राजेंद्र तेला जी बिना रूके ‘निरंतर‘ कविताएं लिखे जा रहे थे और हम उन्हें सही तौर पर टिप्पणी भी नहीं दे पा रहे थे। अंदर से हमारा मन ‘गब्बर स्टाइल‘ में बार-बार कह रहा था कि ‘बड़ी नाइंसाफ़ी‘ हो रही है तेला जी के साथ। सो आज हमारी वाणी के सहारे हम जा पहुंचे उनके ब्लॉग पर। वहां राजेंद्र तेला जी अपने प्रियतम से शिकवा कर रहे थे कि अगर वह उनके पास आए और साथ मिलकर बारिश में नहा ले तो उसका क्या बिगड़ जाएगा ?
हमने अपना माथा पीट लिया कि क्यों अपनी जान ख़तरे में डाल रहे हो तेला जी ?
जिस तरह ढोल दूर से ही सुहावने लगते हैं, ऐसे ही महबूब भी दूर से ही भले लगते हैं। अगर आपका महबूब एक बार आपके घर में घुस गया तो फिर ज़िंदगी भर उसे भारत की पुलिस-कचहरी में से कोई भी निकाल नहीं सकती। फिर इतना ही नहीं, महबूब आएगा अकेला और आपका सहयोग लेकर अपनी पूरी फ़ौज खड़ी कर लेगा। हमने अपने इसी तल्ख़ तजर्बे को उनकी पोस्ट पर एक कमेंट की शक्ल में पेश किया है जो कि इत्तेफ़ाक़ से राजेंद्र जी की रचना जैसा ही बन गया है।
जो देखा उसे
दिल में समाई
बजी शहनाई
वह घर में आई
क़ब्ज़ा लिया
दिल और चारपाई
फिर ऋतु जो भी आई
बस प्यार ही लाई
प्यार की सौग़ात ही लाई
पांच बच्चों की सूरत दिखाई
आज भी जब
वह लेती है अंगड़ाई
मैं कांप जाता हूं
सोचकर
प्यार का अंजाम
मिलन का परिणाम
जो ऋतु हरेक है लाई
...और अब देखिए राजेंद्र तेला जी की रचना
वर्षा ऋतु का
आना
पानी की बौछारें
मंद हवा का बहना
पेड़ों के पत्तों का
धुलना
हर दिल में
मिलन इच्छा का
जगना
इंतज़ार पहले भी था
आज भी है
कोई आए साथ
वर्षा में नहाए
अठखेलियां करे
मिलने की ख़ातिर
मौसम का इंतज़ार
ना कराए
निरंतर हर ऋतु
मिलन ऋतु हो जाए
राजेंद्र जी को समझाकर फ़ारिग़ हुए तो मोहतरमा आकांक्षा यादव जी की पोस्ट पर नज़र पड़ गई। वहां भी महबूब से यही शिकायत की जा रही थी कि
‘मैं बुलाती रह गई, पर प्राण मेरे तुम न आए‘
हमने फिर अपना सिर पीट लिया।
प्राण न ही आए तो अच्छा है। प्राण आ गया तो फिर सिजेरियन होना तय है। नादान क्यों ख़ामख्वाह अपने निजी प्राण संकट में डाल रही है। हमने वहां भी यही नसीहत चिपका दी।
देखिए आकांक्षा यादव जी के ब्लॉग पर एक उम्दा रचना और बताइये कि लोग आखि़र विरह में इतना क्यों तड़प रहे हैं ?
कहीं कोई नर तड़प रहा है और कहीं कोई नारी तड़प रही है।
आखि़र ये लोग करना क्या चाहते हैं ?
पिछले लोगों के तजर्बों से कोई शिक्षा क्यों नहीं लेता ?
प्राण मेरे तुम न आये : बच्चन लाल बच्चन
मैं बुलाती रह गई, पर प्राण मेरे तुम न आये।
नयन-काजल धुल गए हैं
अश्रु की बरसात से
नींद आती है नहीं-
मुझको कई एक रात से
तिलमिला उर रह गया, पर प्राण मेरे तुम न आये।
तोड़ कर यूँ प्रीत-बंधन
चल पड़े क्यों दूर मुझसे
तुम कदाचित हो उठे थे-
पूर्णतः मजबूर मुझसे
मैं ठगी सी रह गयी, पर प्राण मेरे तुम न आये।
नेत्र पट पर छवि तुम्हारी
नाचती आठों पहर है
याद तेरी पीर बनकर
ढ़ाहती दिल पर कहर है
मैं बिलखती रह गयी, पर प्राण मेरे तुम न आये।
मैं बुलाती रह गयी, पर प्राण मेरे तुम न आये।
बच्चन लाल बच्चन,
12/1, मयूरगंज रोड, कोलकाता-700023
3 comments:
यह प्यार कि बातें है और वह ही जानें ..
अनवर साहब अब प्यार की गलियों मैं भटकने की उमर नहीं है. कहीं ठहर जाएं.
हा हा हा अनवर साहब खुद तो लड्डू खा लिया और दूसरो को खाने नही दे रहे । खैर बात तो आपकी सही है जिस घर के आगे घॊड़ी सज रही हो समझ लो अंदर गधा सज रहा होगा ।
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