ा जमाकर लोगों को तब बैठने देता है जबकि वे उसे पैसे देते हैं। ईंट ढोने वाला मज़्दूर हर थोड़ी देर बाद बीड़ी सुलगाकर बैठ जाएगा। राज मिस्त्री को अगर आप चिनाई का ठेका दें तो जल्दी काम निपटा देगा और अगर आप उससे दिहाड़ी पर काम कराएं तो काम कभी ख़त्म होने वाला नहीं है। सरकारी बाबू भी आम आदमियों में ही गिने जाते हैं और रैली के नाम पर ट्रेन में बिना टिकट यात्रा करने वाले किसान भी आम आदमी ही माने जाते हैं। अपने पतियों की अंटी में से बिना बताए माल उड़ाने वाली गृहणियां भी आम आदमी ही कहलाती हैं। नक़ली मावा बेचने और नक़ली घी दूध बेचने वाले व्यापारी भी आम आदमी ही हैं और दहेज देकर मांगने वालों के हौसले बढ़ाने वाले भी आम आदमी ही हैं। आम आदमी खुद भ्रष्ट है इसका क्या मुंह है किसी को ज़लील करने का ?
आवा का आवा ही बिगड़ा हुआ है भाई साहब ।
आपने सुधार के लिए जो प्रस्ताव दिया है इस पर आम आदमी कभी अमल करने वाला नहीं है।
कुछ और उपाय सोचिए।

Monday, December 13, 2010

दोषी कौन ?, भगवान या इंसान The duty of man

सोलंकी साहब पत्रकार हैं । कुछ माह पहले वे खबरें लेने थाने गए तो मैं भी वहीं था ।
दीवान जी शर्मा का छेड़ने की ग़र्ज़ से वह बोले कि 'आज का अखबार देखो , अब तो बड़े क़ाज़ी साहब ने भी कह दिया है कि अगर अदालती आदेश के बाद भी पुलिस कोई कार्रवाई नहीं करती है तो हम कुछ नहीं कर सकते।'
शर्मा जी से पहले मैं बोला कि ' देने वाले ने एप्लिकेशन 'ख़ाली' दी होगी वर्ना तो वह खुद भी भ्रष्ट ही होगा ।'
वे तुरंत बोले-'आपकी बात सही है । कुछ लोग हमारे कस्बे के स्लॉटर हाउस पर स्टे ले आए । पशुओं का कटना बंद हो गया तो क़साई स्टे तुड़वाने पहुंचे तब क़ाज़ी साहब अपने प्रदेश में ही 'इंसाफ़ का दिखावा' किया करते थे ।
क़ाज़ी साहब ने उनकी अर्ज़ी ख़ाली देखते ही तुरंत ख़ारिज कर दी । टक्कर लगते ही क़साई तुरंत समझ गए कि पशु काटने हैं तो पहले ख़ुद कटना होगा , भेस क़ाज़ी का ज़रूर है लेकिन है उसमें है अपना ही भाई-बिरादर । अगली बार वे गए तो कायदे से गए और काम तुरंत हो गया । स्टे कैंसिल करते हुए क़ाज़ी साहब ने लिखा कि आदमी और गाय को छोड़कर जो चाहे काट सकते हो । 3 में काम हुआ ।'
शनिवार में वतन जाना हुआ तो तो एक हकीम साहब को भी कहते पाया कि 'भाई क़ाज़ी साहब ने तो आजकल हिला रखा है । बहुत ईमानदार हैं ।'
मैंने कहा-'जो अक़्लमंद होते हैं वे ईमानदार बन जाते हैं क्योंकि जो ईमानदार होते हैं वे भ्रष्टाचारियों से ज़्यादा कमाते हैं ।'
'कैसे भला ?'-हकीम साहब ने हैरानी से पूछा ।
मैंने बताया -'हरेक भ्रष्ट का एक रेट सैट है , कीमत मिलने पर काम की गारंटी है । उनसे कोई नहीं डरता। ईमानदार से हरेक डरता है । ये हर मामले में पैसा नहीं लेते । दस में से सात मामलों में ये ईमानदारी का फैसला देकर शोहरत कमाते हैं , छवि बनाते हैं , लोगों में दहशत पैदा करते हैं । कुछ को सख़्त सज़ाएं मिलती देखकर बाक़ी दूसरों को जेल जाने का यक़ीन पक्का हो जाता है , तब वे ऊंचे से ऊंचे सिफारिशी को उनके सामने झुकाते हैं और अपनी जान के बदले में बोली भी ऊंची लगाते हैं । तब क़ाज़ी साहब जैसे लोग अपने हाकिमों को ऑब्लाइज करते हुए उनकी जाँबख़्शी कर देते हैं । ऐसे 3 मामलों में ये ईमानदार इतना कमा लेते हैं जितना कि भ्रष्ट 50 मामलों में भी नहीं कमा पाते , रिलेशंस अलग से मज़बूत होते हैं ।
सच्चाई जानकर हकीम साहब को तगड़ा झटका ज़ोरो से लगा ।

अनैतिक है इंसान , पाक है भगवान
दुनिया एक पाठशाला है । यहाँ हरेक चीज और हरेक बात कोई न कोई सबक है ।
ये सबक़ भगवान स्वयं पढ़ाता है । जीवन के सबक़ समझने लायक़ बुद्धि और विवेक जैसे ज़रूरी गुण भी उसने इंसान को दिए और अपने ज्ञान के अनुरूप कर्म करने की शक्ति भी दी ।
जैसे बच्चे आमतौर पर स्कूल जाते तो हैं लेकिन उन्हें लगता यही है कि उन्हें स्कूल भेजकर उनकी माँ उनपर ज़ुल्म कर रही है । ज़्यादातर बच्चे खेलने और खाने में लगे रहते हैं और उस सबक़ पर ध्यान नहीं देते जिसके लिए उन्हें स्कूल भेजा गया है। बच्चों के कान तो छुट्टी की घंटी पर लगे रहते हैं । स्कूल से छुट्टी को वे नादान मुक्ति समझते हैं। यही बच्चे बड़े होते हैं लेकिन उनकी नादानी भी अब बड़ी हो जाती है। उनका खेलना और खाना भी बढ़ जाता है । मौत को मुक्ति समझ लिया जाता है । इस समझने को दर्शन और ऐसे समझदारों को दार्शनिक कह दिया जाता है । दार्शनिक भी खेलते हैं । बच्चे भी पहेलियां बूझकर खेलते हैं और दार्शनिक भी , बस बच्चों की पहेलियां छोटी होती हैं और दार्शनिकों की पहेलियां बड़ी। बचपन में बच्चों की जो बातें शरारत कहलाती थीं वे अब फ़साद का रूप ले लेती हैं । फिर फ़सादियों के गुट बनते हैं , वे अपने बीच से किसी बड़े फ़सादी को अपना प्रधान चुनते हैं । ये फ़सादी सिर्फ़ ज़मीन के ही नहीं बल्कि आसमान के भी टुकड़े कर डालते हैँ। पानी पर लकीर खींचना मुमकिन नहीं है लेकिन ये फ़सादी समुद्रों तक को बाँट लेते हैं और फिर ये दुनिया बनाने वाले को भी बाँटने की कोशिश करते हैं । उस अखंड को खंडित नहीं कर पाते तो उसके नामों को ही बाँट लेते हैं । कहते हैं भगवान मेरा है और अल्लाह तेरा है । फिर उसके नामों को भी बाँटते हैं । हर नाम का एक रूप बनाते हैं । फिर उसे सजाते हैं , उसके आगे नाच गा कर और तरह तरह के खेल करके अपना मनोरंजन करते हैं ।
दुनिया एक पाठशाला थी लेकिन इंसान उसे रंगशाला और बाज़ार बनाकर रख देता है। आज हर तरफ तमाशा है और हर तरफ बाजार है । हर चीज बिक रही है। चीजें ही नहीं खुद इंसान बिक रहा है । भगवान से जोड़ने वाली चीजें तक बेची जा रही हैं। योग का पेटेंट कराया जा रहा है । वेश्याएं भी अब योग करती देखी जा सकती हैं । योग की सी डी भी अब वही बिकती है जिसमें टाइट कपड़ों में मॉडल झुकती है ।
अमीर लोग इन मॉडल्स को साक्षात बुला लेते हैं और आम लोग फ़िल्में देखकर कल्पना में इनके पास चले जाते हैं। बच्चों के उत्पादन को रोका जाता है और संभोग को बढ़ाया जाता है। मज़े के लिए सेक्स और नशे की बाढ़ समाज में आ जाती है । जिसका कारोबार दुनिया में हर साल खरबों-खरब डॉलर का होता है। जो संभोग में समाधि के गुर सिखाते हैं ऐसे गुरू मार्ग दिखाते हैं। नशा सौ बुराईयों की माँ है लेकिन समाज को सुधारने का , उसकी सर्जरी का बीड़ा वे 'जवान' उठाते हैं जो खुद नशेड़ी हैं।
अनैतिक खुद हैं लेकिन ये भगवान को अनैतिक बताते हैं , जैसे ख़ुद हैं भगवान को भी वैसा ही मान बैठते हैं , लेकिन अभी भगवान के ऐसे भक्त ज़िंदा हैं जो नशा नहीं करते और नैतिक नियमों का पालन करते हैं । ऐसे सभी भक्तों को भगवान नैतिकता का स्रोत और आदर्श नज़र आता है ।
जो ख़ुद को  ही न पहचान पाया हो तो वह खुदा को क्या पहचानेगा ?
भगवान ने तो तुम्हें रूप बल बुद्धि सब कुछ दिया। तुम्हें शिक्षण और प्रशिक्षण दिया। तुम्हें रक्षक, पालक और न्यायपालक जैसे वे सम्मानित पद दिए जिन पर वह खुद आसीन है। अब तुम ही योग्यता अर्जित न करो, अपने फ़र्ज़ अदा न करो और दुनिया को तबाह कर डालो तो इसमें दोषी भगवान है या इंसान ?
अफ़सोस, निर्दोष भगवान को बुरा कहा जा रहा है और लोग चुप हैं जबकि इन्हें बुरा कहा जाये तो नाराज़ होकर खुद भी खुंदक में पोस्ट लिखते हैं और  दूसरों से भी अपील करते हैं कि वे भी उनके साथ मिलकर विरोध करें . अपने लिए बुरा सुन नहीं सकते और भगवान पर इलज़ाम लगते देखकर कुछ भी बुरा नहीं मानते ?
यह बेहिसी है ?
या बेगैरती है  ?
या उदारवाद ?
आखिर यह है क्या ?
जो भगवान से प्रेम करते हैं उनका आचरण तो हरगिज़ यह है नहीं ?

Friday, December 10, 2010

Fwd: @ अनुशासन , मेरा पहला तजर्बा ईमेल से पोस्ट करने का

---------- Forwarded message ----------
From: ish vani <eshvani@gmail.com>
Date: Sat, 11 Dec 2010 07:39:45 +0530
Subject: @
To: eshvani.eshvani@gmail.com

@ उर्दू शायरी ! ज़र्रानवाज़ी के लिए शुक्रिया !

--
1- http://vedquran.blogspot.com/2010/07/way-for-mankind-anwer-jamal.html
ईश्वर एक है और उसने मानवता को सदा एक ही धर्म की शिक्षा दी है। मानव का धर्म है मानवता । मानवता के लिए ईश्वर के धार्मिक अनुशासन को धारण करना ज़रूरी है । आज आदमी किसी भी अनुशासन को मानने के लिए तैयार नहीं है , न तो ईश्वर के अनुशासन को और न ही उस अनुशासन को जिसके नियम उसने खुद बनाए हैं अपने लिए ।
किसी भी अनुशासन को न मानने का मतलब है अराजकता । आज हर तरफ़ अराजकता है ।
ख़ुदा के बंदो , ख़ुदा के फ़रमान को नहीं मानते तो कम से कम उन बातों को तो मानो , जिन्हें मानना तुम खुद भी ज़रूरी मानते हो ।

अगर तुम उन्हें मान लोगे तो तुम्हारे जीवन से बहुत से दुख दूर हो जाएंगे ।
सच के एक अंश को मानना तुम्हें तैयार करेगा पूरे सच को मानने के लिए ।

आज का इंसान इसलिए दुखी नहीं है कि वह दुख की वजह नहीं जानता बल्कि वह इसलिए दुखी है कि वह किसी भी विधि और अनुशासन का पालन करना नहीं चाहता ।

परलोक में मिलने वाले अच्छे-बुरे परिणाम की धारणा को वहम क़रार देने वाले बुद्धिजीवियों ने मनुष्य को उस शक्तिशाली प्रेरणा को ही नष्ट कर डाला है जो उसे कष्ट उठाकर भी अनुशासित रहने के लिए प्रेरित किया करती थी ।

गुमराह बुद्धिजीवियों ने मानवता को न केवल तबाही के गड्ढे में धकेला है बल्कि वह उससे निकल न सके वे इसके लिए भी कटिबद्ध हैं , अपनी ग़लती और अपराध को न मानकर।

'न तो हरेक विचार शुभ औरकल्याणकारी है और न ही हरेक रास्ता इंसान को उसकी मंज़िल पहुंचा सकता है ।'
जो इस बात को जानता है , वास्तव में वही जानता है कि वह कौन सा मार्ग है जिसके पालन को ईश्वर ने मनुष्य का धर्म निश्चित किया है , सनातन काल से ।

Thursday, December 9, 2010

Women in the society आदमी के लिए ईनामे खुदा है औरत by Anwer Jamal

     औरत मां है, बहन है, बेटी है।  औरत जीवन साथी है। 
औरत के बिना न तो संसार का वुजूद मुमकिन है और न ही संसार की खुशियां। औरत आधी आबादी है जो पूरी आबादी की खुशियों का ख़याल रखती है, खुशियां देती है लेकिन खुद उसकी खुशियों का ख़याल सबसे कम रखा जाता है। विरासत और जायदाद में उसे आज भी बेटों के बराबर हिस्सा नहीं दिया जाता। जिसकी वजह से वह आर्थिक रूप से कमज़ोर हुई। कमज़ोर को समाज में सताया जाता ही है, सो औरत को भी सताया गया, भारत में भी और भारत के बाहर भी। विवाह उसकी सुरक्षा हो सकता था लेकिन यहां भी उसे सहारा देने वाले हाथों ने उसे तभी कु़बूल करना गवारा किया जबकि वह लक्ष्मी बनकर आए, साथ में ख़ूब सारा धन और साधन लेकर आए। केवल उसके स्त्रीत्व को सम्मान यहां भी न मिला।
    दुनिया बदली, रंग बदले, व्यवस्था बदली तो औरत की कमज़ोरी को हल करने के लिए उसे पढ़ाना ज़रूरी समझा गया और जब पढ़ा दिया गया तो फिर उसके लिए ‘जॉब‘ भी लाज़िम हो गया। उसे ‘जॉब‘ करना पड़ा ताकि वह खुद पर ख़र्च की गई बाप की रक़म को कई गुना करके अपने शौहर के लिए लाती रहे, क़िस्त दर क़िस्त, जीवन भर।
    औरत घर से बाहर नौकरी करती है लेकिन उसका दिल अपने घर और अपने बच्चों में पड़ा रहता है। वह लौटती है रात को 7 बजे, 8 बजे या कभी कभी और भी ज़्यादा लेट जबकि उसके बच्चे स्कूल से लौट आते हैं दिन में ही 2 बजे। बच्चा घर लौटकर अपने पास अपनी मां को देखना चाहता है, यह एक हक़ीक़त है और यह भी हक़ीक़त है कि अगर औरत न कमाए तो फिर वह स्टेटस मेनटेन करना संभव न रह पाएगा जो कि औरत की कमाई के साथ मेनटेन किया जा रहा है।
    बात यह नहीं है कि औरत को बिल्कुल घर में ही क़ैद कर दिया जाए। उसे पढ़ने-लिखने की या कमाने की आज़ादी न मिले। उसे व्यापार और दूसरे अहम ओहदों से दूर कर दिया जाए। नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए। लड़का हो या लड़की उसे पढ़ाई-लिखाई, कमाई और विकास के पूरे अवसर मिलने चाहिएं लेकिन यह उसकी मजबूरी हरगिज़ न बना दी जाए कि अगर वह केवल घर में ही रहे, केवल अपने बच्चों को अपना पूरा प्यार और अपना पूरा ध्यान दे तो फिर वह उन औरतों से आर्थिक रूप से पिछड़ी रह जाए जो कि अपने बच्चों को कम ध्यान देकर दूसरे काम करके रूपया कमा रही हैं।
    औरत घर में रहे तो और अगर वह घर से बाहर अपनी ज़िम्मेदारियां अदा करती है तो, दोनों हालत में वह जहां भी रहना चाहे अपने आज़ाद फ़ैसले के मुताबिक़ रहे न कि हालात के दबाव में आकर। घर में रहे तो भी और बाहर रहे तो भी, दोनों हालत में वह पूरी तरह महफ़ूज़ रहनी चाहिए। ऐसी व्यवस्था हमें करनी होगी, यह केवल औरतों की ही ज़िम्मेदारी नहीं है बल्कि उनसे कहीं ज़्यादा यह मर्दों की ज़िम्मेदारी है। यही आधी आबादी आने वाली सारी आबादी को जन्म देती है। अगर इसके व्यक्तित्व के विकास में किसी भी तरह की कोई कमी रहती है तो वह कमी उससे आने वाली नस्लों में ट्रांसफ़र होगी, चाहे उनमें लड़के हों या लड़कियां। औरत आधी आबादी है लेकिन समाज की बुनियाद है। बुनियाद को कमज़ोर रखकर कोई महल ऊंचा और टिकाऊ नहीं बनाया जा सकता, लेकिन आज हम देख रहे हैं कि न सिर्फ़ समाज की बुनियाद पहले से ही कमज़ोर चली आ रही है बल्कि उसपर लगातार चोट भी की जा रही है।
    आज औरत घर में भी महफ़ूज़ नहीं है। उसे मज़बूत बनाने के लिए उसे घर से बाहर जहां खींचकर ला खड़ा किया गया है, वहां तो बिल्कुल भी नहीं है। लोग कहते हैं कि इसका हल शिक्षा है लेकिन जो विकसित देश हैं, जहां शिक्षा पर्याप्त है, वहां भी औरत आज सुरक्षित नहीं है।

कार्यस्थल पर बेलगाम यौन शोषण
न्यूयार्क। कार्यस्थल पर महिला कर्मियों का यौन शोषण रोकने के लिए चाहे कितने ही कानून बन जाएं लेकिन इस पर पूरी तरह लगाम नहीं लग पा रही है। युनिवर्सिटी ऑफ़ मिशिगन के हालिया सर्वे में पता चला है कि प्रति दस में मे नौ महिलाएं कार्यस्थल पर विभिन्न प्रकार के शोषण की शिकार हैं। इस शोध में अमेरिकी सेना और विधि क्षेत्र के पेशेवरों को शामिल किया गया था। सर्वे में शामिल महिलाओं ने बताया कि प्रमोशन और मोटी सैलरी का लालच देकर अनुचित पेशकश की गई।
      अमर उजाला 12 अगस्त, 2010
   
  अपने नागरिक अधिकारों के प्रति सजग लोगों के समाज में, विकसित देश में औरत का शोषण बेलगाम हो रहा है तो विकासशील और अविकसित देशों में औरत की हालत और भी ज़्यादा दयनीय होगी, यह तय है। 
    इस सर्वे से विकसित देशों की हालत भी सामने आ जाती है और यह भी पता चल जाता है कि आधुनिक शिक्षा और आधुनिकता एक स्त्री को उसके स्त्रीत्व का सम्मान देने में भी नाकाम है और उसे सुरक्षा देने में भी। आधुनिक पश्चिमी विचारधारा एक पूर्णतः असफल विचारधारा है। यंत्रों के अविष्कार कर लेने और साधनों को बेहतर बना देने में तो वे सफल हैं लेकिन औरत न तो कोई यंत्र है और न ही कोई साधन। इसीलिए वे उसे समझने में भी असफल हैं।
    औरत एक ज़िंदा वुजूद है। एक ऐसा वुजूद, जिसके दम से ज़िंदगी का वुजूद है। उसके अंदर आत्मा भी है और एक मन भी। वह केवल शरीर मात्र नहीं है। आज तक प्रायः औरत के शरीर को ही जाना गया है या फिर बहुत ज़्यादा हुआ तो उसके मन को। सारी दुनिया के काव्य-महाकाव्य उसके हुस्न की तारीफ़ से भरे पड़े हैं, जिन्हें बार-बार दोहराया गया और ज़्यादातर औरत को मूर्ख बनाया गया, उसके विश्वास को छला गया। आज की औरत मर्द के प्रति अपना सहज विश्वास खो चुकी है। चंद घंटों की बच्ची से लेकर बूढ़ी औरतों तक, हरेक की आबरू की धज्जियां उड़ाने वाला मर्द ही है। ज़्यादातर उन्हें ऐसी सज़ा नहीं मिल पाती, जो उनके लिए वाक़ई सज़ा और दूसरों के लिए इबरत साबित हों। मुजरिम केवल बलात्कारी ही नहीं होते, मुजरिम केवल उन्हें छेड़ने और सताने वाले ही नहीं होते बल्कि वे भी उनके जुर्म में बराबर के शरीक हैं जिन्होंने औरत को पहले तो कमज़ोर बनाकर ज़ालिमों के लिए एक तर निवाला बना दिया और फिर उसे सुरक्षा भी नहीं दे पाए।
    ‘हम सब मुजरिम हैं।‘ पहले हमें यह मानना होगा। एक मुजरिम के रूप में अपनी भूमिका को पहले स्वीकारना होगा, तभी हम अपनी आत्मा और ज़मीर पर वह घुटन महसूस कर पाएंगे जो कि हमें अपनी सोच और अपने अमल को सुधारने के लिए मजबूर करेगी।
    पुरातन और आधुनिक, दोनों संस्कृतियों में जो भी लाभदायक तत्व हैं उन्हें लेते हुए हमें नए सिरे उस व्यवस्था की खोज करनी होगी जो औरत को शरीर, मन और आत्मा तीनों स्तर पर स्वीकारने के लिए हमें प्रेरित भी करे और यह भी बताए कि हम पर उसके क्या हक़ हैं और उन्हें अदा कैसे और किसलिए किया जाए ?
    औरत मां है, बहन है, बेटी है। किसी के साथ कभी भी और कुछ भी हो जाता है। किसी की भी मां-बहन-बेटी के साथ कुछ भी हो सकता है। सभी सुरक्षित रहें और आज़ाद रहते हुए अपनी पसंद के फ़ील्ड में अपनी सेवाएं देकर समाज को बेहतर बनाएं, इसके लिए हमें मिलकर कोशिश करनी होगी और वह भी तुरंत, बहुत देर तो पहले ही हो चुकी है। अब औरत की आहों पर, उसकी कराहों पर सही तौर पर ध्यान देना होगा और उसके दुख को, उसके दर्द को गहराई से समझना होगा ताकि उसे दूर किया जा सके। औरत भी यही चाहती है।
    औरत सरापा मुहब्बत है। वह सबको मुहब्बत देती है और बदले में भी फ़क़त वही चाहती है जो कि वह देती है। क्या मर्द औरत को वह तक भी लौटाने में असमर्थ है जो कि वह औरत से हमेशा पाता आया है और भरपूर पाता आया है ?
                       
कभी बेटी कभी बीवी कभी मां है औरत
आदमी के लिए ईनामे खुदा है औरत
....................................................................................................................................................
              यह लेख मैं बहन रेखा श्रीवास्तव जी को सादर अर्पित करता हूं। मैं बहन रेखा जी को ब्लागिस्तान की उन चुनिंदा औरतों में शुमार करता हूं जो एक पुख्ता सोच की मालिक हैं, जिन्होंने ज़िंदगी को बहुत क़रीब से देखा है और बहुत शिद्दत से महसूस भी किया है। उनकी सोच व्यवहारिक है और उनके लेख और कमेंट प्रायः तथ्यपरक होते हैं। औरत की हालत को रेखांकित करते हुए जनाब मासूम साहब ने एक लेख
भारतीय संस्कृति में लज्जा को नारी का श्रृंगार माना गया है(11/22/2010 01:10)
‘अमन के पैग़ाम‘ पर दिया था।
  उस पर मैंने भी टिप्पणी की थी। मैंने कहा था कि ‘आज औरत घर से बाहर जिन लोगों के बीच मजबूरन काम करती है वे नेक पाक नीयत और अमल के लोग नहीं हैं। उनका साथ औरत के लिए कष्ट और शोषण का कारण बनता है।‘ 
         उसी लेख पर बहन रेखा जी ने भी टिप्पणी की थी। उन्होंने फ़रमाया था कि ‘सभी औरतों का चरित्र और हालात एक से नहीं होते। औरतें आज अपने घरों में भी सुरक्षित नहीं हैं। ससुर द्वारा अपनी बहुओं के साथ बलात्कार घर में ही घटित होते हैं, जिसपर हमारा समाज उपेक्षा का भाव लिए रहता है।‘
न मैंने कुछ ग़लत कहा था और न ही बहन रेखा जी ने ज़रा भी झूठ कहा था। औरत की बदहाली और उसके तमाम कारणों को बयान करने के लिए एक टिप्पणी तो क्या, पूरा एक लेख भी नाकाफ़ी है। उसमें केवल सूक्ष्म संकेत ही आ पाते हैं। ये दोनों टिप्पणियां भी समस्या के दो अलग कोण पाठक के सामने रखती हैं।
मैं बहन रेखा जी की टिप्पणी से सहमत हूं और मुझे उम्मीद है वे भी मेरे लेख की भावना और सुझाव से सहमत होंगी और उनके जैसी मेरी दूसरी बहनें भी।
मिलकर जागें, मिलकर जगाएं
बदहाली अब दूर भगाएं