ख़ुशदीप जी अपने ब्लॉग ‘देशनामा‘ पर दिखा रहे हैं फिर से अपनी सक्रियता
पिछले दिनों भाई खुशदीप जी ने हमें एक नेक सलाह दी थी और खुद भूल गए कि ग़ुस्सा आदमी की अक्ल को खा जाता है। उन्होंने ग़ुस्से में फ़ैसला कर लिया कि बस बहुत हो गई हिंदी ब्लॉगिंग, अब मैं नहीं लिखूंगा हिंदी में। उनके इस फ़ैसले ने बहुत से ब्लॉगर्स को चिंता में डाल दिया और वे उनकी मिन्नत करते रहे। किसी ने उन्हें प्यार से मनाया तो किसी ने उन्हें हंसाया, हमने उन्हें बताया कि आपका फ़ैसला ही ग़लत है, कोई भी सच्चा ब्लॉगर बिना ब्लॉगिंग किए रह ही नहीं सकता। हम दिन रात अपनी ख़ानम की फटकार झेलते रहते हैं लेकिन क्या मजाल जो हमारे पाए इस्तक़ामत में ज़रा भी तज़लज़ुल आ जाए।
ख़ैर, खुशदीप जी हमारी भविष्यवाणी के मुताबिक़ वापस आ चुके हैं और ‘3 Idiots‘ दिखा रहे हैं।
हिंदी भवन से जब वे वापस लौटे तो शायद तब भी वे 3 लोग ही थे।
इस मौक़े पर जनाब डा. अमर कुमार साहब ने अपने कमेन्ट के ज़रिये एक बेहतरीन संदेश दिया है जिस पर हरेक हिंदी ब्लॉगर को ध्यान देना चाहिएः
'आपको देख कर खुशी हुई, मैं भी दो बार यूँ ही बिलबिलाया था.... टँकी पर चढ़ने की घोषणा तो नहीं की, पर आदरणीय द्विवेदी ने आगाह कर दिया था, सो बचा रहा । फिलहाल आपको देख कर और जो सँदेश देना चाहा है, उसे समझ कर खुश हूँ । यदि आप नेट पर सक्रिय हैं, और नेट पर अपना योगदान भी दे रहे हैं, तो क्या यह बेहतर नहीं है हम अपने मातृभाषा का प्रयोग करके इसके डाटाबेस को समृद्ध करें ?'
हम उनसे पहले ही कह रहे थे कि ‘परिकल्पना सम्मान समारोह‘ में ‘साहित्य निकेतन‘ नामक संस्था का पूंजीपति मालिक अपना जलवा दिखाने के लिए मुख्यमंत्री जी को बुला रहा है। हिंदी ब्लॉगर्स को भी वहां उसके आयोजन को भव्य बनाने के लिए ही इस्तेमाल किया जाएगा लेकिन हमारी बात को अनसुना करके ‘साहित्य निकेतन‘ वालों का एक लंबा सा इश्तेहार हमारी वाणी पर लटका दिया गया, महज़ यारी दोस्ती में। यारी दोस्ती के चक्कर में ही बेचारे ख़ुशदीप जी अपने उसूलों से समझौतों पर समझौते करते चले गए।
पूंजीपति प्रकाशक हमेशा से ही हिंदी लेखकों का शोषण करते आए हैं और अब वे हिंदी ब्लॉगर्स को भी अपने निजी हितों के लिए इस्तेमाल करने लगे हैं। दूर दूर से आए तमाम हिंदी ब्लॉगर्स का ‘साहित्य निकेतन‘ के स्वामी ने ‘मानसिक अपहरण‘ कर लिया था। ऐसा महसूस किया हमारे भाई अरूण चंद्र रॉय ने। इस आयोजन में अनियमितताएं हुईं, आयोजनों में अक्सर होती ही हैं और ख़ास तौर पर ऐसे आयोजनों में जिनमें कोई मंत्री या मुख्यमंत्री आ रहा हो।
जिस सत्र में पूंजीपति की दिलचस्पी थी, वह तो पूरी शान से संपन्न हुआ और जो सत्र हिंदी ब्लॉगर्स को कुछ दे सकता था और जिसमें कि भाई खुशदीप जी की दिलचस्पी थी, उसे कैंसिल कर दिया गया क्योंकि मुख्यमंत्री जी के लेट आने से सारा टाईम शेड्यूल ही बिगड़ गया था। दूसरे सत्र के मुख्य अतिथि और मुख्य वक्ता पुण्य प्रसून वाजपेयी जी को भी उचित सम्मान नहीं मिला। भाई ख़ुशदीप एक पंजाबी पुत्तर हैं, सो वह दिल पर ले गए और उन्होंने न सिर्फ़ यह कि पुरस्कार उल्टा कर दिया बल्कि जो कुछ वहां खाया-पिया था उसकी भी उल्टी कर दी। जब वे घर पहुंचे तो उनका पेट ख़ाली और मन भारी था।
डैमेज कंट्रोल पर भाई शाहनवाज़ जुट गए तुरंत और आखि़कार ‘क़लम का सिर क़लम होने से बच गया।
इस सब बवंडर से जो सबक़ मिला है, वह कोई भी अपने ताल्लुक़ात बिगड़ने के डर से कहने के लिए तैयार नहीं है।
वह सबक़ यह है कि ‘किसी को अपने इलाक़े का समझकर उसकी ग़लतियों में उसका साथ मत दो।‘
3 comments:
अनवर भाई,
शुक्रिया...
हर तज़र्बा आदमी को कुछ न कुछ सिखाता है...मैंने भी सीखा है...
पहला- कितना भी दबाव हो, अपने स्वभाव से हट कर कोई काम नहीं करना चाहिए...सम्मान पर अपने लिए श्रेष्ठ शब्द हटाकर चर्चित भी करा लिया...मैंने अपना नियम तोड़ा और पहली बार में ही हाथ जला लिए...
दूसरा- संबंधों को लेकर हमेशा अपने दिल की बात ही नहीं सुननी चाहिए, कभी दिमाग को भी मौका दे देना चाहिए...
जय हिंद...
@ भाई ख़ुशदीप जी ! ऐसा नहीं है कि इंसान से ग़लतियां नहीं होतीं। इंसान से ग़लतियां होती हैं लेकिन वह उनसे सबक़ सीखकर ख़ुद को बेहतर बनाता है। ज़िंदगी ऐसे ही गुज़रती है। आपने बिल्कुल सही नसीहत हासिल की है। अब आपको हक़ है कि आप दूसरों को भी अपने तजर्बे की रौशनी में सही सलाह दे सकें।
आपको झिंझोड़ने के लिए मुझे थोड़ा रूटीन से हटकर बोलना पड़ा।
आपसे क्षमाप्रार्थी हूं।
आदमी गलतियों ही से सबक सीखता है ।
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