Saturday, June 18, 2011

क्या नास्तिक बंधु इस नई साइंसी खोज को स्वीकार करेंगे ? - Dr. Anwer Jamal


नास्तिक भाई एक ओर तो यह दावा करते हैं कि वे प्रकृति को मानते हैं और यह भी कि वे विज्ञान को मानते हैं लेकिन हक़ीक़त यह है कि उनके मन में नास्तिकता के जो विचार जड़ जमा चुके हैं उनके सामने वे न तो विज्ञान को मानते हैं और न ही प्राकृतिक नियमों को। 
पिछले दिनों आदरणीय दिनेश राय द्विवेदी जी ने हमारी एक पोस्ट पर टिप्पणी की और अपने नास्तिक मत का तज़्करा करते हुए हमसे सवाल किया था। जिसका हमने उचित जवाब दे दिया था। जिसे आप यहां देख सकते हैं

सवाल हल हो चुकने के बावजूद आज उन्होंने फिर वही सवाल दोहरा दिया। अंतर केवल इतना है कि पहले सवाल उन्होंने अपने शब्दों में किया था और इस बार उन्होंने भगत सिंह को उद्धृत किया है
http://islam.amankapaigham.com/2011/06/blog-post_17.html?showComment=1308385296345#c5253925682720558514

भगत सिंह के दिमाग़ में अगर नास्तिकता भरे  सवाल उठे तो उसके पीछे एक बड़ी वजह तो यह रही कि उस समय तक लोगों का ख़याल था कि ईश्वर, आत्मा और धर्म में विश्वास माहौल की देन है लेकिन आधुनिक वैज्ञानिक रिसर्च के बाद यह हक़ीक़त सामने आई है कि यह इंसान की प्रकृति का अभिन्न अंग है। जो चीज़ इंसान की प्रकृति का अभिन्न अंग है, नास्तिक लोग उससे पलायन कैसे कर सकते हैं और करना ही क्यों चाहते हैं ?
फिर प्रकृति को मानने के दावे का क्या होगा ?
ईश्वर और धर्म के नाम पर पुरोहित वर्ग ने कमज़ोर वर्गों का शोषण किया, इसलिए लोगों को ईश्वर और धर्म से विरक्ति हो गई। अगर इस बात को सही मान लिया जाए तो फिर ईश्वर और आत्मा को न मानने वाले दार्शनिकों के विहारों में भी जमकर अनाचार हुआ और नास्तिक राजाओं ने भी जमकर अत्याचार किया। इससे ज़ाहिर है कि नास्तिकता लोगों के दुखों का हल नहीं है बल्कि यह उनके दुखों को और भी ज़्यादा बढ़ा देती है। अगर ऐसा नहीं है तो किसी एक नास्तिक शासक के राज्य का उदाहरण दीजिए, जहां लोगों की बुनियादी ज़रूरतें किसी धर्म आधारित राज्य से ज़्यादा बेहतर तरीक़े से पूरी हो रही हों ?

हक़ और बातिल की इसी पोस्ट पर प्रिय प्रवीण जी भी अपने हलशुदा सवालों को दोहरा रहे हैं। उन्हें लगता है कि ईश्वर की प्रशंसा करना उसकी ईगो को सहलाने जैसा है। वह कहते हैं :
धर्म अपने पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यह देता है कि 'फैसले' के खौफ से ज्यादातर इन्सान नियंत्रण में रहते हैं क्योंकि वो नर्क की आग से डरते हैं और स्वर्ग के सुख भोगना चाहते हैं... इसका एक सीधा मतलब यह भी है कि अधिकाँश Hypocrite= ढोंगी,पाखण्डी अपने मूल स्वभाव को छुपाकर, अपनी अंदरूनी नीचता को काबू कर, नियत तरीके से 'उस' का नियमित Ego Massage करके स्वर्ग में प्रवेश पाने में कामयाब रहेंगे...
और एक बार स्वर्ग पहुंच कर मानवता की यह गंदगी (Scum of Humanity) अपने असली रूप में आ जायेगी... क्योंकि इनकी Free Will (स्वतंत्र इच्छा) पर 'उस' का कोई जोर तो चलता नहीं!
हक़ीक़त यह है कि स्वर्ग-नर्क का कॉन्सेप्ट ख़ुद हिंदू संप्रदायों में भिन्न-भिन्न मिलता है। यह नज़रिया यहूदी मत, ईसाई मत और इस्लाम धर्म में भी एक समान नहीं पाया जाता। इसलिए प्रिय प्रवीण जी के सवाल से यह स्पष्ट नहीं है कि उन्होंने स्वर्ग-नर्क के विषय में किस मत या किस धर्म की धारणा को बुनियाद बनाकर सवाल किया है ?
प्रत्येक कर्म का एक परिणाम अनिवार्य है। नेक काम का अंजाम अच्छा हो और बुरे काम का परिणाम कष्ट हो, ऐसा मानव की प्रकृति चाहती है। अगर दुनिया में सामूहिक चेतना परिष्कृत हो जाय तो दुनिया में ऐसा ही होगा लेकिन दुनिया में ऐसा नहीं होता। इसलिए दुनिया के बाद ही सही लेकिन इंसान की प्रकृति की मांग पूरी होनी ही चाहिए। 
दुनिया में न्याय होता नहीं है। यह एक सत्य बात है। अब अगर लोगों को यह आशा है कि मरने के बाद उन्हें न्याय मिल जाएगा तो नास्तिक बंधु लोगों को न्याय से पूरी तरह निराश क्यों कर देना चाहते हैं ?
ऐसा करके वे समाज को कौन सी सकारात्मक दिशा देना चाहते हैं ?
क्या नास्तिक बंधु इस नई साइंसी खोज को स्वीकार करेंगे ?

3 comments:

डा श्याम गुप्त said...

पूरी तरह से भ्रमित -भाव आलेख है...लेखक अपना मंतव्य स्पष्ट नहीं कर पाया है कि वह क्या कहना चाहता है....

DR. ANWER JAMAL said...

@ डा. श्याम गुप्ता जी ! आप तो अपने दावे के मुताबिक़ ख़ुद की ख़ुदी बुलंद करके अपने आप को ईश्वर में कन्वर्ट कर ही चुके हैं। तब आप नाहक़ यहां पोस्ट पढ़ रहे हैं। कहीं बैठकर लोगों की प्रार्थनाएं सुनिए और हो सके तो उन्हें पूरी करके दिखाइये। अगर आप ऐसा न कर सकें तो जान लीजिए कि आप ख़ुद भ्रम के शिकार थे और इसीलिए आपको सच्ची बात भ्रम लगती थी।

Asha Joglekar said...

ईश्वर में विश्वास रखना या न रखना ये सर्वथा व्यक्तिगत चुनाव है इसे कोई जोर जबरदस्ती से नही करवाया जा सकता ।