अगर आप किसी मजलूम लड़की के बाप या उसके भाई हैं तो आपके लिए हिंदुस्तान में इंसाफ़ नहीं है, हां, इंसाफ़ का तमाशा ज़रूर है। हिंदुस्तानी अदालतें इंसाफ़ की गुहार लगाने वाले को इंसाफ़ की तरफ़ से इतना मायूस कर देती हैं कि आखि़रकार वह हौसला हार कर ज़ालिमों के सामने झुक जाता है।
यह मेरा निजी अनुभव है।हक़ीक़त यह है कि जिम्मेदारियों की वजह से मैं कभी जान ही नहीं पाया कि उन्मुक्तता भरी जवानी किसे कहते हैं ?
और मौज मस्ती कहते किसे हैं ?
कभी ऐसा वक़्त आया भी तो ज़्यादा देर ठहरा नहीं और किसी ऐसे के पास ठहरेगा भी नहीं , जिसके कोई बहन घर में मौजूद हो और वह उसकी ज़िम्मेदारी महसूस भी करता हो .
यह बात मैंने अपने बहनोई को भी उसकी विदाई के वक़्त बताई कि मैं इसे अपनी मां समझता हूं हालांकि मैंने अपनी बहनों को अपनी औलाद की तरह पाला है। इसकी आँख में मैं आंसू नहीं देख सकता.
लेकिन वक़्त भी ऐसा आया की ज़माने भर के आंसू उसकी आँखों में भर दिए.
उसे उसकी ससुराल में सताया गया।
हमने समझाने-बुझाने की पूरी कोशिश की लेकिन लड़के के माता-पिता के मन में लालच और खोट था। कुछ फ़रमाइश का इशारा भी उन्होंने दिया और महर की रक़म पर भी ऐतराज़ जताया. वे अपने वादे और इरादे से पलट गए। वे चाहते थे कि लड़का पहले की तरह फिर विदेश जाए और कमाए और कमाकर उन्हें भेजता रहे। साल दो साल में लड़का देस में आए और फिर चला जाए। उन्होंने लड़के को विदेश भेज भी दिया और चार माह बाद हमें पता चला कि वह विदेश जा चुका है। इस बीच उसने अपनी पत्नी से किसी भी प्रकार का सलाह मशविरा नहीं किया और न ही अपने विदेश गमन की सूचना दी।
हमने उन्हें बताया कि यह आपकी ग़लत बात है तो उन्होंने अपने वकील के ज़रिए एक क़ानूनी नोटिस भी भेज दिया। जिसमें उन्होंने लड़की पर आरोप लगाया कि वह अपने माता-पिता और भाई के बहकावे में आकर 2 लाख रूपये के ज़ेवर कपड़ा और पति के अस्सी हज़ार रूपये नक़द जो कि उसके पास बतौर अमानत रखवाए गए थे, अपने साथ ले गई है। यह आरोप सरासर झूठे थे और पेशबंदी में लगाए गए थे। हमने सुलह सफ़ाई के लिए सामाजिक प्रक्रिया को अपनाया। काफ़ी कोशिशें कीं लेकिन बेकार गईं।
इसके बाद हमने वकील साहब की सलाह से एक केस उनपर दहेज उत्पीड़न की धाराओं में थाने में दर्ज कराया। इसे दर्ज कराने में हमें 15 दिन लग गए। कई बार एस.एस.पी. साहब से मिले। हमने कोई झूठी मैडिकल रिपोर्ट नहीं बनवाई। उसके बाद एक केस ख़र्चे के लिए डाला और एक केस दहेज वापसी के लिए और एक केस ‘घरेलू हिंसा महिला अधिनियम‘ के तहत भी डाला।
वकील साहब जो कहते रहे हम करते रहे।
आज लगभग चार साल होने जा रहे हैं। लड़की को न तो कोई ख़र्चा मिला है और न ही दहेज का सामान ही वापस मिला है।
पिछले दिनों लड़के ने मीडिएशन कोर्ट इलाहाबाद में अपील की तो लड़की के साथ हम भी वहां तीन बार गए।
समझौते की राह नहीं बनी।
लेकिन वहां से केस लोअर कोर्ट में आने का नाम नहीं ले रहा है।
वकील साहब यह बताते हैं कि भाई यहां सुनवाई का नंबर ही नहीं आता।
आपके केस का नंबर कब आएगा ?
हम बता नहीं सकते।
किसी क़ाबिल जज को इस बात की कोई परवाह नहीं है कि एक लड़की के मासूम अरमानों को बुरी तरह रौंद दिया गया है और अगर उसके पास उसके बाप और भाई न हों तो वह आर्थिक रूप से भी बेसहारा है।
अपने क़स्बे और शहर का तो कोई वकील पैसे नहीं लेता लेकिन फिर भी बहुत से ख़र्चे हो जाते हैं।
इस बीच लड़का पक्ष की ओर से लड़के के पिता जी ने सरकारी डॉक्टर को पैसा दिया और अपनी पसली टूटी हुई दिखाकर हम चार लोगों पर केस कर दिया और उसमें तीन लोगों को अपनी ज़मानत करानी पड़ी। मैंने नहीं कराई क्योंकि मैं जान गया हूं कि इन काग़ज़ों को चक्कर कैसे कटवाया जाता है ?
एक और केस उन्होंने मारपीट और लूटपाट की धाराओं मे 156 (3) सीआरपीसी के तहत दर्ज कराने की कोशिश एक और दूर के शहर में की लेकिन जज ने लूटपाट की धाराएं तो काट दीं लेकिन मारपीट की धाराएं बाक़ी रखीं। आज तक उस केस का कोई सम्मन मुझे नहीं मिला क्योंकि वे दूर के शहर में पैरवी कर नहीं पाए।
यहां काग़ज़ के पीछे हर सीट पर पैरवी करने वाले को भागना पड़ता है। हरेक सीट पर 50 रूपये से लेकर 100 और 200 रूपये ख़र्च करने पड़ते हैं। इसके बाद जब सम्मन मुल्ज़िम के पास पहुंचता है तो वह सम्मन लाने वाले डाकिये और सिपाही को 100-200 रूपये देता है और वह सरकारी क़लम से लिख देता है कि ‘मकान बंद पाया गया। कोई नहीं मिला।‘ आदि आदि।
इस तरह बहुत से केसों के तो सम्मन ही बरसों तक तामील नहीं होते। मेरे केसेज़ के साथ भी यही हुआ।
‘घरेलू हिंसा महिला अधिनियम‘ में 90 दिनों के भीतर फ़ैसले की व्यवस्था रखी गई है लेकिन आज एक-डेढ़ साल से ज़्यादा हो गया है, प्रोबेशन अधिकारी उसके सम्मन की तामील भी नहीं करा पाया है।
हिंदुस्तानी अदालतों में इंसाफ़ नहीं बल्कि इंसाफ़ के नाम पर एक तमाशा होता है। शुरू शुरू में मुझे हमदर्दों ने कोर्ट-कचहरी से बचने की सलाह दी थी लेकिन मुझे उनकी राय बेकार लगी थी। मैं बड़ी उम्मीद से कोर्ट जाया करता था। हर बार 2-3 माह बाद की तारीख़ लगती थी। किसी दिन पहुंचे तो पता चला कि आज कॉन्डोलेंस हो गई है, कभी किसी वकील के घर में कोई मर गया है और कभी कोई वकील ख़ुद ही मर गया। कभी पता चला कि आजकल जज साहब कोर्ट में बैठ ही नहीं रहे हैं क्योंकि वे अपनी तरक्क़ी के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं और कभी जज साहब बैठे हैं तो वकील हड़ताल किए बैठे हैं कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बेंच आनी चाहिए या फिर किसी काले क़ानून के विरोध में या अपने किसी साथी वकील की पिटाई को लेकर शहर भर में जुलूस निकालते हुए मिलेंगे। साल में दो बार दो वकील क़त्ल कर दिए गए तो वकील आंदोलन पर चले गए। इस सबके बावजूद जब कोई तारीख़ पड़ भी गई और वकील के घर-बाहर भी सब कुछ सलामत रहा और जज साहब भी कोर्ट में बैठे हुए मिल गए तो विपक्षी पार्टी के वकील साहब की एप्लीकेशन आ गई कि मेरी या मेरे मुवक्किल की तबियत ख़राब हो गई है लिहाज़ा अगली तारीख़ लगा दी जाए और हमारे ‘क़ाबिल जज‘ ने तुरंत ढाई माह बाद की तारीख़ लगा दी बिना यह सोचे कि हम लड़की वालों ने किस तरह एक-एक दिन अंगारों पर गुज़ारा है।
इसी तरह तारीख़ों पर तारीख़ें लगने लगीं तो हमारे वालिद साहब और एक छोटे भाई ने कहा कि इतने लंबे काम की ज़रूरत नहीं थी। उसका काम हम तमाम कर देते हैं। अकेला लड़का है, ज़िंदगी भर रोते रहेंगे उसके मां-बाप। उसने हमारी लड़की की ज़िंदगी तो तबाह कर ही दी है। अब उसे चैन से कैसे जीने दिया जाए ?
इस तरह हिंदुस्तानी अदालतें परोक्ष रूप से उन बहुत से क़त्लों की पृष्ठभूमि और मनोभूमि भी तैयार करती हैं जिनमें वह इंसाफ़ में देर करती है। कई बार इंसाफ़ होता न देखकर वादी पक्ष मुल्ज़िम को मार डालता है और कई बाद इसके उल्टा होता है कि ज़मानत पर छूटकर मुल्ज़िम पक्ष वादी पक्ष की ओर के गवाहों को मार डालता है या फिर फ़रार हो जाता है और इस तरह कभी इंसाफ़ नहीं हो पाता।
मैंने उन्हें मना किया कि वजह जायज़ हो तो जान लेते हुए भी अच्छे लगते हैं और देते हुए भी। महज़ रंजिशन ऑनर किलिंग ख़ुदा को नापसंद है, जिसके लिए जी रहे हैं जब उसे ही नापसंद हो तो फिर उसे क्या मुंह दिखाएंगे ?
ऐसा कहकर मैंने उन्हें रोक दिया।
दास्तान बहुत लंबी और दर्दनाक है जिसे सिर्फ़ एक बेटी वाला ही समझ सकता है लेकिन हिंदुस्तान के जज और वकील बिल्कुल नहीं समझ सकते।
हमारे फूफा एक ट्रांसपोर्टर हैं . वह बताया करते थे कि 'केस ब्याहता भी है यानि कि बच्चे भी देता है'.
हम उनकी बात सुनकर हंसा करते थे लेकिन सचमुच यही होता है . वकील सलाह देता गया और हम केस करते गए और पांच केस कर दिए . एक दहेज उत्पीड़न का, एक खर्चे का , एक दहेज वापसी का , एक घरेलू हिंसा का और एक पता नहीं किसका . जान बचाने की गर्ज़ से दो फर्ज़ी केस उन्होंने कर दिए. लड़का साल भर बाद खुद हाज़िर होकर जेल चला गया और ज़मानत पर जो निकला तो आज तक वह तारीख पर नहीं आया और न ही कोई अदालत उसे हाज़िर कर पाई . दुबारा जेल जाने की नौबत आई तो उसने हाईकोर्ट में अपील कर दी और यूं सारा केस जाम हो कर रह गया है.
वकील की व्यवस्था क़ानून ने मददगार के तौर पर की थी लेकिन केस को लंबा खींचने के ज़िम्मेदार यही हैं। मुल्ज़िम पक्ष का हौसला यही बढ़ाते हैं और वादी पक्ष का हौसला भी यही तोड़ते हैं।
मेरे कुनबे में दस वकील हैं जिनमें से एक मेरे चाचा और एक बहन भी हैं।चाचा क़स्बे के एक मशहूर वकील हैं और बहन दिल्ली की एक अच्छी वकील है।
आशा करता हूं कि ये दोनों अच्छे वकीलों में से होंगे वर्ना मुझे तो जितने मिले, एक-दो को छोड़कर सारे ही लापरवाह और मनहूस मिले , ख़ास तौर पर वे जिन्हें हमने इलाहाबाद में पैरवी के लिए मुक़र्रर किया। उन्होंने पैसे ले लिए और काम नहीं किया, ऐसा तीन बार किया, तीन वकीलों ने किया। लोकल वकीलों ने शायद सलाम-दुआ की वजह से रियायत कर दी।
यह इतना लंबा केस नहीं था जिसके लिए इतनी ज़्यादा पढ़ाई-लिखाई और भारी भरकम धाराओं की ज़रूरत पड़ती हो। इस तरह के केस तो आदिवासी लोग एक पंचायत में ही निपटा लेते हैं।
साथ रहना है तो बताओ और अलग होना है तो बताओ।
इतनी सी बात पता करनी होती है इस तरह के केस में , जिसे हमारे क़ाबिल जजों से ज़्यादा बेहतर तरीक़े से आदिवासी लोग पता कर लेते हैं।
नक्सलवादियों की लोकप्रियता का एक कारण यह भी है कि उनकी अदालतों में यह तमाशा नहीं होता। केवल न्याय होता है और तुरंत होता है। जहां-जहां नक्सलवादियों की अदालतें लगती हैं वहां की सरकारी अदालतें ख़ाली पड़ी हैं और वकील बैठे हुए क़िस्मत को रो रहे हैं कि किसी की ज़िंदगी से खेलने का कोई मौक़ा हाथ ही नहीं आ रहा है।
हमारी अजीब आफ़त है कि नक्सलवाद की तारीफ़ भी नहीं कर सकते और हिंदुस्तानी इंसाफ़ को दोष भी नहीं दे सकते लेकिन ज़ुबानों पर ताले लगा देने से सच बदल नहीं जाएगा।
मैं अदालतों से मायूस हो चुका हूं और जब अपनी बहन की बढ़ती हुई उम्र की तरफ़ देखता हूं तो इरादा करता हूं कि ज़ालिमों से सुलह करके मामला रफ़ा-दफ़ा कर दिया जाए। कुछ वापस मिले या न मिले, उनसे तलाक़ ले ली जाए ताकि हम अपनी बहन की शादी कहीं और तो कर सकें।
हम अदालतों की तरह लापरवाह नहीं हो सकते। हमें तो अपने रिश्ते और ज़िम्मेदारियां निभानी हैं। अदालतों को हमारी बहन की फ़िक्र न हो तो कोई बात नहीं उसका रिश्ता ही क्या है ?
लेकिन हमें अपनी बहन की बेहतरी की फ़िक्र बहरहाल करनी ही है चाहे इसके लिए हमें ज़ालिमों के खि़लाफ़ उठाए गए अपने क़दम वापस ही क्यों न लेने पड़ें।
ऐसा विचार अब पुख्ता हो चुका है और यह सब मेहरबानी है हमारी अदालतों की।यह वह जख्मे-दिल है जिसे मैं जगज़ाहिर नहीं करना चाहता था लेकिन करना पड़ा जब ईरानी अदालत के इंसाफ़ पर उंगली उठाई गई।
अब आपके सामने इंसाफ़ के दो मॉडल हैं
एक ईरानी मॉडल और दूसरा हिन्दुस्तानी मॉडल
हिंदुस्तानी अदालतें इंसाफ़ कैसे करती हैं ?
यह तो आपने देख ही लिया है।
अब आप बताएं कि अगर यह इंसाफ़ है तो फिर ज़ुल्म किस चीज़ का नाम है ?
ऐसे में ईरानी न्याय व्यवस्था से कुछ सीखा जा सके तो शायद इस मुल्क में भी मज़लूम को इंसाफ़ मिलने की राह हमवार हो सके वर्ना तो जो भी एक बार अदालत का तजर्बा कर लेता है वह इंसाफ़ से हमेशा के लिए मायूस हो जाता है बिल्कुल मेरी तरह।
आप किसी भी अदालत में जाइये और अपनी बहन-बेटी के साथ इंसाफ़ की आस में भटक रहे लाखों लोगों में से किसी से भी पूछ लीजिए, मेरी बात की तस्दीक़ हो जाएगी।
7 comments:
यार जमाल बाबू, क्या बात है आजकल बिल्कुल सटीक-सटीक, अच्छा और मर्मस्पर्शी टाइप लिख देते हो !
मुझे आपकी बात से इत्तेफाक रखना ही पड़ता है। सही कहा आपने भारतीय अदालतों के बारे में। मगर एक बात आपको बतलायें, ये देर क्या एक तरह से मौका नहीं है पक्षकारों को आपस में मिल बैठकर समझदारी से समझौता कर लेने के लिये ?
मुकदमेंबाजी ने कभी किसी का भला किया है?
देखिये उनको यदि आपकी बहन में दिलचस्पी होती तो इस तरह का वाहियात काम न करते। बेहतर है ऐसे लोगों से वक्त बरबाद किये बिना तुरंत किनारा कर लेना।
हमारे यहाँ का कानून ऐसा है कि इँसाफ़ की उम्मीद कम ही होती है. हम आज भी मानते हैं कि Justice delayed is justice denied. जब कि सच्चाई यह है कि Justice delayed is injustice only.
हमारे कानूनी प्रावधान ऐसे हैं कि न्याय में देरी होती स्वाभाविक है. कोई भी इस प्रक्रियात्मक ख़ामी को दूर करना नहीं चाहता.
सच्चाई को आपने बहुत ही खूबसूरती से प्रस्तुत किया है! भुशन जी ने बिल्कुल सही कहा है! जैसे की अजमल कसब को अब तक फांसी नहीं दिया गया आख़िर इतनी देर किस बात के लिए हो रही है? इन्साफ मिलना यानी भगवान को पाने के बराबर है हमारे देश की यही हालत है!
प्रिय डॉ. अनवर जमाल जी मैंने आपका पोस्ट पढ़ा बहुत ही सटीक बातें लिखी हुई है | वाकई में कानून अँधा है पर हम भी अँधा से कम नहीं हैं | अब जैसे देखिये किसी और के साथ कोई गलत वाक्या होता है तो हम अपनी आँखे बंद कर आगे बढ़ जाते हैं पर जब खुद पर बीतती है तो आँख के साथ साथ मुंह भी खोल देते हैं | अनवर साहब पहले गलती हम करते हैं घुश देकर तारीख बढ़वाते हैं फिर कोर्ट करती है.. घुश देने का कम हम बंद करेंगे तभी घुश लेने का काम बंद होगा | अगर कानून से हमें सही वक़्त पर न्याय नही मिल रहा है तो हम बराबर के दोसी हैं | अच्छी पोस्ट के लिए धन्यवाद | आप मेरे से संपर्क कर सकते है 09576880359 पर |
Respected Dr. Jamal sb.,
I am really to sad to read the story of your sister. May Allah Bless her and provide her a much better option.
The real condition of our courts is same or worst than you have described. Only suprem court has set some good examples. And only a few has the previledge and long enough life to reach the suprem court and get the justice.
We can only hope for a revolution to change our society. And the persons like you only can bring this revolution.
May God Help you and all struggling to bring a change in the society.
इस्लामिक कानून मैं ना इंसाफी मुमकिन नहीं. अदालत से काम लिया जाता है.
पढकर बहुत दुःख हुआ अनवर भाई .. बहुत दिनों से ब्लॉग की दुनिया से दूर था ,इस पोस्ट पर नज़र नहीं गयी . खुदा से यही गुजारिश है कि वो जल्दी आपका साथ दे और आपा को एक बेहतर जिंदगी मिले.
ये तो सही हैकि यहाँ की कानून व्यवस्था लचर है . लेकिन अक्सर out of court फैसले ऐसे मामलो में असरदार होते है . आप अपने बुजुर्गो के माध्यम से कुछ करे .
मेरी दुआ है .जल्दी ही कुछ अच्छा होंगा .
आमीन
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