नाम का अभ्यास हुक्म की पाबंदी के साथ करना अनिवार्य है
आदरणीय भूषण जी ! मैं बाबा फ़क़ीरचंद जी को नहीं जानता लेकिन उनकी कुछ बातें सही हैं कि शारीरिक कष्टों के पीछे इंसान का ग़लत खान-पान और ग़लत रहन-सहन है। ये कष्ट केवल ‘नाम‘ के अभ्यास से दूर नहीं हो सकते।
मैं यह कहना चाहूंगा कि इन आधिभौतिक कष्टों के अलावा हमारी इन्हीं ग़लतियों के कारण आध्यात्मिक और आधिदैविक कष्ट भी मानव जाति पर और स्वयं हम पर सामूहिक रूप से और व्यक्तिगत रूप से आते रहते हैं , ये कष्ट भी ‘नाम‘ के अभ्यास से दूर नहीं हो सकते।
कष्ट के यही तीन प्रकार हैं और यही तीनों ‘नाम‘ के अभ्यास से दूर नहीं होते तो फिर ‘नाम‘ के अभ्यास से दूर कौन से कष्ट होते हैं ?
यह विचारणीय है।
दरअस्ल बात यह है कि नाम को जब भी पैग़ाम और अहकाम (आदेश) से काटा जाएगा तो वह धर्म के बजाय एक दर्शन बन जाएगा और फिर एक के बाद एक बहुत से दर्शन बनते चले जाएंगे। एक दर्शन जिस बात को वर्जित बताएगा, दूसरा दर्शन उसी में मुक्ति बताएगा। भारत में अर्से से यह खेल चल रहा है और आज भी जारी है।
ईश्वर का नाम उसके बताए तरीक़े से लीजिए और उसके हुक्म पर चलिए और ऐसा हमें सामूहिक रूप से करना होगा। समाज का कष्ट अपने न्यूनतम स्तर तक पहुंच जाएगा।
यह तय है।
अब हम आपको कुछ ‘नाम‘ के अभ्यास के बारे में बताते हैं।
ईश्वर का कोई भी नाम आप ले लीजिए।
चाहे आप ‘ऊँ‘ का जाप करें या फिर ‘अल्लाह-अल्लाह‘ का।
आप एक समय नियत कर लीजिए और मन ही मन ‘नाम‘ का जाप कीजिए आधा घंटा या एक घंटा। इसके बाद जब आप दैनिक कार्य करें तब भी आप अपनी तवज्जो अपने मानसिक जाप की ओर बनाए रखें। महीने भर के बाद ही आपकी यह स्थिति हो जाएगी कि यह ‘नाम‘ अब आपकी कोशिश के बिना भी आपके दिल में ख़ुद-ब-ख़ुद चलता रहेगा।
इसे हमारे सूफ़ी सिलसिलों में ‘क़ल्ब का जारी होना‘ कहते हैं। जब साधक की स्थिति यह हो जाती है तो चाहे वह हंस रहा हो या फिर रो रहा हो या लोगों से बातें कर रहा हो, उसका ‘ज़िक्र‘ अखंड रूप से उसके दिल में चलता रहता है, जिसे वह ख़ुद सुनता रहता है। मेरे एक पीरभाई हैं जब वे ज़िक्र करते हैं तो उनके दिल की आवाज़ को हॉल में मौजूद में दूसरे लोग भी सुनते हैं। आप चाहें तो आप भी सुन सकते हैं।
यह मक़ाम हमारे नक्शबंदी सिलसिले में पीर की तवज्जो की बरकत से बहुत जल्द हासिल हो जाता है।
फिर साधक अपने सीने में मौजूद चार और लतीफ़ों से ज़िक्र करता है और उसके बाद वह अपने दिमाग़ के बीच में मौजूद ‘लतीफ़े‘ पर ध्यान केंद्रित करके ‘नाम‘ का अभ्यास करता है और तब बहुत जल्द उसके तमाम बदन से ‘ज़िक्र‘ जारी हो जाता है। उसके बदन का एक-एक रोआं और उसके ख़ून का एक एक अणु ‘अल्लाह-अल्लाह‘ कहता है जिसे नाम लेने वाला साधक ख़ुद सुनता है। इस मंज़िल तक कामिल पीर अपने मुरीद को तीन-चार माह में ही ले आता है। इसके बाद अगली मंज़िलें शुरू हो जाती हैं।
इस अभ्यास के साथ अल्लाह के हुक्म की पाबंदी अनिवार्य है। वह है तो यह भी सफल है और अगर वह नहीं है तो यह सिर्फ़ एक तमाशा है। इससे कुछ हासिल होने वाला नहीं है। अस्ल चीज़ है ‘मालिक की रज़ा‘। मालिक राज़ी है तो हर चीज़ सार्थक है और अगर वह नाराज़ है तो फिर हरेक सिद्धि निरर्थक है।
मुस्लिम सूफ़ी और ग़ैर-मुस्लिम साधकों में अभ्यास और सिद्धि का अंतर नहीं है। उनके दरम्यान मूल अंतर यही है कि ग़ैर-मुस्लिम साधक धर्म के बजाय दर्शन का अनुसरण कर रहे हैं क्योंकि उनके पास ईश्वर की वाणी अब है नहीं जबकि मुस्लिम सूफ़ी सिलसिलों के संस्थापकों ने ‘ईशवाणी‘ की पाबंदी ख़ुद भी की और अपने मुरीदों को भी करना सिखाया।
जैसे ईश्वर का स्थान कोई मनुष्य नहीं ले सकता वैसे ही ईश्वर के विचार और उसके बनाए नियम की जगह इंसान का कोई विचार या उसका बनाया कोई नियम नहीं ले सकता। धर्म के अधीन हो तो दर्शन और विज्ञान हर चीज़ नफ़ा देगी लेकिन अगर ईश्वरीय व्यवस्था को छोड़कर उन्हें ग्रहण किया जाएगा तो कभी कल्याण होने वाला नहीं है।
दुख के नाश के लिए ईश्वर का केवल ‘नाम‘ लेना ही काफ़ी नहीं है बल्कि अपने मन-बुद्धि और आत्मा हरेक स्तर पर उसके प्रति पूर्ण समर्पण करते हुए उसकी शरण में जाना ज़रूरी है, उसकी भेजी हुई वाणी के आलोक में उसके आदेश का पालन ठीक वैसे ही करना ज़रूरी है जैसे कि उसके ऋषि और पैग़म्बरों ने करके दिखाया है।
इस स्टेटमेंट को आप निम्न लिंक देखेंगे तो आप पूरी पृष्ठभूमि जान लेंगे :
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3 comments:
आपके उप्रयुक्त कमेंट को मैं बहुत बढ़िया टिप्पणियों में शुमार करता हूँ. वाक़ई इसमें भरी-पूरी पोस्ट होने की गुंजाइश है. आभार.
@ आदरणीय भूषण जी ! आपकी तस्दीक़ को भी मैं एक प्रमाण पत्र का दर्जा देता हूं। आपकी सराहना और तस्दीक़ के लिए आपका शुक्रिया !
Please see also :
1- जनता ख़ुद ग़लत है और ग़लत लोगों को ही वह चुनती है Self Improovement
http://ahsaskiparten.blogspot.com/2011/05/self-improovement.html
2- कॉन्फिडेंस पाना चाहते हो तो ट्रिगर मैथड का इस्तेमाल करो Art Of Living
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3- महंगाई का इलाज सादगी है फ़िलहाल तो ... Shayri
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4- मज़लूम लड़कियों को इंसाफ़ नहीं दे पा रही हैं हिंदुस्तानी अदालतें
Injustice in justice
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5- अल्लामा इक़बाल फ़रमाते हैं कि... Shayri
http://commentsgarden.blogspot.com/2011/05/blog-post_15.html
6- अल्लाह का फ़रमान है कि 'मेरे प्रति कृतज्ञ हो और अपने माँ-बाप के प्रति भी'
http://quranse.blogspot.com/2011/05/blog-post_9112.html
बहुत ही बेहतरीन लिखा है.
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