मेरा मिशन आशा और अनुशासन का मिशन है। लोग बेहतरी की आशा में ही अनुशासन भंग करते हैं और जो लोग अनुशासन भंग करने से बचते हैं, वे भी बेहतरी की आशा में ही ऐसा करते हैं। समाज में चोर, कंजूस, कालाबाज़ारी और ड्रग्स का धंधा करने वाले भी पाए जाते हैं और इसी समाज में सच्चे सिपाही, दानी और निःस्वार्थ सेवा करने वाले भी रहते हैं। हरेक अपने काम से उन्नति की आशा करता है। जो ज़ुल्म कर रहा है वह भी अपनी बेहतरी के लिए ही ऐसा कर रहा है और जो ज़ुल्म का विरोध कर रहा है वह भी अपनी और सबकी बेहतरी के लिए ही ऐसा कर रहा है।
ऐसा क्यों है ?
ऐसा इसलिए है कि मनुष्य सोचने और करने के लिए प्राकृतिक रूप से आज़ाद है। वह कुछ भी सोच सकता है और वह कुछ भी कर सकता है। दुनिया में किसी को भी उसके अच्छे-बुरे कामों का पूरा बदला मिलता नहीं है। क़ानून सभी मुजरिमों को उचित सज़ा दे नहीं पाता बल्कि कई बार तो बेक़ुसूर भी सज़ा पा जाते हैं। ये चीज़ें हमारे सामने हैं। हमारे मन में न्याय की आशा भी है और यह सबके मन में है लेकिन यह न्याय मिलेगा कब और देगा कौन और कहां ?
न्याय हमारे स्वभाव की मांग है। इसे पूरा होना ही चाहिए। अगर यह नज़र आने वाली दुनिया में नहीं मिल रहा है तो फिर इसे नज़र से परे कहीं और मिलना ही चाहिए। यह एक तार्किक बात है।
दुनिया में हरेक घटना का भौतिक परिणाम निकलता है लेकिन नैतिक परिणाम नहीं निकलता। अगर एक आदमी आग में हाथ डालता है तो उसका हाथ जल जाता है। यह इस घटना का भौतिक परिणाम है लेकिन अगर एक दबंग समुदाय किसी कमज़ोर समुदाय के लोगों को ज़िंदा जला देता है तो उसका कोई नैतिक परिणाम यहां नहीं निकलता। विजयी देश को कोई भी युद्ध अपराधी घोषित नहीं कर पाता। जिस घर में कोई बहू दहेज के लिए जला दी जाती है। उसी घर में मृतका की छोटी बहन को उसी युवक से फिर ब्याह दिया जाता है। ऐसी घटनाएं आम हैं। इन सभी घटनाओं को हम सभी देखते हैं और अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार निष्कर्ष भी निकालते हैं। इन घटनाओं के आधार पर हम अपने निष्कर्षों में अलग अलग हो जाते हैं। एक वर्ग यह मानता है कि बस यही दुनिया सब कुछ है। इससे परे जीवन होता ही नहीं है। ऐसी दशा में न्याय की आशा संभव नहीं रहती।
जबकि दूसरा वर्ग यह निष्कर्ष निकालता है कि यह दुनिया कर्म करने की जगह है और मरने के बाद आदमी वहां चला गया है जहां उसे अपने कर्मों का अंजाम भुगतना है। इस दशा में न्याय की आशा ज्यों की त्यों बनी रहती है।
हमें वह काम करना चाहिए जिससे समाज में ‘न्याय की आशा‘ समाप्त न होने पाए। ऐसी मेरी विनम्र विनती है विशेषकर आप जैसे विद्वानों से।
बौद्ध और जैन क्रांतियां स्वाभाविक थीं।
धर्म एक लोकहितकारी व्यवस्था है। बाद में इसे बिगाड़ दिया गया और इसकी सारी व्यवस्था का लाभ एक वर्ग विशेष लेने लगा। राजनैतिक और सामाजिक हालात ख़राब से ख़राबतर हो गए तो समाज के बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। बहुत से अन्य विद्वानों के साथ महावीर जी और सिद्धार्थ गौतम जी ने भी अपना विरोध दर्ज कराया। अन्य पंथ समय के साथ मिट गए और ये दोनों बचे रह गए। दोनों की ही मान्यताएं अलग-अलग हैं। यह बात भी यही प्रमाणित करती है कि एक ही माहौल में रहने के बावजूद अलग-अलग बुद्धि वाले लोग अलग अलग निष्कर्ष निकालते हैं। महावीर जी आत्मा को मानते हैं लेकिन तथागत आत्मा को नहीं मानते।
मान्यताएं कितनी भी अलग क्यों न हों ?
हमें समाज पर पड़ने वाले उनके प्रभावों का आकलन ज़रूर करना चाहिए और देखना चाहिए कि यह मान्यता समाज में आशा और अनुशासन , शांति और संतुलन लाने में कितनी सहायक है ?
इसे अपनाने के बाद हमारे देश और हमारे विश्व के लोगों का जीना आसान होगा या कि दुष्कर ?
इसके बावजूद भी मत-भिन्नता रहे तो भी हमें अपने-अपने निष्कर्ष के अनुसार समाज में शांति और व्यवस्था बनाए रखने के लिए यथासंभव कोशिश करनी चाहिए और इस काम में दूसरों से आगे बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए।
निम्न लेख भी विषय से संबंधित है और आपकी तवज्जो का तलबगार है :
3 comments:
great article!
Swachchh Sandesh
अच्छी पोस्ट
बहुत सुन्दर रचना| धन्यवाद|
Post a Comment