हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार परदों की तरह हिलने लगी
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गांव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
-दुष्यंत कुमार
(1 सितंबर 1933 - 30 दिसंबर 1975)
हापुड़ के रेलवे स्टेशन पर वेटिंग रूम में एक ख़ूबसूरत फ़्रेम में आज यह ग़ज़ल देखी तो आपके लिख दी ।
मास्टर अनवार साहब हमारे अपने घर का खाना लाए हैं । वे कोशिश कर रहे हैं कि हमारी सीट कन्फ़र्म हो जाए।
2 comments:
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" हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गांव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए "
दुष्यंत ने जो भी लिखा, अधिकतर कालजयी रहेगा...
उनकी याद ताजा कराने के लिये आभार!
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सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
बहुत सही कहा है
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