फ़ोटो में प्रेमपूर्ण मुद्रा में साथ खड़े हुए भाई तारकेश्वर गिरी जी |
यह लम्हा वाक़ई एक यादगार लम्हा था। यह एक फ़ोटो मात्र नहीं है बल्कि यह भारतीय समाज का आईना भी है। यह फ़ोटो आज का नहीं है बल्कि यह उन दिनों का जब भाई गिरी जी हमारा विरोध करते-करते टॉप पर स्थान ले चुके थे। टिप्पणियां भी उन्हें इतनी मिला करती थीं कि उनकी पोस्ट का पेज छोटा पड़ जाया करता था। बहरहाल वे एक साफ़ सुथरे और प्यार करने वाले आदमी हैं। अपने विरोधियों में मैं उन्हें एक ऐसा विरोधी मानता हूं जिनसे कि मेरे विरोधी बहुत कुछ सीख सकते हैं।
आज एक पोस्ट पर नज़र पड़ी तो याद आया कि यह आदमी ख़ुद को ब्राह्मण भी समझता है और जाने कैसे प्रोफ़ेसरी का जुगाड़ भी कर लिया है लेकिन भाषा-संवाद और व्यवहार में यह भाई तारकेश्वर गिरी जी से भी गिरा हुआ है।
कितना गिरा हुआ है ?
इतना गिरा हुआ है कि जिस आदमी के विरोध में यह पोस्ट लिखेगा उसे अपनी पोस्ट पर टिप्पणी भी न करने देगा और अगर कर दी तो डिलीट कर देगा।
यह ब्लॉगिंग का कौन सा रूप है भाई ?
गिरी जी हरगिज़ ऐसा नहीं करते। वह भले ही किसी आदमी से सहमत न हों और उसी आदमी के विरोध में उन्होंने ग़ुस्से में आकर चाहे दर्जनों पोस्ट लिख दी हों लेकिन तब भी वह उसकी टिप्पणी का भी सदा स्वागत करते हैं।
प्रोफ़ेसर जैसे संकीर्ण मानसिकता के लोग यहां बुद्धिजीवियों के बीच बैठकर ‘कछुआ कफ़न‘ सी रहे हैं और ‘कफ़न चोरों‘ को सत्ता की कुर्सी तक पहुंचाने के लिए जनमन भी बना रहे हैं। इनकी पोस्ट पर ऐसे-ऐसे लोग आकर सहमत हो रहे हैं जिन्हें भविष्य में ‘जयचंद‘ के नाम से भी कोई याद न रखेगा, यह सब देखकर दुख होता है।
याद रहे कि जयचंद एक अच्छा पिता और एक बहादुर राजा था। उसे नाहक़ बदनाम किया गया है। जिसकी बेटी को कोई उसका विश्वास छलकर भगा ले जाएगा और किसी नैतिकता की परवाह हरगिज़ न करेगा तो वह फिर किसी नैतिकता की पाबंदी भला क्यों करेगा ?
जयचंद को गालियां देने से पहले सोचना चाहिए कि जयचंद को आखि़र किसने जयचंद बनने के लिए मजबूर किया ?
जब एक जयचंद ने ही देश को विदेशियों के हाथ सौंप दिया तो फिर आज एक पूरी क़ौम को जयचंद का इल्ज़ाम देकर उसे सचमुच ही जयचंद बनाने पर क्यों तुले हुए हैं कफ़नचोर ?
सिर्फ़ इसलिए ताकि ख़ुद इनकी ग़द्दारी का पर्दाफ़ाश न होने पाए।
बहरहाल, अगर आप फ़ोटो के संबंध में पूरी पोस्ट पढ़ना चाहते हैं आप नीचे दिए गए लिंक पर जाएं
2 comments:
उफ़ सियासत की तमाज़त से वह मुरझाने लगा
कल जो गाँधी जी ने अपने खून से सीँचा था बाग ।
अँदलीबाने चमन तो सब चमन से उड़ गए
काँए काँए कर रहे हैं आज इस गुलशन मे ज़ाग़ ।
मतीन अमरोही
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अनवर साहब जब कौऔ को अपनी तरफ लोगों का ध्यान खींचना होता है तो वह इसी तरह काँए काँए करते हैं जैसे आपके विरोधी कर रहें हैं
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