जनाब सुशील बाकलीवाल जी पेट्रोल के दाम बढ़ने के संदर्भ में पूछ रहे हैं कि
नेताओं का मूक जवाब है कि जब तक तुम और लोकतंत्र में से कोई एक भी ज़िंदा है तब तक।
बात दरअसल यह है कि जनता को लोकतंत्र चाहिए और लोकतंत्र को जनता के चुने हुए प्रतिनिधि चाहिएं। चुनाव के लिए धन चाहिए और धन पाने के लिए पूंजीपति चाहिएं। पूंजीपति को ‘मनी बैक गारंटी‘ चाहिए, जो कि चुनाव में खड़े होने वाले सभी उम्मीदवारों को देनी ही पड़ती है।
नेताओं का मूक जवाब है कि जब तक तुम और लोकतंत्र में से कोई एक भी ज़िंदा है तब तक।
बात दरअसल यह है कि जनता को लोकतंत्र चाहिए और लोकतंत्र को जनता के चुने हुए प्रतिनिधि चाहिएं। चुनाव के लिए धन चाहिए और धन पाने के लिए पूंजीपति चाहिएं। पूंजीपति को ‘मनी बैक गारंटी‘ चाहिए, जो कि चुनाव में खड़े होने वाले सभी उम्मीदवारों को देनी ही पड़ती है।
देश-विदेश सब जगह यही हाल है। जब अंतर्राष्ट्रीय कारणों से महंगाई बढ़ती है तो उसकी आड़ में एक की जगह पांच रूपये महंगाई बढ़ा दी जाती है और अगर जनता कुछ बोलती है तो कुछ कमी कर दी जाती है और यूं जनता लोकतंत्र की क़ीमत चुकाती है और चुकाती रहेगी।
लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आज़ादी की क़ीमत अगर महज़ 5 रूपये मात्र अदा करनी पड़ रही है तो इसमें क्या बुरा है ?
और जो लोग इससे सहमत नहीं हैं , वे इसका विकल्प सुझाएँ. ऐसा विकल्प जो कि व्यवहारिक हो. नेताओं को दोष देने से पहले जनता खुद भी अपने आपे को देख ले निम्न लिंक पर जाकर :
3 comments:
विकल्प कुछ है ही नही विपक्ष के नाप पर भगवा पार्टी है जिसके नाम से अल्पसंख्यक भागते हैं और उसके अलावा भी कर्म उनके समान ही है विकल्प की बात मत करो जमाल जी शरीर मे झुर्झुरी सी दौड़ जाती है
@ भाई अरूणेश ! अपने शरीर में तो झुरझुरियां सी दौड़ने के बजाय झुर्रियां सी भी पड़ने लगी हैं। मारकाट में मैं विश्वास नहीं रखता और कोई क्रांति टाइप परिवर्तन मैं चाहता नहीं क्योंकि इन सबका नुक्सान सबसे ज़्यादा भी जनता को ही उठाना पड़ता है। नेता निश्चिंत हैं और अदालतें सुस्त हैं। नौकरशाह मज़े कर रहे हैं और मोटा माल कमाकर अपने बच्चों को आला तालीम इसलिए दिला रहे हैं ताकि वे और मोटा माल कमा सकें। इस सबसे जनता आजिज़ आ चुकी है। जगह-जगह आक्रोश में आकर लोग हत्या-आत्महत्या कर रहे हैं। हम सब एक भयानक भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं और ये सांप्रदायिक राष्ट्रवाद कोढ़ में खाज की तरह समस्या को और ज़्यादा बढ़ा रहा है।
ऐसे में मेरी कोशिश यह है कि मैं ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को हिंसा और अनुशासनहीनता से दूर रहने के लिए प्रेरित कर सकूं। जिसका भी लहू बहेगा वह जनता का ही एक सदस्य होगा। वह किसी का बेटा और किसी का भाई होगा। वह खुदा को मानता हो या चाहे न मानता हो लेकिन फिर भी वह बंदा एक ही खुदा का होगा। हमारी धार्मिकता की असली कसौटी यही है कि हम समाज में शांति लाने और बनाए रखने के लिए कितना प्रयास करते हैं ?
कमेंट के लिए शुक्रिया !
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/05/sufism-and-yoga.html
यह आपकी नहीं बल्कि आपके दुखी दिल की आवाज़ है जो गलत नहीं हो सकती.
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